'टीना' नहीं 'सीता' की ओर देखें

अरुण कुमार त्रिपाठी

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दो दशक पहले उदय हुई टीना की अवधारणा से इतने चिपक गए हैं कि उन्हें वर्षों पुरानी सीता की अवधारणा दिखाई नहीं पड़ रही है। सीता तो क्या उन्हें एलेक्स का भी अहसास नहीं है जिसमें कम से कम किसी एक रास्ते का आग्रह नहीं है। जबकि दुनिया के तमाम देश सीता नहीं तो अलेक्स यानी आल्टरनेटिव इक्जिस्टिस की तरफ तो ध्यान दे ही रहे हैं। यह स्थिति तब दिखी जब पिछले 30 अगस्त को प्रधानमंत्री ने देश की आर्थिक स्थिति पर संसद में बयान दिया और माना कि रुपए के अवमूल्यन और चालू घाटे के बढ़ने के कारण देश की आर्थिक स्थिति डांवाडोल है। इसके बावजूद वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि जिस रास्ते पर वे देश को लेकर चले उससे किसी और दिशा में मुड़ने या उसमें संशोधन की कोई आवश्यकता है।
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की तरफ से अस्सी के दशक में चलाई गई अवधारणा -दियर इज नो आल्टरनेटिव यानी टीना को भारतीय प्रधानमंत्री अभी भी ढो रहे हैं। इसी अवधारणा के कारण यह सिद्धांत निकला था कि दुनिया के पास नवउदारवाद की नीतियां अपनाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। जबकि तीन दशक बाद यह अवधारणा अब न सिर्फ कमजोर हो चुकी है बल्कि घिस कर बेदम हो चुकी है। लातीनी अमेरिका देशों ने जो प्रयोग किए हैं वे यह साबित करते हैं कि टीना का विकल्प है और वह सीता ही है। सीता यानी सोशलिज्म इज द आल्टरनेटिव।
दिलचस्प बात यह है कि प्रधानमंत्री जो कहते हैं उस पर भी अमल करने के लिये न तो उनके सहयोगी तैयार हैं न ही वे उस उपभोक्तावादी मध्यवर्ग को उस रास्ते पर चलने को तैयार कर पाए हैं जिसे पिछले 20 सालों से पोसने का एक हद तक श्रेय उन्हें जाता है। यह जानना दिलचस्प है कि उन्होंने चालू घाटे के लिये सोने के बढ़ते आयात और तेल के बढ़ते खर्च को जिम्मेदार ठहराया पर जैसे ही उनके पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने यह सुझाव दिया कि पेट्रोल की खपत कम करने और 16,000 करोड़ रुपए बचाने के लिये पेट्रोल पंप रात के आठ बजे से सुबह आठ बजे तक बंद किए जाने चाहिए उन पर चौतरफा हमला होने लगा और सत्तापक्ष की तरफ से कोई उनके बचाव के लिये आगे नहीं आया। इस सुझाव को तुरन्त सारे विपक्ष ने खारिज कर दिया और किसी किसी ने तो तुगलकी फरमान तक कहा। संभव है कि प्रधानमंत्री ने यह सुझाव मोइली से यह साबित करवाने के लिये रखवाया हो कि देखो मेरे रास्ते पर चलने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। मोइली का एक दूसरा सुझाव है जो है तो बेहद समझदारी भरा लेकिन टीना के मानने वाले मनमोहन की नजर से वह खतरनाक ही कहा जायेगा। वह सुझाव है कि तेल के आयात पर होने वाले खर्च को बचाने के लिये भारत ईरान से तेल आयात करे और इससे उसे 57,000 करोड़ रुपए की बचत होगी। वजह साफ है कि भारत उसे रुपए में भुगतान करेगा और उसे इसके लिये डॉलर नहीं खर्च करना पड़ेगा। यह सुझाव भी लागू नहीं होने वाला है। वजह साफ है कि नाभिाकीय विवाद के कारण पाबंदियों से घिरे ईरान के ज्यादा करीब जाने का साहस भारत में नहीं है। अगर होता तो भारत ने 2009 में ही अमेरिका से नाभकीय संधि करने की बजाय ईरान से गैस पाइप लाइन का रास्ता अपनाया होता। अगर पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली ने इस सुझाव पर ज्यादा जोर दिया तो उनका मंत्रालय भी जा सकता है।
स्पष्ट है कि अमेरिकी फेडरल बैंक की मौद्रिक नीति में मामूली बदलाव से काँपती भारत की मुद्रा और अमेरिकी डर से ऊर्जा के सस्ते विकल्प की तरफ न बढ़ने की वजह अर्थिक नहीं राजनीतिक है। मनमोहन के नेतृत्व में भारत ने टीना, अमेरिका और नवउदारवाद से ऐसा रिश्ता जोड़ा है कि वह कभी फर्जी समृद्धि पर इतराएगा तो कभी पूँजी पलायन और ऊर्जा की कमी के कारण आँसू बहायेगा और लाचार होकर अमेरिका और उसके खेमे के समृद्ध देशों के आँगन में विलाप करेगा। उसकी तुलना में लातीनी अमेरिका देशों ने टीना के जवाब में सीता का जो आदर्श खड़ा किया है वह देखने लायक है।
समाजवाद के विकल्प को लातीनी अमेरिकी देशों ने छापामार युद्ध से शुरू करके लोकतान्त्रिक ढँग से अपनाया है। यह दिलचस्प बात है कि इस समय चिली, ब्राजील, उरुग्वे आदि कई देशों के राष्ट्रपति पूर्व गुरिल्ला रहे हैं। वे सब लम्बे समय तक जेल में रहे हैं। उन्होंने भीषण यातनाएं झेली हैं। सकारात्मक बात यह है कि हथियार बंद संघर्ष के साथ अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले इन नेताओं ने लोकतन्त्र के अहिंसक ढाँचे को अपनाया और उसके साथ समाजवाद का सुन्दर प्रयोग किया है। उनका समाजवाद कितना सफल और टिकाऊ होगा यह तो समय बताएगा लेकिन एक बात सही है कि उन्होंने पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, नवउदारवाद के मौजूदा शिकंजे से बाहर निकलने का प्रयास किया है और आज वे ज्यादा आत्मनिर्भार और कम घबराए हुये दिखाई दे रहे हैं।
यहाँ यह जानना तो दिलचस्प है ही कि क्यूबा जैसे देश ने भारी लागत वाली महँगी खेती की जगह पर कम लागत वाली टिकाऊ खेती को अपनाना शुरू किया है और ट्रैक्टर की जगह पर बैलों और मवेशियों का इस्तेमाल शुरू किया है ।
यह भी कम रोचक तथ्य नहीं है कि उरुग्वे के राष्ट्रपति को दुनिया का सबसे गरीब राष्ट्रपति बताया जाता है। खोजे मुजिका को करीब 12000 डॉलर मासिक वेतन मिलता है जिसका केवल 10 प्रतिशत वे अपने पास रखते हैं और 90 फीसदी धन गरीबों के हित में चलने वाली योजनाओं में लगा देते हैं। खोजे मुजिका के घर के बाहर सादे कपड़ों में दो सिपाही बैठे रहते हैं और वे साधारण नागरिक की तरह देश में घूमते हैं। जब उनसे उनकी गरीबी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि, वह आदमी गरीब नहीं है जिसके पास कम है, बल्कि गरीब वह है जिसे और ज्यादा पाने की ललक लगी रहती है।
बीसवीं सदी में विकल्प ढूँढने की बेचैनी थी और उसमें तमाम विचार ऐसे मिल जायेंगे जो आज की समस्या का नवीन हल प्रस्तुत कर सकते हैं। साठ के दशक के अर्जेंटीना के अर्थशास्त्री राउल प्रेबिस ने कहा था कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को विकास का माध्यम बताया जा रहा है वह नाकाफी है। उनका कहना था कि हमें अपने औद्योगिकीकरण पर ध्यान देना होगा। भारत ने भी नेहरू महलोनबिस मॉडल में यही किया था। पिछले दिनों असीम श्रीवास्तव और आशीष कोठारी ने अपनी ताजा किताब- “चर्निंग द अर्थ”- में यह प्रमाणित किया है कि हमने तथाकथित 3 प्रतिशत की हिन्दू विकास दर से 6 से 9 प्रतिशत की जो कन्फूसियस दर हासिल करने की कोशिश की वह फिर चार से पांच प्रतिशत के बीच आ गिरी है। उसके पर्यावरणीय नुकसान तो भयानक हुये हैं और मानवीय सूचकांक तो बांग्लादेश, श्रीलंका जैसे छोटे देशों से भी नीचे आ गया है। असीम और आशीष कहते हैं कि हकीकत में 1974 से 1990 के बीच इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के कार्यकाल में भारत 5-6 प्रतिशत की दर से विकास करता रहा है।
आज सवाल यह है कि डॉ. मनमोहन सिंह की साम्राज्यवाद के सामने कमजोर और अपनी न्यायपालिका और आम जनता के सामने ताकतवर सरकार अगर अगले चुनाव में पराजित होती है तो क्या उसकी जगह पर देश कोई राजनीतिक विकल्प पेश कर पायेगा? यह विकल्प वही साबित हो सकता है जो साम्राज्यवादी ढाँचे के बाहर अपने देश और जनता के लिये सोचता हो। जाहिर है ऐसा विकल्प वह नहीं हो सकता जो हिन्दू होने पर तो गर्व करता हो लेकिन अमेरिका से प्रमाण पत्र लेने के लिये एड़ी चोटी का जोर लगाये हुये हो। मुख्यधारा की राजनीति में तो ऐसा कोई दिखाई नहीं देता जो टीना को छोड़कर सीता या अलेक्स के मार्ग पर चले। भारतीय अर्थव्यवस्था का यही संकट है और यही हमारी राजनीति का भी।