भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-3
भ्रष्टाचार विरोध, विभ्रम और यथार्थ भाग-3
प्रेम सिंह
दरअसल, हजारे का अपनी भूमिका से ज्यादा बढ़-चढ़ कर बात करने से गांधीवादी होने का लिफाफा फटना ही था, सादगी के लिफाफे की तरह, जिसके भीतर एक दिन में करोड़ों का वारा-न्यारा करने वाले प्रोफेशनल, एन0जी0ओ0बाज और बाबा बैठे हों। इतिहास की विद्वान मृदुला मुखर्जी ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ (23 अप्रैल) के अपने लेख में हजारे को स्वतंत्रता आंदोलन के हवाले से गांधीवादी कसौटी पर अच्छी तरह ‘कस’ दिया है। लेकिन उनकी कमजोरी यही है कि वे मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को उस कसौटी पर कभी नहीं कसेंगी। जबकि वे हजारे से ज्यादा गांधीवादी होने का ढोंग करते हैं। तब वे अपने को बुद्धिजीवी बना लेंगी। अगर कहीं वाकई गांधी विचार की प्रेरणा से कुछ राजनैतिक काम हो रहा हो, तो उसकी तरफ उनका ध्यान नहीं जाएगा। तब वे प्रगतिशील बन जाएँगी, जो गांधी कभी नहीं हो सकते।
हजारे ने सोनिया गांधी को पत्र लिखा है कि भ्रष्ट ताकतें जन लोकपाल विधेयक के काम को पटरी से उतारना चाहती हैं, वे सुनिश्चित करें कि ऐसा न हो। वे अपने, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के आगे कुछ भी नहीं देख पा रहे हैं। यह खुली सच्चाई भी नहीं कि जिन दिग्विजय सिंह और कपिल सिबल को भ्रष्ट ताकतें बता रहे हैं, उनकी मेंटर और कोई नहीं सोनिया गांधी ही हैं। क्या सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सदाचारी हैं? काॅमनवैल्थ खेलों के भ्रष्टाचार का भाँडा जब अपने वजन से खेलों के पूर्व ही फूट गया तो मनमोहन सिंह ने शुंगलु कमेटी का गठन किया था। यह कहते हुए कि खेल हो जाने दो, फिर देखेंगे। शुंगलु कमेटी की रपट आई है तो उसमें फँसी दिल्ली की मुख्यमंत्री उसकी सिफारिशों की जाँच कराने पर तुल गई हैं। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने इस मामले में अभी तक जबान नहीं खोली है। जबकि 21 अप्रैल को ‘सिविल सोसायटी डे’ पर बड़े अफसरान के सामने मनमोहन सिंह ने भाषण किया कि देश के लोग अब भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं। यानी अफसरों का भ्रष्टाचार! हजारे को सोनिया का जवाब मिल गया है कि वे ईमानदारी की पक्षधर हैं, और दुष्प्रचार की राजनीति के खिलाफ। यह पत्र पाकर हजारे की खुशी का ठिकाना नहीं है। उधर युवराज अपने को ईमानदारी का ऐसा समर्पित सिपाही बता रहे हैं जो, अन्ना हजारों की तरह ऊपरी नहीं, सड़ चुकी व्यवस्था का अंदरूनी इलाज करने में जुटा है! मजेदारी देखिए, वे अन्ना हजारों की तरह हीरो बनना नहीं चाहते। घवन्यार्थ हुआ कि ‘इस देश में हम ही ईमानदार और हम ही हीरो हैं।’
हजारे को शिकायत है कि उनकी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को भ्रष्टाचार नहीं मिटाने देना चाहने वाली ताकतों द्वारा अन्य मुद्दों के साथ उलझाया जा रहा है। यह फिर उनकी लोकतंत्र-विरोधी मनोवृत्ति को दर्शाता है। लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का अधिकार है। लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ है तो फिर मंच पर भारत माता से लेकर उसके सपूतों की तस्वीरें लगाने की क्या जरूरत थी? गांधी ने तो कभी तस्वीरें नहीं लगाईं। आप उनके सपनों का भारत बनाने के लिए तो अनशन पर नहीं बैठे थे। न ही आपके किए उस दिशा में कुछ हो सकता है। वह काम तो जब होगा राजनीति से ही होगा। तस्वीरें लगानी ही थीं तो उन लोगों की लगाईं गई होतीं जिन्होंने उपनिवेशवादी दौर में कायम की गई इस भ्रष्ट व्यवस्था का आजादी के बाद निरंतर विरोध किया। या जिन्होंने नवउदारवाद, जो भ्रष्टाचार की दानवी कोख सिद्ध हुआ है, का शुरू से सुचिंतित और सतत विरोध किया। क्या हजारे और उनकी टीम को एक भी नेता, विचारक या नागरिक ऐसा नहीं मिला? क्या उनकी भारतमाता ऐसी अनुर्वर है?
भारत माता की तस्वीर के वहाँ क्या मायने हैं? क्या वह धरती माता है, जिसका आँचल धूल भरा और मैला है? जो क्षत-विक्षत अपने करोड़ों बच्चों की पालना में जार-बेजार है? करोड़ों में खेलने वाले हर क्षेत्र के प्रोफेशनल, नौकरशाह, नेता, एन0जी0ओ0बाज किस भारत माता के सपूत हैं? आर0एस0एस0 की भारत माता का विरोध करने वालों से भी पूछा जाना चाहिए है कि उनकी अपनी भारत माता कौन-सी है? है भी या नहीं? अभियान के दौरान हजारे के भीतर बैठा सावरकर वाया ठाकरे बार-बार बाहर आया है। वही उनसे राज ठाकरे, नरेंद्र मोदी और उनके हमजोली नीतीश कुमार की प्रशंसा कराता है। ग्रामीण विकास एक बहाना है। गाँवों के विकास की चिंता होती तो वे उन लोगों का नाम लेते जिन्होंने किसानों-आदिवासियों को बचाने के संघर्ष में अपना जीवन खपा दिया, जिनमें से कई अब हमारे बीच नहीं हैं।
बहस की सीमा
जो बहस चल रही है उसमें कोई यह नहीं समझ रहा है कि सत्ता ने, दो दशकों में नवउदारवाद विरोधी जितनी भी सच्ची ताकत किसी न किसी रूप में जुटी थी, उसे उसी के अखाड़े में कड़ी पटखनी दे दी है। दयनीय हालत यह है कि गतिरोध के शिकार कई महत्वपूर्ण जनांदोलन और वैकल्पिक राजनीति के दावेदार हजारे की गाड़ी में सवार होकर गति पाने का भ्रम पाले हुए हैं। वे यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि जिन भ्रष्ट और दुष्प्रचारी तत्वों से हजारे के अभियान को बचाने की कोशिश में लगे हैं, हजारे उन्हीं के बुलावे पर यूपी जा रहे हैं। दिग्विजय सिंह ने उन्हें महाराष्ट्र नहीं बुलाया। क्योंकि वहाँ नवउदारवादी विकास ठीक पटरी पर चल रहा है, भले ही वह पिछले दशक का सबसे भ्रष्ट राज्य रहा हो। उन्होंने हजारे को यूपी बुलाया है, ताकि नवउदारवाद की पिछड़ी गति से राज्य को मुक्ति दिलाई जा सके। यूपी में नवउदारवादी गति के पिछड़ने का कारण जानना कठिन नहीं है-जब मुलायम सिंह होते हैं तो उन्हें समाजवाद को नवउदारवादी शीशे में उतारने का और जब मायावती होती हैं तो उन्हें दलितवाद को, वाया ब्राह्मणवाद, नवउदारवाद के शीशे में उतारने का महत्वपूर्ण काम करना होता है। कांग्रेस के पास ऐसा कोई कार्यभार नहीं है। यूपी जीतना सोनिया गांध्ी का सबसे बड़ा सपना है। उसे अगर अमर सिंह पूरा करेंगे तो ईमानदारी के समर्थन और दुष्प्रचार की राजनीति के विरोध की घोषणाओं के बावजूद वे उन्हें 10 जनपथ बुलाएँगी। वे बिल्कुल यह ध्यान नहीं देंगी कि भूषणों पर कीचड़ उछालने वाले अमर सिंह से महत्वपूर्ण जनांदोलनकारी कितने खफा हैं?
संयुक्त समिति में कोई भी दलित, महिला और अल्पसंख्यक नहीं होने पर आपत्ति उठाई गई है। इसमें दो बातें ध्यान दी जा सकती हैं। पहली, यह आपत्ति सरकार के प्रति उठाई जानी चाहिए, जिसके साथ विपक्षी पार्टियों के प्रतिनिधि भी शामिल करने की माँग हो, न कि नागरिक समाज एक्टिविस्टों के प्रति। उनका वर्ग-चरित्र हमने ऊपर बता दिया है, जिसमें दलित, महिला और अल्पसंख्यक विरोध की कमी नहीं मिलती है। दूसरी, अब जिन्हें आरक्षण अथवा विशेष अवसर के तहत व्यवस्था/ सत्ता में भागीदारी मिलती है, वह मौजूदा पूँजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था, सत्ता में भागीदारी करने के लिए है, न कि एक ऐसी समाजवादी व्यवस्था कायम करने के लिए, जिसमें ये विभेद और विषमताएँ न रहें। निजी क्षेत्र में आरक्षण की माँग यह स्पष्ट करती है कि दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक नेतृत्व नवउदारवाद के साथ है। यह तर्क कि जो मिलता है वह तो ले लिया जाए, अभी तक के अनुभव के आधर पर, नवउदारवादी नीतियों और उन्हें चलाने वाली सरकारों को ही मजबूत करता है।
अनशन के दौरान रघुवंश प्रसाद सिंह और मनमोहन सिंह ने लोकतंत्र और संसद की प्रतिष्ठा का सवाल उठाया। उनकी बात लोगों को पसंद नहीं आई। क्योंकि उनसे पलट कर पूछा जा सकता है कि अमरीका में अमरीकियों द्वारा अमरीका के लिए बनाए गए भारत-अमरीका परमाणु करार को संसद में जिस तरह से पारित कराया गया, उसके बाद संसद की कौन-सी गरिमा या प्रतिष्ठा की बात वे कर रहे हैं? दोनों उस ध्त्कर्म में अपनी पार्टियों सहित भागीदार थे। उसी तरह कल उन जनांदोलनकारियों और विकल्पवादियों की बात भी सुनने से लोग इनकार कर सकते हैं, जो इस अभियान और उससे जुड़े नुमाइंदों का हर हालत में समर्थन कर रहे हैं। एन0ए0पी0एम0 के तत्वाव्धान में कुछ संगठनों और महत्वपूर्ण नागरिक समाज एक्टिविस्टों के शांति भूषण और प्रशांत भूषण के समर्थन में जारी बयान का गलत संदेश जा सकता है। जब नागरिक समाज के लोग बढ़-बढ़ कर नेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, कंपनियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हैं तो उन्हें आरोप सहने का धैर्य भी रखना चाहिए। देश की गरीब जनता भी कुछ देखती और समझती है।
जहाँ तक दुष्प्रचार का सवाल है, नेता भी हमेशा निहित स्वार्थों द्वारा किए गए दुष्प्रचार की शिकायत करते हैं। हम समझते हैं दोनों मशहूर, हैसियतमंद और काबिल अधिवक्ता अपना बचाव करने और पक्ष रखने में पूरी तरह सक्षम हैं। बयान जारी करने वाले साथियों ने कहा ही है कि प्रशांत भूषण ने कई महत्वपूर्ण मामलों में जनहित याचिकाएँ दायर की हैं और वे संकट में जनांदोलनकारी संघर्षकर्ताओं की सहायता करते हैं। लेकिन उनकी सहायता का बदला यह बयान नहीं होना चाहिए था। हम भी चाहते हैं कि शांति भूषण और प्रशांत भूषण संयुक्त समिति में रहें। जब नेताओं को आरोपों के चलते नहीं हटना पड़ता तो नागरिक समाज एक्टिविस्ट ही क्यों हटेंगे? लेकिन अगर वे दोनों संयुक्त समिति में नहीं भी रहेंगे तो कोई विशेष अंतर नहीं पड़ने वाला है। जन लोकपाल विधेयक उन्होंने ही तैयार किया है। आगे की सहायता वे बाहर से भी कर सकते हैं। मकसद तो जन लोकपाल विधेयक है, दुष्प्रचारकों से उलझना नहीं।
शांति भूषण और प्रशांत भूषण ने जब संयुक्त समिति के सदस्यों के तौर पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया तो साथ में कहना चाहिए था कि भ्रष्टाचार की व्यवस्था में, भले ही कानून-सम्मत ढंग से, यह संपत्ति हमारे पास जमा हुई है। यह हमारी गाढ़ी कमाई नहीं है, शासक वर्ग का प्रमुख सदस्य होने के नाते हमारे हिस्से आई है। मकान और प्लाट खरीदने के लिए जो भूषण परिवार ने किया है, वह सभी प्रोफेशनल और संपत्तिवान लोग करते हैं। हम जैसे वेतनभोगी भी मकान-प्लाॅट खरीदने-बेचने में वही करते हैं। भारत के नागरिक समाज ने अपने को प्राॅपर्टी डीलरों और बिल्डरों के हाथ बेच दिया है।
बयान जारी करने वाले साथियों का मानना है कि जन लोकपाल विधेयक अभियान लोकशक्ति की प्रभावशाली अभिव्यक्ति है, जिस पर चर्चा न करके लोकशक्ति के उभार से नाखुश कुछ तबके भारत के दो सर्वोत्तम जनहित अधिवक्ताओं का ‘चरित्र हनन’ करने में लगे हैं। निश्चित ही यह नहीं होना चाहिए। लेकिन बयान जारी करने वालों ने अभी तक खुद विधेयक के उन लोकतंत्र विरोधी प्रावधानों के बारे में अपनी राय नहीं दी है, जिनकी तरफ, औरों की जाने दें, के0एन0 पनिक्कर ने ध्यान आकर्षित किया है। (देखें, ‘जन लोकपालः एन अल्टरनेटिव व्यू’, ‘दि हिंदू’, 19 अप्रैल) अपने मौजूदा रूप में जन लोकपाल विधेयक अभिजात्यवादी-वर्चस्ववादी सोच का प्रतिफल है। हम अभियान की समीक्षा कर रहे हैं, लोकपाल अथवा जन लोकपाल विधेयक की नहीं। लोकपाल के चुनाव के लिए जिन विभूतियों - भारत रत्न, नोबल, मेगसेसे पुरस्कार पाने वाले, उच्चतम और उच्च न्यायालयों के दो वरिष्ठतम न्यायधीश, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष, भारत के नियंत्रक और महालेखा निरीक्षक, प्रमुख चुनाव आयुक्त, लोकपाल बोर्ड के निवर्तमान सदस्य और संसद के दोनों सदनों के अध्यक्ष की फेहरिस्त दी गई है उनमें केवल लोकसभा अध्यक्ष की फेहरिस्त ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुन कर आते हैं।
प्रशांत भूषण का कहना है कि तथाकथित निर्वाचित प्रधानमंत्राी और गृहमंत्री कमजोर सी0वी0सी0 नियुक्त कर देते हैं। यानी निर्वाचित होना ईमानदारी और जवाबदेही की कोई गारंटी नहीं है। आज की भारत की राजनीति में यह सही प्रतीत होता है। लेकिन इससे यह कहाँ सिद्ध हो जाता है कि जो निर्वाचित नहीं हैं, वे ईमानदार होते हैं? खटका प्रशांत भूषण को भी है। वे लिखते हैं, ‘‘लोकपाल सदस्यों को, मिसकंडक्ट करने पर सुप्रीम कोर्ट की पाँच सदस्यीय खण्डपीठ हटा सकती है।’’ (‘जन लोकपाल बिल: एडरेसिंग कंसन्र्स’, ‘दि हिंदू’ 15 अप्रैल 2011) क्या यह ज्यादा सही नहीं होगा कि मिसकंडक्ट करने पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को ही हटाया जाए। उसके लिए सत्याग्रह भी है और चुनाव भी हैं। जाहिर है, राजनीति का मैदान भी। राजनीति बुरी है, आप उसमें नहीं जाना चाहते। बिल्कुल ठीक है। आप नागरिक समाज एक्टिविस्ट हैं। लेकिन राजनीति का स्थानापन्न होना चाहते हैं। यह संभव नहीं है। बल्कि आप मौजूदा राजनीति के इंस्ट्रमेंट बनते हैं। राजनैतिक शून्य पाकर भारत का नागरिक समाज अपनी सीमा से बाहर दावेदारी जता रहा है ताकि सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी पा सके। सत्ता के विरोध की ठेकेदारी भी प्यारी हिस्सेदारी बन जाती है।
ये महान विभूतियाँ शासकवर्ग के मुकुट हैं। यह साथियों का अपना लोकतंत्र-विवेक है कि इन मुकुटों में जड़े ‘जन’ और ‘लोक’ जैसे नगीने उन्हें रिझा रहे हैं! लेकिन एक और समस्या है। सभी साथी मानते हैं कि अगस्त में शुरू होने वाले मानसूत्र में जन लोकपाल कानून बन भी जाए, भ्रष्टाचार के विरोध का संघर्ष लंबा चलेगा। उस दौरान अगर बाबा रामदेव या चेतन भगत जैसों के खिलाफ ‘भ्रष्ट तत्वों’ ने किसी प्रकार का ‘दुष्प्रचार’ किया तो क्या साथी उनके समर्थन में भी बयान जारी करेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि हजारे और उनके सहयोगियों के अभियान के उद्देश्य और तरीके पर सवाल उठाने वालों में ऐसे लोग भी हैं, नागरिक समाज में जिनका काम और साख इस पूरी टीम से ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं है। अगर हजारे को सवालों से ऐतराज था तो उन्हें खुद भ्रष्टाचार से इतर विषयों पर भाषण नहीं देना चाहिए था। बिना किसी प्रोवेकेशन के उन्होंने बार-बार ऐसा किया। उनके साथियों ने भी उन्हें अभी तक नहीं रोका है।
आइए फिर बहस पर लौटें। वह सवाल जो सबसे पहले बहस में पूछा जाना चाहिए था अभी तक उठाया ही नहीं गया है। कारों पर लगाए जाने वाले पोस्टरों और स्टीकरों पर लिखा गया था: ‘मनमोहन सिंह वोट चाहिए तो लोकपाल विधेयक लाओ’। 7 मार्च को हजारे के प्रधानमंत्राी से मिलने की सूचना तो हमें बाद में मिली। पहले ही दिन काॅलोनी में खड़ी एक कार पर चिपका आई0ए0सी0 का पोस्टर और स्टीकर पढ़ कर हमें पता चल गया कि यह भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, नवउदारवाद का रास्ता प्रशस्त करने का अभियान है। मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के लिए इससे सस्ता सौदा नहीं हो सकता था-जन लोकपाल कानून के बदले वोट की गारंटी। सत्ता की नजर बड़ी टेढ़ी होती है। वह अपना फायदा तो पहले देखती ही है, किसी भी लेन-देन में दूसरे पक्ष को बदनाम कर सारा श्रेय खुद लेने की स्वाभाविक नीयत से परिचालित होती है। संयुक्त समिति के सदस्यों और खुद हजारे को जो सामना करना पड़ रहा है, वह दरअसल सत्ता की नीयत का ही नतीजा है। लोकपाल कानून आना है तो पूरा श्रेय सरकार को क्यों न मिले?
पोस्टर बताता है कि आयोजकों ने सत्ता के समर्थन की अपनी नीयत छिपाई नहीं थी। भले ही अभियान के समर्थक जान नहीं पाए हों। आयोजकों को छिपाने की और समर्थकों को जानने की शायद जरूरत भी नहीं थी। माने हुए को क्या जानना? जितने भी लोग जंतर-मंतर पर थे, और देश के दूसरे हिस्सों में अभियान का समर्थन कर रहे थे, उनका बहुलांश नवउदारवादी रास्ते को आर्थिक महाशक्ति बनने का रास्ता मानता है। उनके सामने बार-बार यह सच्चाई आती है कि वह भ्रष्टाचार का रास्ता है। लेकिन वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। फिर भी वे चाहते हैं, भ्रष्टाचार न हो। यह नागरिक समाज भ्रष्टाचार विरोध का अभियान चला कर अपनी आत्मा के दाग देता है। वह आप अपनी पीठ ठोंकता है कि एक सीमा के बाद वह भ्


