सवाल तो इन खांटी सेक्युलरवादियों से भी बनते ही हैं !
भारतीय जम्हूरियत किस ओर ?
शम्सुल इस्लाम
इस सच्चाई को झुठलाना मुश्किल है कि आज़ादी के समय विभाजन के कारण जो व्यापक हिंसा हुई थी, उस के बाद देश में पिछले एक-डेढ़ साल से साम्प्रदायिकता सब से विकराल रूप में सामने आई है। यह भी सच है की यह सब अचानक नहीं हुआ है। 2014 में भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकार के सत्तासीन होने के साथ ही साम्प्रदायिक हिंसा का इस पैमाने पर तांडव आरम्भ हुआ है।
2014 के आम चुनाव में भाजपा को डाले गए मतों का केवल 30 प्रतिशत हिस्सा मिला (अगर देश के कुल मतदाताओं का अनुपात निकाला जाये तो यह हिस्सा घट कर 20 प्रतिशत रह जाएगा ) पर इसे संसद में विशाल बहुमत प्राप्त हुआ।
भारतीय संसद के इतिहास में पहली बार किसी सत्तासीन दल को इतने कम मत मिले हैं। इस की वजह भारत की चुनाव प्रणाली है, जिस के अंतर्गत ज़्यादा मत पाने वाला प्रत्याशी चाहे उसे 15-20 प्रतिशत ही मत मिले हों, जीता हुवा माना जाता है।
बहरहाल देश के इतने कम लोगों के समर्थन के बावजूद भाजपा और उसकी बागडोर थामे आरएसएस को लगा कि उन्हें हिन्दू राष्ट्र बनाने का लाइसेंस हासिल हो गया है। आरएसएस के लोगों ने तो यह ऐलान तक कर डाला कि पृथ्वी राज चौहान के बाद अब फिर हिन्दुओं का राज आया है।
जब प्रधान मंत्री मोदी और उनके अनेकों मंत्रियों ने सार्वजनिक एलान करने शुरू कर दिए कि वे आरएसएस के स्वयंसेवक हैं, तो इस हिन्दुत्वादी विचार-धारा को और बल मिला। आरएसएस के कुछ वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने तो यह तक घोषणा कर डाली कि 2021 तक यह देश हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा अर्थात मुसलमानों और ईसाइयों को देश से बाहर कर दिया जाएगा।
इस तरह की घोषणाएं खाली-पीली नहीं थीं। देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों और ईसाइयों को हिन्दू बनाने के लिए 'घर-वापसी' जैसे अभियान चलाये गए, जिस ने पूरे देश में साम्प्रदायिक माहौल बिगाड़ा। इस के साथ-साथ आरएसएस के श्रेष्ठ नेतृत्व ने यह भी हुंकार लग्गनी जारी रखी कि मुसलमानों और ईसाइयों को खुद को हिन्दू घोषित करना होगा। इस सब की क़ीमत एक प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को चुकानी ही थी और एनडीए सरकार के एक साल के राज में साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में पिछले सालों के मुक़ाबले 100 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया।
मानो यह सब काफ़ी नहीं था, तो एक और मुद्दे को उभार दिया गया, जिस ने आजकल पूरे देश को घेरे में लिया हुआ है और पूरी दुनिया में हमारे देश की भद्द पिट रही है। इंतेहा तब हो गयी जब दिल्ली से सटे दादरी तहसील के एक गाव बिसाहड़ा में ईद के दिन एक मुसलमान परिवार पर हमला किया गया कि वह परिवार गो मांस सेवन कर रहा था। इस का कोई सबूत पेश नहीं किया गया और परिवार के मुखिया अखलाक की हत्या कर दी गयी।
देश के सब से बड़े अल्प-संख्यक समुदाय के बारे में यह ज़हर फैलाया जा रहा कि देश में गो-वध मुसलमानों के आने के बाद शुरू हुआ। आरएसएस द्वारा फैलाया जा रहा यह एक सफ़ेद झूठ है, जिस का मक़सद आम हिन्दुओं में मुसलमानों के ख़िलाफ़ माहौल बनाना है।
प्राचीन भारत में जब कि इस्लाम और मुसलमानों का नमो-निशान भी नहीं था, गो मांस का सेवन होता था, जिस की गवाही स्वयं स्वामी विवेकानंद ने दी है। 2 फ़रवरी 1900 को अमेरिका में 'बुद्धकालीन भारत' पर बोलते हुए उन्हों ने श्रोताओं को बताया कि :
“आप लोग आश्चर्यचकित होंगे अगर मैं आप को बता दूं कि पुराने रिवाजों के मुताबिक, वह व्यक्ति अच्छा हिन्दू नहीं होजो गोमांस नहीं खाता था। कुछ अवसरों पर तो उसे बैल की कुर्बानी देनीचाहिए और उसे खानाचाहिए।“
इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि 2014 में 'स्वयंसेवकों' के सत्तासीन होने के बाद से देश में धार्मिक अल्प-संख्यकों, विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ लगातार देश के बहु-संख्यकों को भड़काने की ज़ोर-शोर से कोशिश की जा रही है। यह भाजपा पर कोई इलज़ाम नहीं है, बल्कि आरएसएस जो भाजपा के लिए गुरु के समान है, उसे ऐसा करने में गर्व की अनुभूति होती है। यह सब उसके सब से प्रिय विषय हैं। आरएसएस भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करना चाहता है, मौजूदा प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान की जगह 'मनुस्मृति' को लागू करना चाहता है, राष्ट्रीय झंडे तिरंगे की जगह भगवा झंडा लाल क़िले पैर लहराना चाहता है और इस की सोच के अनुसार मुसलमान और ईसाई विदेशी नस्लों से सम्बन्ध रखते हैं, जिन्हें हिन्दू राष्ट्र का भाग नहीं माना जा सकता।
लेकिन सच है कि इन हालात के लिए केवल भाजपा/आरएसएस को ज़िम्मेदार ठहराना न्यायसंगत नहीं होगा। इन संगठनों को तो इस के अतरिक्त कुछ और करना नहीं था। लेकिन असली जवाबदेही तो उन राजनैतिक संगठनों की बनती है जो अपने आप को एक प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का रखवाला होने का दावा करते हैं। उन्हें यह बताना पड़ेगा की 2014 के चुनाव मैं मिलकर 70% मत हासिल करने के बाद भी वे सत्ता 30% मत हासिल करने वाली जमात को क्यों दिला बैठे।
सच तो यह है कि प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत का दम भरने वाले संगठन अहंकार, बिखराव और घोर व्यक्तिवाद/परिवारवाद का शिकार हैं। उन्हों ने कभी भी इस देश के लोगों को धार्मिक उन्माद और पाकिस्तान की तर्ज़ पर बनने वाले हिन्दू राष्ट्र के खतरों से आगाह नहीं किया। इन सब ने बिना किसी उपवाद के भाजपा/आरएसएस के सुख भोगे और हिंदुत्व की राजनीति को legitimacy दिलाने में ही मदद की।
यह सच क्या किसी से छुपे हैं कि यह सेक्युलर देवगौड़ा थे, जिन्हों ने कर्णाटक में भाजपा को फैल जाने और फिर राज करने के लिए ज़मीन हमवार की। इसी तरह बहन मायावती ने उत्तर प्रदेश में, नितीश कुमार ने बिहार में और दीदी ममता बनर्जी ने भाजपा अर्थात आरएसएस को सत्ता का रास्ता दिखाया। ये सब खांटी सेक्युलरवादी माने जाते हैं।
दादरी की बर्बर घटना ने एक बार फिर देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति की क़समें खाने वाले एक और दल, समाजवादी पार्टी का मुखोटा नोंच कर फेंक दिया है। उत्तर प्रदेश में लगातार साम्प्रदायिक हिंसा हो रही है और सेक्युलर सरकार इसे रोकने में पूरी तरह असफल रही है।
उप्र सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री, आज़म ख़ान ने यह घोषणा की है कि वह इस कांड को राष्ट्र संघ (UNO) के समक्ष ले कर जाएंगे। यह कितना हास्यास्पद है। मंत्रिमंडल जिस के वह वरिष्ठ मंत्री हैं, इस बर्बर कांड को नहीं रोक पाया, जिस पर सेक्युलर राजनीति के एक और लौह्परुष, मुलायम सिंह, प्रधान मंत्री मोदी की तरह मौन व्रत पर हैँ वह मामला अब राष्ट्र संघ में जाएगा। इन में से किसी का जिगरा नहीं है कि वह धार्मिक कट्टरवादी बिगड़े दानव की गर्दन मरोड़ दे। यह सब चाहते हैं कि मौत का तांडव चलता रहे, जिस से उनकी प्रासंगिता भी बनी रहेगी।
इन साम्प्रदायिक घटनाओं का एक सब से शर्मनाक पहलू यह है कि अल्प-संख्यकों के खिलाफ जो हिंसा होती रही है और हो रही है, उस में किसी मुजरिम को सज़ा नहीं मिलेगी, जैसे कि रिवायत रही है। इस हिंसा को दंगों का नाम दिया जाता है। 1984 की सिख विरोधी हिंसा, 1992, 1998, 2002, 2008 में मुसलमान और ईसाई वरोधी व्यापाक हिंसा में इन्साफ मिलना बाक़ी है। लेकिन अगर अल्प -संख्यक कोई हिंसा करते हैँ तो उस पर तुरंत सज़ा मिलती है। ऐसी हिंसा को आतंकवाद की संज्ञा दी जाती है। यहां यह याद रखना ज़रूरी है कि अल्प-संख्यक विरोधी इन हिंसा की घटनाओं के पीछे जिस का भी हाथ रहा हो, ज़्यदातर मामले कांग्रेस के राज में घटे।
आरएसएस के इशारों पर काम करने वाले देश के मौजूदा हुक्मरान इस सच्चाई से वाक़िफ़ हैं कि इस देश के आम हिन्दू उनकी प्रजातांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत विरोधी नीतियों से सहमत नहीं हैं, न हीं 70% ने उनके पक्ष में मत दिया है। इस लिए वे हिंसा का सहारा लेकर अल्प-संख्यकों को ही नहीं, बल्कि शांति पसंद हिन्दुओं को भी भयभीत करना चाहते हैं। बिलकुल उसी तरह जैसे कि पाकिस्तान में सेना ने मुसलमान धार्मिक कट्टरवादिओं को परवान चढ़ाया और आज पाकिस्तान किस हाल में है सारी दुनिया वाक़िफ़ है। भारत इसी लिए बचा रहा है क्योंकि इस ने धार्मिक राष्ट्र के रास्ते को नहीं चुना। पर आज ऐसा लगता है कि हमारे देश को हुक्मरान पाकिस्तान के रास्ते पर ले जाना चाहते हैं। पाकिस्तान की प्रसिद्ध लेखिका और कवित्री, फ़हमीदा रिआज़ जिन्हों ने धार्मिक राष्ट्र पाकिस्तान के विनाश को देखा और भुगता है उन्हों ने कुछ साल पहले भारत के भविषय को लेकर जो जो एक नज़्म लिखी थी यहाँ दोहराना बहुत सही होगा:
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई?
वह मूरखता, वह घामड़पन, जिसमें हमने सदी गंवाई.
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई;
भूत धरम का नाच रहा है, कायम हिन्दू राज करोगे?
सारे उल्टे काज करोगे? अपना चमन नाराज करोगे?
तुम भी बैठे करोगे सोचा, पूरी है वैसी तैयारी,
कौन है हिन्दू कौन नहीं है, तुम भी करोगे फतवे जारी;
वहां भी मुश्किल होगा जीना, दांतो आ जाएगा पसीना.
जैसे-तैसे कटा करेगी, वहां भी सबकी सांस घुटेगी;
माथे पर सिंदूर की रेखा, कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनायी, कुछ भी तुमको नज़र न आयी?
भाड़ में जाये शिक्षा-विक्षा, अब जाहिलपन के गुन गाना,
आगे गड्ढा है यह मत देखो, वापस लाओ गया जमाना;
हम जिन पर रोया करते थे, तुम ने भी वह बात अब की है.
बहुत मलाल है हमको, लेकिन हा हा हा हा हो हो ही ही,
कल दुख से सोचा करती थी, सोच के बहुत हँसी आज आयी.
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, हम दो कौम नहीं थे भाई;
मश्क करो तुम, आ जाएगा, उल्टे पांवों चलते जाना,
दूजा ध्यान न मन में आए, बस पीछे ही नज़र जमाना;
एक जाप-सा करते जाओ, बारम्बार यह ही दोहराओ.
कितना वीर महान था भारत! कैसा आलीशान था भारत!
फिर तुम लोग पहुंच जाओगे, बस परलोक पहुंच जाओगे!
हम तो हैं पहले से वहां पर, तुम भी समय निकालते रहना,
अब जिस नरक में जाओ, वहां से चिट्ठी-विट्ठी डालते रहना!