भारतीय राज्य व्यवस्था के खिलाफ एक नए आक्रोश को जन्म देगी याकूब मेमन को फांसी
भारतीय राज्य व्यवस्था के खिलाफ एक नए आक्रोश को जन्म देगी याकूब मेमन को फांसी
मार्च 1993 के मुंबई बम धमाकों के आरोपी याकूब मेमन को फांसी दिया जाना लगभग तय माना जा रहा है। इस फांसी पर देश भर में मिली-जुली प्रतिक्रियाएं हो रही हैं। एक तरफ कहा जा रहा है कि बम धमाकों में मारे गए लोगों को न्याय मिलेगा तो दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि यह फांसी अन्याय को बढ़ावा देगी और अपनी तुच्छ राजनीतिक सोच के चलते भारतीय जनता पार्टी की सरकार याकूब मेमन को फांसी देना चाहती है ताकि उसका उग्र हिंसक हिंदू राष्ट्रवादी तबका खुश हो सके। यहां अहम सवाल है कि क्या याकूब को फांसी देने से मुंबई के पीड़ितों को वाकई इंसाफ मिलेगा या इंसाफ की चाह रखने वालों का भारतीय न्याय व्यवस्था से विश्वास उठ जाएगा?
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) ने कहा है कि याकूब मेमन को फांसी की सजा न्यायसंगत नहीं होगी। पार्टी के पॉलिट ब्यूरो ने एक बयान में कहा, "याकूब मेमन षड्यंत्र का हिस्सा था, लेकिन मुख्य आरोपियों से अलग उसने भारतीय अधिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण किया और मुकदमे का सामना किया।" मुकदमे का सामना करने के लिए वह अपने परिवार को भी भारत लाया। माकपा के मुताबिक, "उसने हमला करने तथा आतंकवादियों को पनाह देने में पाकिस्तानी लोगों की संलिप्तता की जानकारी भी दी और इस तरह वह सरकार के पास अकेला गवाह था।" माकपा ने कहा है, "उसे अकेले मौत की सजा मिली है, जबकि हमले के मुख्य साजिशकर्ता अब भी कानून के शिकंजे से बाहर हैं।" अगर याकूब मेमन की फांसी की सजा की तामील की गई, तो यह न्याय का अंत होगा। माकपा की दलील है, "पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की फांसी की सजा को भी आजीवन कारावास में बदल दिया गया है।" माकपा के अनुसार, "माकपा देश से फांसी की सजा को समाप्त करने की वकालत करती आई है। इसलिए याकूब मेमन की दया याचिका स्वीकार कर ली जानी चाहिए।"
दूसरी तरफ एमआईएम नेता असदउद्दीन ओवैसी का बयान आया है कि, 'फांसी की सजा मजहब को आधार बनाकर दी जा रही है। याकूब मेमन को फांसी क्यों दी जा रही है। अगर सूली पर चढ़ाना ही है तो राजीव गांधी के हत्यारों को भी चढ़ाया जाए। इस तरह मजहब को आधार नहीं बनाया जाए।' जबकि रिहाई मंच ने याकूब मेमन के फांसी के फैसले को न्याय की हत्या करार देते हुए उसकी फांसी की सजा को खत्म करने की मांग की है।
रिहाई मंच अध्यक्ष मुहम्मद शुऐब एडवोकेट का कहना है कि मेमन के फांसी के फैसले के बाद एक बार फिर से जब यह बहस सामने आ चुकी है कि हमारी खुफिया और सुरक्षा एजेंसियां किसी को कहीं से उठाती हैं और कहीं से दिखाती हैं तो ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि इन एजेंसियों के खिलाफ कार्रवाई हो पर यहां उल्टे मेमन को ही फांसी दी जा रही है, जबकि वह खुद इस मामले का गवाह है। जिस तरीके से यह पूरा मामला अन्तर्राष्ट्रीय जगत के सामने आ चुका है उसने भारतीय न्याय व्यवस्था पर भी बड़ा सवाल उठा दिया है कि वह सिर्फ और सिर्फ बहुसंख्यकवाद की संन्तुष्टि के लिए ऐसा कर रही है जिससे पूरी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है।
मुहम्मद शुएब की यह दलील भी गौर करने लायक है जिसमें वह कहते हैं कि आखिर जब पूरी दुनिया यह बात जान रही है कि मेमन के परिवार को करांची से लाने के नाम पर उसे गवाह बनाया गया तो इससे यह भी पुख्ता होता है कि मेमन की इस कमजोरी का फायदा उठाकर जांच एजेंसियों ने अपनी थ्योरी को उसके मुंह से कहलवाने की कोशिश भी की हो और जब वह कामयाब हो गईं और मेमन की कोई जरूरत नहीं रह गई तो उसे फांसी के तख्ते पर पहुंचाकर हर उस तथ्य का कत्ल देना चाहती हैं जो उसके खिलाफ हो सकता है।
बहरहाल अब प्रश्न यह है कि हम और हमारी सरकार किस दिशा में बढ़ना चाहती है। सारी दुनिया में फांसी की सजा के खिलाफ विरोध के स्वर उठ रहे हैं। कई मुल्कों में इस पर रोक लगाई जा चुकी है। क्या अहिंसा और क्षमा पर विश्वास रखने का दावा करने वाला भारत इस पर पाबंदी नहीं लगा सकता?
दूसरी तरफ ओवैसी का जो कहना है या रिहाई मंच का जो कहना है आप उसे सिरे से खारिज नहीं कर सकते। प्रश्न तो उठेंगे ही कि आखिर सिर्फ याकूब मेमन को ही फांसी क्यों? राजीव गांधी के हत्यारों या पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी क्यों नहीं? जाहिर है ये राजनीतिक प्रश्न हैं, लेकिन मत भूलिए याकूब मेमन को फांसी भी एक राजनीतिक फैसला ही है। वरना सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका के विचाराधीन रहते हुए मेमन की मौत का वारंट जारी करना क्या कानून के खिलाफ नहीं है? क्या सरकार को कानून तोड़कर किसी भी भारतीय नागरिक को फांसी के तख्ते पर चढ़ा देने का अधिकार है? निश्चित तौर पर यह फैसला नए सिरे से भारतीय न्याय व्यवस्था और भारतीय राज्य व्यवस्था के खिलाफ एक आक्रोश को जन्म देगा।
2002 के गुजरात जनसंहार के बाद अलगाववादी व उग्रवादी हिंदुत्ववादियों की तरफ से बार-बार एक जुमला उछाला जाता रहा है कि गुजरात जनसंहार तो गोधरा कांड की प्रतिक्रिया थी। एक बारगी उनकी इस दलील से सहमत हो भी लिया जाए, तो आखिर कब तक ये क्रिया और प्रतिक्रिया का दौर चलेगा? फिर ठीक इसी तर्क पर मुंबई बम धमाके 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद हुए जनसंहार की प्रतिक्रिया कैसे नहीं थे? और गोधरा कांड के कथित दोषियों को तो सजाएं हो गईं और 2002 के गुजरात जनसंहार के मास्टरमाइंड लोगों के अच्छे दिन आ गए। क्या मुंबई बम धमाकों के मृतकों को न्याय मिलने के साथ-साथ बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद हुए जनसंहार में मारे गए लोगों को न्याय नहीं मिलना चाहिए? याद रखिए अगर इसी प्रकार क्रिया की प्रतिक्रिया के तर्क जारी रहे तो आप एक याकूब मेमन को फांसी के तखते पर लटका कर अलगाववादी हिंसक हिंदू राष्ट्रवादी ताकतों को तो संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया क्या होगी, इस पर भी गौर कर लीजिए।
पूर्व रॉ अधिकारी बी रामन, जो याकूब की गिरफ्तारी के ऑपरेशन को कॉर्डिनेट कर रहे थे, का सात वर्ष पूर्व लिखा गया लेख रेडिफ.कॉम पर मौजूद है जिसमें उन्होंने याकूब मेमन को फर्जी तरीके से काठमांडू से उठाकर दिल्ली में दिखाने की पुलिस की कहानी को न सिर्फ गलत बताया, बल्कि यह भी आरोप लगाया कि अदालत के सामने अभियोजन पक्ष ने मेमन को लेकर सही बात नहीं रखी। याकूब और उसके परिवार के सदस्यों को कराची से भारत लाने के पूरे ऑपरेशन को बी रामन की देखरेख में ही चलाया गया था, इस कॉलम में रामन ने कहा था कि उनकी राय में याकूब मेमन को फांसी की सजा से छूट मिलनी चाहिए।
यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि याकूब मेमन ने भारत की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को भरपूर सहयोग किया और उसकी सूचनाओं के आधार पर ही मुंबई बम ब्लास्ट केस की जांच पूरी हुई। क्या याकूब मेमन को फांसी पर लटका कर इस केस का एक अहम राज़दार खतम नहीं कर दिया जाएगा ? क्या दाऊद इब्राहिम के खिलाफ एक सुबूत को नष्ट नहीं कर दिया जाएगा? और सबसे बड़ी बात क्या भारत इसके बाद ऐसे लोगों के लिए रास्ता बंद नहीं कर देगा जो अपने गुनाहों से तौबा करके अपने मुल्क वापिस लौटना चाहते हैं? और क्या याकूब मेमन के केस को नजीर बनाकर अलगाववादी ताकतें भटके हुए लोगों को यह समझाने में कामयाब नहीं हो जाएंगी कि वापिस लौटे तो तुम्हारा हश्र याकूब मेमन जैसा होगा, जैसा कि याकूब मेमन ने भी कहा कि टाइगर ठीक कहता था!
अमलेन्दु उपाध्याय


