अवधेश आकोदिया

रणजी ट्राफी में राजस्थान की अप्रत्याशित जीत को अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यह भारतीय क्रिकेट में आ रहे सकारात्मक बदलाव की ओर साफ संकेत है। राजस्थान के खिताब जीतने से यह धारणा और पुख्ता हुई है कि क्रिकेट अब बड़े शहरों और बड़े घरों की बपौती नहीं रही है। यह देहात और छोटे शहरों से निकले खिलाडिय़ों का ही जलवा है कि राजस्थान की टीम रणजी ट्राफी के सबसे निचले और कमजोर पायदान यानी प्लेट गु्रप से निकलकर खिताब तक पहुंची है। यह सही है कि राजस्थान की टीम में इस बार ऋषिकेश कानिटकर, आकाश चोपड़ा और रश्मि रंजन परीदा सरीखे पेशेवरों की सेवाएं लीं, लेकिन करिश्माई प्रदर्शन रहा दीपक चाहर और अशोक मनेरिया का। जहां चाहर राजस्थान के छोटे से शहर सूरतगढ़ के रहने वाले वहीं मनेरिया उदयपुर के। चाहर ने धमाकेदार अंदाज में अपने क्रिकेट कॅरियर का आगाज किया है। 19 साल के इस खिलाड़ी ने पहले ही मैच में 10 में से आठ विकेट लेकर दो बार की चैंपियन हैदराबाद टीम को रणजी इतिहास के न्यूनतम स्कोर- २१ रन पर समेट क्रिकेट पंडितों को ध्यान आकर्षित किया। उनका यह प्रदर्शन फाइनल तक जारी रहा। वड़ोदरा की सपाट पिच पर भी सात विकेट हासिल किए। पूरे टूर्नामेंट में उन्होंने ४० विकेट हासिल किए।

अशोक मनेरिया ने भले ही भारत की अंडर-१९ टीम का नेतृत्व किया हो, लेकिन इतना चमकदार प्रदर्शन उन्होंने पहली बार किया है। उन्हें मुंबई के खिलाफ क्वार्टर फाइनल में पहली बार मौका मिला। उन्होंने शतक जमाकर अपने चयन को सही साबित किया। इसके बाद सेमीफाइनल में तमिलनाडु के खिलाफ व फाइनल में शतक जमाया। मेनारिया ने तीनों बार तब शतक जमाया, जब टीम की स्थिति डांवाडोल नजर आ रही थी। चाहर और मनेरिया निश्चित रूप से भारतीय क्रिकेटरों की उस नई जमात का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो गांवों और छोटे शहरों से निकल रही है और जहां सुविधाओं के नाम पर खुद की मेहनत और लगन के सिवा कुछ नहीं होता है। हौसले के दम पर आगे बढऩे वाले ये खिलाड़ी तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों को ठेंगा दिखा कामयाबी हासिल कर रहे हैं। गौर करने लायक बात यह है कि मध्यमवर्गीय परिवारों में भी अब बच्चों की इच्छा-अनिच्छा का ख्याल रखा जाने लगा है। अपनी निर्णय बच्चों पर थोपने की बजाय, उनकी राय को भी महत्व दिया जा रहा है। दीपक चाहर के पिता में थे। यदि वे परंपरागत सोच रखते तो मजबूत कद-काठी के बेटे को सेना में भेजने के लिए प्रेरित करते, लेकिन उन्होंने क्रिकेट के प्रति उसके जुनून को पहचाना। वे उसे रोज ५० किलोमीटर अभ्यास के लिए ले जाते। जब बेटे का अभ्यास प्रभावित होता दिखा तो सेना की नौकरी भी छोड़ दी।

असल में क्रिकेट की दुनिया छोटे शहरों के लडक़ों ने बड़े शहरों के उच्च मध्यवर्गीय खिलाडिय़ों के दबदबे को खत्म कर दिया है, चाहे वह रांची के धोनी हों, जालंधर के हरभजन सिंह, श्रीरामपुर के जहीर खान, भरूच के इरफान और मुनाफ पटेल, अलीगढ़ के पीयूष चावला, जालंधर के हरभजन सिंह, पलारिवात्तम के श्रीसंत, रायबरेली के आरपी सिंह, गाजियाबाद के सुरेश रेना, मेरठ के प्रवीण कुमार और कूर्ग के रॉबिन उथप्पा। देहात और छोटे शहरों से आए खिलाडिय़ों को मौकों को भुनाना भी बखूबी सीख लिया है। भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी इसकी सबसे बढिय़ा मिसाल हैं। टेस्ट क्रिकेट में उन्हें शुरुआत में अस्थाई कप्तान बनाया गया था। दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ शृंखला में भारत जब 0-1 से पीछे था तो नियमित कप्तान अनिल कुंबले को चोट लग गई। धोनी को कप्तानी मिली तो उन्होंने पहले ही मैच में जीत दर्ज कर शृंखला 1-1 से बराबर कर ली। यह धोनी युग की शुरुआत थी। उन्होंने भारतीय क्रिकेट के कई मिथकों को तोड़ते हुए नए आयाम स्थापित किए हैं। उन्होंने अनुभवी और युवा खिलाडिय़ों की एक ऐसी टीम तैयार कर ली है, जो पूरी दुनिया में धमाल मचा रही है। धोनी का यह जमाना, यानी बड़े शहरों के बदले छोटे-छोटे शहरों से आने वाले नए क्रिकेटरों का जमाना है।

अब इसमें शक नहीं रह गया है कि भारतीय खेलों की वास्तविक ऊर्जा बड़े शहरों के दायरे के बाहर से आ रही है। एलीट क्लबों का दौर अब धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। इसकी दो वजह है- एक तो छोटे शहरों और मध्यमवर्गीय परिवारों के महत्वाकांक्षी नौजवान मुश्किल परिस्थितियों में पले-बढ़े होते हैं और वे कड़े मुकाबलों से नहीं घबराते और दूसरे खेल के मैदान में काबिलियत का कोई विकल्प नहीं होता। अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर टीम में स्थान तो बनाया जा सकता है, लेकिन मैदान पर तो वही टिकता है जिसमें दम होता है। यह अच्छी बात है कि देश के सबसे लोकप्रिय खेल के कर्ता-धर्ताओं ने इस बात को समझ लिया है। भारतीय क्रिकेट में पनते इस लोकतंत्र का ही परिणाम है कि कभी राजाओं और नवाबों का यह खेल अब आम आदमी का खेल बन गया है। क्रिकेट में इस क्रांति की शुरुआत अजित वाडेकर के कप्तान बनने से हुई थी। उनके बाद कप्तान और खिलाड़ी के तौर पर टीम में ऐसी प्रतिभाएं खूब आईं, जो पूरे देश में मध्यवर्ग के उभार को दर्शाते थे। धोनी के टीम में आने से काफी पहले ही क्रिकेट शहरी भारत से निकलकर छोटे शहरों और कस्बों-गांवों में फैल चुका था। हां, उनके कमान संभालने के बाद अपेक्षाकृत रूप से ज्यादा खिलाडिय़ों ने टीम में स्थान बनाया। क्रिकेट को महानगरों से बाहर फैलाने के बीसीसीआई के फैसले से कई प्रतिभाशाली लेकिन अपर्याप्त प्रशिक्षण पाए नौजवानों का इस खेल की मुख्यधारा में आना मुमकिन हो गया। उनकी महत्वाकांक्षाएं अब अवास्तविक नहीं रह गई थीं। सफलता की भूख उनमें थी ही। इस भूख को ईंधन मिला ज्यादा विकल्पों और सतत रूप से मिलने वाली सफलताओं से। निश्चित रूप से भारतीय क्रिकेट में आया यह सबसे बड़ा बदलाव है। अब ऐसी जगहों के युवा भी शानदार प्रदर्शन कर रहे हैं, जिन्हें क्रिकेट का अपारंपरिक केंद्र कहा जाता है। भारतीय क्रिकेट के इस ‘लोकतंत्रीकरण’ से निश्चित रूप से बाकी खेलों को भी फायदा हो रहा है। दूसरे खेलों में भी छोटे शहरों और मध्यमवर्गीय परिवारों से निकले खिलाड़ी अपने प्रदर्शन से झंडे गाड़ रहे हैं। वह चाहे कोल्हापुर की युवा शूटिंग सनसनी राही सर्नोबत हो या इलाहाबाद के पहले पदक विजेता जिमनास्ट आशीष कुमार।