भूमि अधिग्रहण बिल के सवाल पर सरकार के खिलाफ बन रहा है राजनीतिक माहौल
भूमि अधिग्रहण बिल के सवाल पर सरकार के खिलाफ बन रहा है राजनीतिक माहौल
भूमि अधिग्रहण बिल पर विरोधी पार्टियों को राजनीतिक एकजुटता का अवसर मोदी सरकार ने दे ही दिया है।
नई दिल्ली। मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल को संसद के निचले सदन, लोकसभा में तो पास कर दिया गया है लेकिन राज्य सभा में उसका पास होना असंभव है। इस बिल के कानून बन जाने के बाद किसान की ज़मीन सरकारें जब चाहेंगी विकास के लिए ले लिया करेंगी। उसमें बहुत सारे प्रावधान हैं जिनकी समीक्षा करना अपने आप में एक दिलचस्प काम है। लेकिन उसकी राजनीति अब बहुत ही अजीबो गरीब हो गयी है। इसी बिल के हवाले से देश की राजनीति ने एक बार करवट लिया है।
लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के बाद बिना किसी रोक टोक चल रही मोदी सरकार को पहली राजनीतिक चुनौती मिल रही है। लोकसभा में जिस तरह का साफ़ बहुमत मोदी सरकार के पास है उसी तरह का या यों कहें कि उससे भी भारी बहुमत राजीव गांधी की सरकार के पास 1985 में था। इतने स्पष्ट बहुमत के बाद आम तौर पर सरकारें सोचती हैं कि उनको जो बहुमत है, उसके बाद वे जनहित का कोई भी काम कर सकते हैं। जनहित को राजीव गांधी अपने और अपने दोस्तों की इच्छा के हिसाब से निर्धारित किया करते थे। जनहित के इस चिंतन में आम तौर पर राजा लोग भूल जाते हैं कि उनका चुनाव पांच वर्षों के लिए हुआ है। उनको उन पांच वर्षों में वही काम करना है जिसका उन्होने अपने चुनाव घोषणापत्र में वायदा किया था। लेकिन सत्ताधीश उन कामों में लग जाते हैं जो उनके हिसाब से राष्ट्रहित में हों और वे उसको जनता की मर्जी मान बैठते हैं। यह गलती ज़्यादातर शासकों से होती रही है। मौजूदा सरकार ने भी भूमि अधिग्रहण बिल पर इतनी ज़बरदस्त विपक्षी एकजुटता का मौक़ा अपनी उसी सोच के आधार पर दिया है।
17 मार्च को सोनिया गांधी की अगुवाई में विपक्षी पार्टियों के सांसदों ने संसद भवन से राष्ट्रपति भवन तक पैदल जाकर जिस राजनीतिक एकता का संकेत दिया है वह केंद्र सरकार के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। ठीक दस महीने पहले बनी सरकार के खिलाफ पहली बार इस तरह की विपक्षी राजनीतिक एकजुटता नज़र आयी। किसान की ज़मीन को विकास के काम के लिए लेने के लिए भारत की अँगरेज़ सरकार ने 120 साल पहले कानून बनाया था। वह कानून आम तौर पर किसान विरोधी हथियार था और शासक वर्गों की इच्छा पूरी करने के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल होता था। अभी चार साल पहले संसद ने एक नया भूमि अधिग्रहण बिल तैयार किया था। 2013 में यह बिल कानून बन गया।उस समय डॉ मनमोहन सिंह की सरकार थी लेकिन उस बिल को बीजेपी का भी पूरा समर्थन था। उस बिल के पास होने के पीछे भी अंग्रेज़ी राज में बने क़ानून के खिलाफ कई इलाकों में बन रहा राजनीतिक विरोध था।
डॉ मनमोहन सिंह घोर पूंजीवादी अर्थशास्त्र के समर्थक हैं, इसलिए वे और उनकी सरकार भी इसी तरह का बिल लाना चाहते थे, जैसी वर्तमान मोदी सरकार लाई है लेकिन बीजेपी और अन्य पार्टियों के हस्तक्षेप के बाद माहौल बदल गया और एक ऐसा कानून बनाया गया जिसमें किसान को यह अहसास न हो कि उसकी ज़मीन छीनी जा रही है, उसमें 80 फीसदी किसानों की सहमति की बाद डाल दी गयी, जिस से किसान को अपने ज़मीन का मालिक होने के अधिकार हो गया था। लेकिन इस बिल में वह अधिकार नहीं है।
2013 का क़ानून बनने के पहले कुछ वर्षों में किसान की ज़मीन को लेकर जनहित की योजनायें चलाने की मुद्दे पर बहुत चर्चा होती रहती थी। बहुत सारे विवाद भी होते रहे हैं। डॉ मनमोहन सिंह की सरकार और बहुत सारी राज्य सरकारें भी धन्नासेठों को लाभ पहुंचाने के लिए बहुत ही उतावली नज़र आ रही थीं। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम पर आम आदमी की ज़मीन कौड़ियों के मोल छीनकर पूंजीपतियों के हवाले की जा रही थी। नतीजा यह हुआ था कि जनता देश के बहुत सारे इलाकों में सरकार के खिलाफ सड़कों पर आ गयी थी। जनता के गुस्से से बचने के लिए सरकार ने भी इस दिशा में क़दम उठाना शुरू कर दिया था। 2013 का क़ानून इसी माहौल में संसद में लाया गया था और उसको सभी पार्टियों ने मिल जुलकर पास किया था।
सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए किसान की ज़मीन लेने के लिए अपने देश में पहली बार सन 1894 में कानून बना था। अंग्रेज़ी राज में बनाए गए उस कानून में समय-समय पर बदलाव किये जाते रहे और सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा बदलती रही। अपने सौ साल से ज्यादा के जीवन काल में इस कानून ने बार बार चोला बदला और अब तो एक ऐसे मुकाम तक पंहुच गया जहां सरकारें पूरी तरह से मनमाने ढंग से किसान की ज़मीन छीन सकने में सफल होने लगी। दिल्ली के पड़ोस में उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोयडा में भी उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने मनमाने तरीके से किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण किया और उसे सरकार के सबसे ऊंचे मुकाम पर बैठे कुछ लोगों को आर्थिक लाभ पंहुचाने के लिए सरकार ने मनमाने दाम पर बेच दिया। अपनी ही ज़मीन को लूट का शिकार होते देख किसानों ने हाई कोर्ट का रास्ता पकड़ा। न्याय पालिका के हस्तक्षेप के बाद सरकारी मनमानी पर लगाम लगी। किसानों की ज़मीन पर निजी कंपनियों के लाभ के लिए सरकारी तंत्र द्वारा क़ब्ज़ा करने की कोशिशों को मीडिया के ज़रिये सारी दुनिया के सामने उजागर किया गया। उसके बाद सरकार की नींद भी खुली और 1894 वाले भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की बात शुरू हुई। इसी सिलसिले में केंद्र सरकार ने 7 सितम्बर 2011 को लोक सभा में लैंड एक्वीजीशन, रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल 2011 पेश किया। बिल में नौकरशाही के बहुत सारे लटके झटके थे। ज़मीन को लेने के लिए सरकारी मनमानी को रोकने के लिए बनाए गए इस बिल में में वे सारी बातें थीं जो सरकारी अफसर की मनमानी के पूरे अवसर उपलब्ध करवाती हैं। इस बिल को ग्रामीण विकास मंत्रालय ने तैयार किया था। उन दिनों ग्रामीण विकास मंत्रालय के मंत्री जयराम रमेश हुआ करते थे। वे अर्थशास्त्र के विद्वान हैं और ग्रामीण विकास को सामाजिक प्रगति की सर्वोच्च प्राथमिकता मानते थे लेकिन उनका अर्थशास्त्र वही वाला है जिसके पुरोधा डॉ मनमोहन सिंह हैं।
डॉ मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र में ऊपर वालों की सम्पन्नता के लिए नियम कानून बनाए जाते हैं। गरीब आदमी की तरक्की के लिए कोई कार्यक्रम नहीं तैयार किया जाता है। उस अर्थशास्त्र में गरीबी हटाने का तरीका यह है कि पूंजीपति की सम्पन्नता को सरकार बढ़ायेगी और उसी की सम्पन्नता को बढ़ाने में आम आदमी अपनी मेहनत के ज़रिये योगदान देगा। उसे जो मेहनताना मिलेगा वही काफी माना जाएगा। मौजूदा सरकार भी डॉ मनमोहन सिंह के आर्थिक विकास के दर्शन की पोषक है इसलिए उस से भी पूंजीपति विरोधी किसी भी कानून की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। इसलिए यू पी ए सरकार की तरफ से पेश किये गए लैंड एक्वीजीशन रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल 2011 में वे सारी बातें थीं जो धन्नासेठों की खुशी के लिए की जाती हैं।
उस बिल पर बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियों ने बहुत विरोध किया जिसका नतीजा हुआ कि बिल को ग्रामीण विकास मंत्रालय से सम्बंधित स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेज दिया गया। इस सामिति की अध्यक्ष इंदौर की सांसद और वर्तमान लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन थीं। केंद्र सरकार की तरफ से लोक सभा में पेश किये गए बिल में बहुत खामियां थीं और उसे स्थायी समिति ने ठीक कर दिया। 2012 के बजट सत्र के अंतिम दिनों में इस समिति की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में रखी गयी। सरकार को लैंड एक्वीजीशन, रिहैबिलिटेशन एंड रिसेटिलमेंट बिल 2011 को स्थायी समिति की सिफारिशों को ध्यान में रख कर दुरुस्त करना पड़ा और फिर बाद में वही बिल कानून की शक्ल में आया। 2013 में बने उसी कानून को बदल देने के लिए मौजूदा सरकार अपना नया बिल लेकर आयी है।
2013 वाले कानून में सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली संसद की स्थायी समिति का सबसे अहम योगदान माना जाता है। कमेटी ने केंद्र सरकार के उस सुझाव को खारिज कर दिया था जिसमें कहा गया था कि निजी कंपनियों के मुनाफे में वृद्धि करने के लिए जब ज़मीन का अधिग्रहण होता है तो उस से राष्ट्र की संपत्ति में वृद्धि होती है।
स्थायी समिति ने साफ़ कह दिया था कि सरकार को निजी कंपनियों के लिए ज़मीन का अधिग्रहण नहीं करना चाहिए। कंपनियों को अपने काम के लिए किसानों से ज़मीन सीधे खरीदना चाहिए। कमेटी ने यह भी कहा था कि भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को पूरी तरह से बदल देने की ज़रूरत है। इस कानून में सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा ऐसी थी जो कि सरकारों को मनमानी करने का पूरा अधिकार देती थी। जिसकी ज़मीन अधिग्रहीत की जाती थी, उसको मुआवजा देने के नियम भी प्राचीन हैं और वे सरकारों को लूट का पूरा अधिकार देते थे। इन दोनों ही प्रावधानों को बदल देने की सिफारिश स्थायी समिति ने की है। जब 1894 में कानून बना था तो व्यवस्था की गयी थी कि ज़मीन का अधिग्रहण केवल सरकारी परियोजनाओं के लिए ही किया जाएगा। लेकिन इस प्रावधान में पिछले सौ साल में इतने परिवर्तन किये गए कि सरकारों के पास किसी भी काम के लिए, किसी भी कंपनी को लाभ पंहुचाने के लिए ज़मीन के अधिग्रहण के अधिकार आ गए। जब से डॉ. मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र ने देश के विकास का ज़िम्मा लिया तब से तो हद ही हो गयी। स्पेशल इकनामिक ज़ोन के नाम पर लाखों एकड़ ज़मीन किसानों से छीन कर उद्योगपतियों को थमा देने का रिवाज़ शुरू हो गया। मनमोहन सिंह की सरकार ने जो नया बिल पेश किया था उसमें मुआवजा तो बढ़ा दिया गया था लेकिन जनहित की परिभाषा बहुत ही घुमावदार रखी गयी है। पूंजीपति वर्ग के दबाव में सरकार अपनी जिद पर कायम थी कि निजी कंपनियों के लिए किसानों की ज़मीन लेने में सरकार संकोच नहीं करेगी। उस सरकार के पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों, डॉ मनमोहन सिंह। मान्टेक अहलूवालिया और जयराम रमेश के आर्थिक चिंतन का कुछ राज्य सरकारों ने विरोध करना शुरू भी कर दिया था।
सुमित्रा महाजन की अध्यक्षता वाली कमेटी ने साफ़ कहा था कि केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा के लिए ही अर्जेंट तरीके से ज़मीन का अधिग्रहण किया जा सकता है। और अगर उनके इस्तेमाल से ज़मीन बच जाती है तो उसे किसान को वापस कर दिया जाना चाहिये। लेकिन उनकी पार्टी की मौजूदा सरकार उस संसद की उस स्थाई समिति की हार सिफारिश को भूल कर नया बिल लाई है। ज़ाहिर है कि इस मुद्दे पर ज़मीन पर भी लड़ाई शुरू होगी। जहां तक संसद का सवाल है वहां तो आपसी विरोधी पार्टियों को राजनीतिक एकजुटता का अवसर मोदी सरकार ने दे ही दिया है।
शेष नारायण सिंह


