भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव: एक युग प्रवर्तक नेता और उनका योगदान
आचार्य नरेंद्र देव, जिन्हें भारतीय समाजवाद का पितामह माना जाता है, ने भारत में समाजवादी आंदोलन को प्रेरित किया। उनके विचारों और योगदान पर क़ुरबान अली का स्मृति व्याख्यान पढ़ें, जो उनके समाजवाद के प्रति अडिग दृष्टिकोण को रेखांकित करता है।

आचार्य नरेंद्र देव: भारतीय समाजवाद के पितामह
आचार्य नरेंद्र देव की जयंती पर क़ुरबान अली का स्मृति व्याख्यान
भारतीय समाजवाद के पितामह आचार्य नरेंद्र देव : क़ुरबान अली भाग-2
- आचार्य नरेंद्र देव के विचार और समाजवादी आंदोलन
- आचार्य नरेंद्र देव की जयंती पर समाजवादी आदर्शों की चर्चा
- आचार्य नरेंद्र देव और भारतीय किसान आंदोलन
31अक्टूबर को भारत में समाजवाद के पितामह कहे जाने वाले आचार्य नरेंद्र देव जी का जन्मदिन था। यह उनकी 135वीं जयंती थी। वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली का यह लेख कुछ वर्ष पहले आचार्य नरेंद्र देव के जन्मदिन 31 अक्टूबर पर उनके द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय में आयोजित उनकी याद में दिए गए एक स्मृति व्याख्यान पर आधारित है।
1948 में जब सोशलिस्ट, कांग्रेस पार्टी से बाहर आ गए और स्वतंत्र रूप से सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया तो 1946 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जीत कर यूपी विधानसभा के सदस्य बने आचार्य जी और उनके ग्यारह अन्य सहयोगियों ने विधान सभा से इस्तीफ़ा दे दिया। हालांकि उस समय न इसकी जरूरत थी, न किसी ने मांग की थी। लेकिन आचार्य जी का मानना था कि कांग्रेस पार्टी से बाहर हो जाने और अलग पार्टी बना लेने के बाद विधानसभा का सदस्य बने रहना उनके लिए नैतिक रूप से उचित नहीं होगा। इसके बाद हुए उपचुनावों में वे खुद और उनके लगभग सभी साथी सहयोगी चुनाव हार गए। इन चुनावों में आचार्य जी के खिलाफ अत्यंत अशोभनीय प्रचार किया गया गया लेकिन वे अपने राजनीतिक सिद्धांतों और आदर्शों से विमुख नहीं हुए। अयोध्या में बाबरी मस्जिद विवाद भी उनके इसी उप-चुनाव के बाद शुरू हुआ था।
आचार्य नरेंद्र देव मानव समाज के कल्याण और नैतिक जीवन के विकास के लिए अन्याय का विरोध आवश्यक समझते थे उनका विचार था कि शोषण-विहीन समाज में सामाजिकता के आधार पर मनुष्य का नैतिक विकास हो सकता है लेकिन स्वार्थ प्रेरणा पर आश्रित वर्ग समाज में सामाजिक भावनाओं का विकास बहुत कुछ अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए वे राजनीतिक स्वराज्य के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक स्वराज्य के लिए भी प्रयत्नशील रहे और राजनीतिक स्वतंत्रता मिल जाने के बाद जीवन पर्यन्त देश में जनतांत्रिक समाजवादी समाज निर्मित करने का प्रयास करते रहे।
आचार्य नरेंद्र देव का किसान आंदोलन में योगदान
आचार्य नरेंद्र देव जी को देश और दुनिया मार्क्सवादी-समाजवादी तथा बौद्ध दर्शन का प्रखर विद्वान जानती और मानती है। लेकिन आचार्य जी के किसान आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान की जानकारी कम ही लोगों को है।
1920 में असहयोग आंदोलन के दौरान अवध के 4 प्रमुख जिलों रायबरेली, फैजाबाद, प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर में किसान आंदोलन तेजी से चला। आचार्य जी ने इस आंदोलन में खुलकर भाग लिया तथा उनके प्रभावशाली भाषण के चलते किसान, आंदोलन में डटे रहे। सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए 7 जनवरी 1921 को मुंशीगंज में गोली चलायी। दमन के बावजूद आंदोलन उग्र रूप धारण कर लगातार चलता रहा तब सरकार को किसानों की बेदखली रोकने वाली मांग स्वीकार करनी पड़ी। अवध आंदोलन आचार्य जी की भूमिका के चलते सफल रहा। आंदोलन के दौरान किसानों को यह प्रतिज्ञा करायी गयी कि वे गैरकानूनी टैक्स अदा नहीं करेंगे, बेगार-बिना मजदूरी नहीं करेंगे। पलई, भूसा तथा रसल बाजार भाव पर बेचेंगे तथा नजराना नहीं देंगे। बेदखल खेत को कोई दूसरा किसान नहीं खरीदेगा तथा बेदखली कानून मंजूर होने तक सतत संघर्ष चलाएंगे।
किसान सभा के गठन में आचार्य नरेंद्र देव का योगदान
1936 में भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई। किसान सभा के गठन में आचार्यजी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसी वजह से आचार्य जी को 1939 में गया में हुए किसान सभा अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया जिसमें आचार्यजी ने किसान सभा और कांग्रेस संगठन के संबंधों पर जोर देते हुए कहा कि साम्राज्यवाद के विरोध में दोनों को एक साथ खड़े होकर किसान क्रांति को मज़बूत करने की जरूरत है ताकि किसान जमीन का मालिक बन जाये। राज्य और किसानों के बीच मध्यवर्ती शोषकों का अंत हो जाय। कर्जे के बोझ से किसानों को छुटकारा मिले तथा श्रम का पूरा लाभ उन्हें मिल सके।
सोशलिस्ट पार्टी ने आचार्य जी की प्रेरणा से 25 नवंबर 1949 को लखनऊ में एक विशाल 'किसान मार्च' आयोजित किया जिसमें 50 हजार से ज़्यादा किसानों ने भाग लिया। फरवरी 1950 में डॉ. लोहिया की अध्यक्षता में रीवा में हिंद किसान पंचायत का पहला अधिवेशन हुआ, तब आचार्य जी ने किसानों का हौसला बढ़ाते हुए किसानों से संगठित होने का आह्वान किया।
आचार्य जी ने जमींदारी उन्मूलन कमेटी को 1947 में लिखे 'मेमोरेंडम' में कहा कि जिस तरह से ज़मींदारों ने किसानों को लूटा, खसोटा और चूसा है यदि उसका हिसाब लगाया जाये तो किसानों के ऋण से मुक्त होना जमींदारों के बूते की बात नहीं। ऐसी हालत में जमीदारों को मुआवजा देने का सवाल ही नहीं उठना चाहिए।
आचार्य जी ने देवरिया ज़िले में किसानों की फसल खराब होने के बाद हुए सत्याग्रह में भागीदारी करते हुए किसानों और सरकारी कर्मचारियों के भेद को समाप्त करने की मांग की। 1950 में पंजाब में भी नरेंद्र देव जी ने हिसार जिले में बेदखली के खिलाफ संघर्ष किया था।
आचार्य जी का किसान संघर्ष का लंबा इतिहास है।
आचार्य जी जीवन पर्यन्त दमे के मरीज रहे। इसी रोग के कारण 19 फ़रवरी, 1956 को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के इरोड में उनका निधन हो गया।
उनके निधन पर भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 20 फरवरी 1956 को राज्य सभा में कहा:
“आचार्य नरेंद्र देव का निधन हममें से कई लोगों के लिए और, मैं समझता हूं, देश के लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति के जाने से कहीं ज्यादा बड़ी बात है। वे दुर्लभ विशिष्टता वाले व्यक्ति थे- कई क्षेत्रों में विशिष्टता- आत्मा में दुर्लभ, मन और बुद्धि में दुर्लभ, मन की अखंडता में दुर्लभ और अन्यथा। केवल उनका शरीर ही उनसे दूर हुआ है।मुझे नहीं मालूम कि यहां इस सदन में कोई और व्यक्ति ऐसा मौजूद है जो मुझसे ज्यादा समय तक उनके साथ जुड़ा रहा हो। 40 साल से भी पहले हम एक साथ आए थे और हमने आजादी के संघर्ष की धूल और गर्मी में और जेल जीवन की लंबी खामोशी में एक साथ अनगिनत अनुभव साझा किए थे, जहां हमने-मुझे अब याद नहीं-विभिन्न स्थानों (जेलों) पर चार या पांच साल एक साथ बिताए थे, और अनिवार्य रूप से एक-दूसरे को करीब से जानने लगे थे; और इसलिए, हममें से कई लोगों के लिए एक ओर जहाँ सार्वजनिक तौर पर क्षति की भावना है, वहीं दूसरी ओर निजी तौर पर भी क्षति की भावना है और यह भावना है कि एक असाधारण व्यक्ति चला गया है और उसके जैसा कोई व्यक्ति दोबारा मिलना बहुत कठिन होगा।"
राज्य सभा के सभापति और तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा, “आचार्य नरेंद्र देव अपने आदर्शों, निष्ठा और स्वतंत्र निर्णय-क्षमता के लिए सुविख्यात थे। वे उस समय समाजवादी बने थे जब समाजवाद लोक-प्रचलन में भी नहीं आया था। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उन्होंने कांग्रेस के सदस्य के रूप में कार्य किया।कालांतर में वे समाजवादी दल के एक प्रमुख नेता के रूप में सामने आए। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सेवाएँ लंबे समय तक स्मरण की जाएँगी।वे किसी भी रूप में छद्म से सर्वथा दूर थे। उनके विचारों ने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया और हमारी नीतियों को नई दिशा प्रदान की हमने एक महान् देशभक्त, एक महान् नेता और एक बहुमूल्य व्यक्तित्व खो दिया है।”
जयप्रकाश नारायण ने आचार्य जी को अजातशत्रु कहा था। उन्होंने कहा था कि "आचार्य जी और गांधी जी के अतिरिक्त उन्हें अब तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जो आदमियत, व्यक्तित्व, इंसानियत, बौद्धिक शक्ति, ज्ञान, वाक्पटुता, भाषण शक्ति, इतिहास और दर्शन की समझ आचार्य नरेंद्र देव जैसी रखता हो। आचार्य नरेंद्र देव जी समाजवादी समाज के साथ-साथ समाजवादी सभ्यता का निर्माण करना चाहते थे। उनका स्पष्ट मत था कि समाजवादी समाज को बनाने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के साथ-साथ जनता के मानस को बदलने की, जागृत करने की, स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझाने योग्य बनाने तथा समाजवादी नैतिक मूल्यों के समुचित प्रशिक्षण की नितांत आवश्यकता है।"
राहुल सांकृत्यायन ने आचार्य जी के बारे में कहा कि उनकी अंग्रेजी भाषा पर असाधारण पकड़ थी। बौद्ध दर्शन पर उनकी किताब ‘अभिकोशभाष्य’ को उन्होंने ऐतिहासिक ग्रंथ बताया। 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' का अनुवाद भी आचार्य जी और राहुल जी ने मिलकर शुरू किया था।
राममनोहर लोहिया ने आचार्य जी के बारे में कहा कि "वे बौद्ध दर्शन, बौद्ध साहित्य, बौद्ध इतिहास के साथ-साथ राजनीति की गहराई से समझ रखने वाले विद्वान थे। मंत्री पद न लेना इंकार करना उनके लिए छोटी बात थी। आचार्य जी के भाषण शिक्षाप्रद और जोशीले होते थे। उन्होंने काशी विद्यापीठ में हजारों विद्यार्थियों को समाजवादी विचार से शिक्षित किया"।
वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी कहते हैं:
"आचार्य नरेंद्र देव अगर कांग्रेस में रहते तो उन्हें प्रधानमंत्री छोड़कर कोई भी पद मिल सकता था। 1936-38 के बीच वह संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) के कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। उस समय जब कई राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं तो पार्टी का अध्यक्ष ही प्रदेश का प्रधानमंत्री होता था। उस लिहाज से वे तत्कालीन यूपी के मुख्यमंत्री (प्रधानमंत्री) बन सकते थे। लेकिन चूंकि सीएसपी यानी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने तय किया था कि उसके नेता सरकार में कोई पद नहीं लेंगे इसलिए आचार्य जी मुख्यमंत्री नहीं बने। आजादी के बाद महात्मा गाँधी चाहते थे कि नरेंद्र देव को कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए। उन्होंने इसका प्रस्ताव भी किया था। लेकिन सरदार पटेल को यह बात पसंद नहीं आई। तर्क यह भी था कि ये लोग तो कांग्रेस में रहते हुए भी अलग पार्टी चला रहे हैं। बल्कि सरदार पटेल तो समाजवादियों से इतना चिढ़ते थे कि उन्होंने गांधी जी से जाकर शिकायत कर डाली कि समाजवादी कांग्रेस के बड़े नेताओं की हत्या कराकर सत्ता पर कब्जा करना चाहते हैं। यह सही है कि कांग्रेस समाजवादी पार्टी के नेता आजादी की लड़ाई के लिए हिंसा को एक हद तक जायज मानते थे। यह बात जयप्रकाश नारायण के जेल से भागने और डॉ लोहिया के भूमिगत रेडियो चलाने और रेल की पटरियां उखाड़ने की तैयारी करवाने के निर्णयों से प्रकट होती है। लेकिन वे लोग इस हिंसा का प्रयोग किसी की हत्या में नहीं करते थे। वे उसे अनुचित मानते थे। यह समाजवादी नेताओं पर एक हद तक मार्क्सवाद का प्रभाव था। गांधी उन नेताओं को इस प्रभाव से मुक्त कर रहे थे लेकिन वह प्रभाव एकदम से गया नहीं था।"
भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तार होने के बाद सन 1945 में जब आचार्य नरेंद्र देव अहमदनगर जेल से छूटे तो गांधी जी से मिलने पुणे गए। गांधी ने उनसे पूछाः
'सत्य और अहिंसा के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?'
जवाब में नरेंद्र देव ने कहा, 'सत्य की तो सदा से आराधना किया करता हूं किंतु इसमें मुझे संदेह है कि बिना कुछ हिंसा के राज्य की शक्ति हम अंग्रेजों से छीन सकेंगे।'
आचार्य नरेंद्र देव मार्क्सवादी थे और आजीवन अपने को मार्क्सवादी कहते रहे। लेकिन उन्होंने सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत को खारिज कर दिया था। वे लोकतांत्रिक केंद्रवाद के मार्क्सवादी सिद्धांत में यकीन नहीं करते थे। बल्कि वे लोकतांत्रिक समाजवाद के हिमायती थे। वे मार्क्सवाद के सिद्धांत को नियतिवाद से नहीं जोड़ते थे। वे नहीं मानते थे कि उत्पादन की आर्थिक शक्तियों के बदलाव से स्वतः क्रांति हो जाएगी। क्रांति के लिए वे मानव विवेक और उद्यम को अनिवार्य मानते थे।
वे कहते भी रहते थे कि 42 से आंदोलन की क्रांति अधूरी है। उस क्रांति से स्वतंत्रता हासिल करनी थी, समता हासिल करनी थी, सांप्रदायिक सद्भाव प्राप्त करना था और किसानों-मजदूरों का राज कायम करना था। वह सब हो नहीं सका है इसलिए उस भावना को जागृत रखना जरूरी है। वे गांधी जी को भी समाजवादी मानने लगे थे। वे कहते थे कि गांधी एक अराजकतावादी चिंतक हैं और एक जगह गांधी कहते भी हैं कि उन्हें राज्य नामक संस्था से सटने में बहुत परेशानी होती है। लेकिन आचार्य जी की चिंताओं में सांप्रदायिकता बड़ी चिंता थी। उन्होंने 1939 में अपने अखबार 'संघर्ष’ में लिखे लेख में कहा कि जब से आठ राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनी हैं तब से सांप्रदायिक शक्तियां एकजुट होकर ज्यादा सक्रिय हो गई हैं। वे इस दौरान मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की एकता देखकर चकित हैं। वे यह भी कहते हैं कि पहले यह शक्तियां धार्मिक कार्यक्रमों में यकीन करती थीं लेकिन अब खुलेआम राजनीति करने लगी हैं। इसके लिए वे गांधी जी को सचेत करते हैं कि उन्हें सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध कार्रवाई नहीं करनी चाहिए और कांग्रेस के भीतर जो दक्षिणपंथी और वामपंथी शक्तियां हैं उनमें एकता लानी चाहिए।
समाजवादी लेखक और पत्रकार और अब राज्य सभा के उपसभापति हरिवंश के अनुसार, "आचार्य नरेंद्र देव और उनके सहयोगियों का सम्यक मूल्यांकन होना शेष है। पतनोन्मुख सत्ता या समाज, सर्वदा सत्ताधीशों या उनके प्रियजनों के अवदान के संदर्भ में चारण गीत गाता है।यह दोषपूर्ण दृष्टि है। इससे बीमार समाज जनमता-पनपता है, जो समाज अपने मनीषियों-ऋषितुल्य चिंतकों को भुलाने लगे, वह गंभीर सामाजिक रोग से पीड़ित हो कर बिखरता है। आज हम ऐसे ही दौर से गुजर रहे हैं। इस माहौल में आचार्य जी जैसे तपस्वी, त्यागी और उद्धट विद्वान की याद अंधेरे में बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत है। आचार्य नरेंद्र देव और उनके साथियों ने न सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की, बल्कि एक वैकल्पिक और नये समाज के लिए अपने जीवन की आहुति दी। सत्ता को ठुकरा कर संघर्ष का वरण किया।आचार्य जी उन चिंतकों में से थे, जो सदैव समय और वर्तमान की परिधि से आगे देखते-आंकते थे। वह देश, काल की सीमा से परे एक नये समाज की बुनियाद रखने वाले मनीषी थे। वह सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा रहे। उन्होंने ‘क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों’ की परिकल्पना की, जो राष्ट्रीय और समाजवादी क्रांति के लिए अपरिहार्य हैं। वह जीवनपर्यंत मार्क्सवादी रहे। राष्ट्रीयता की बात जिस शिद्दत से उन्होंने की, वह अनूठी है। देश में समाजवाद का सपना देखने वाले वह शिखर पुरुष रहे। इस संबंध में गांधीजी और उनके बीच गंभीर चर्चा हुई। इस कारण भारतीय संस्कृति-परंपरा के तहत देसी मुहावरे में उन्होंने समाजवाद को परिभाषित करने की कोशिश की। कट्टर मार्क्सवादियों की तरह केवल अफीम के रूप में उन्होंने ‘धर्म’ की चर्चा नहीं की, बल्कि उसकी सकारात्मक ऊर्जा को पहचाना। उन्होंने निराकार समाजवादियों की कल्पना नहीं की। उनका सपना था, जहां-जहां आम जनता की बहुतायत है, वहां-वहां समाजवादी पाये जाने चाहिए। जनता के स्वार्थ, हक के लिए जहां भी जन संघर्ष हो रहा हो या साम्राज्यवादी या शोषणवादी ताकतों के खिलाफ लड़ाई चल रही हो, समाजवादियों को उसका हरावल दस्ता बनना चाहिए। ‘वर्ग चेतना’ और राष्ट्रीय चेतना के बीच सेतु बनाने के लिए उन्होंने प्रयास किया। उन्होंने स्वीकार किया कि जो समाज, देश, क्षेत्रीय संकीर्णताओं सांप्रदायिक-भाषिक, जातिगत और क्षुद्र स्वार्थों की परिधि में लिपटा हो, वहां राष्ट्रीय चेतना अंकुरित नहीं होती।किसानों के संबंध में आचार्य जी ने गंभीरता से उस दौर में ही विचार किया। वह मानते थे, कोई अकेला नेता समाजवादी राज्य की स्थापना नहीं कर सकता। ऐसे समाज की स्थापना मजदूर और किसान ही कर सकते हैं या उनकी पार्टी कर सकती है।’’
भारतीय समाजवाद के इस पितामह को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि ।
क़ुरबान अली
(क़ुरबान अली, पिछले 44 वर्षों से पत्रकारिता कर रहे हैं। 1980 से वे समाजवादी साप्ताहिक पत्रिका 'जनता' में लिख रहे हैं। वे साप्ताहिक 'रविवार' 'सन्डे ऑब्ज़र्वर' बीबीसी, दूरदर्शन न्यूज़, राज्य सभा टीवी से संबद्ध रह चुके हैं और इन दिनों समाजवादी आंदोलन का इतिहास(1934-1977) लिखने और इस आंदोलन के दस्तावेज़ों को संपादित करने में व्यस्त हैं।
Web Title : Acharya Narendra Dev, the father of Indian socialism: Qurban Ali Part-2


