मजबूरी का नाम बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर
मजबूरी का नाम बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर
बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर का नाम उनकी मजबूरी है और बाबासाहेब हमारा वजूद है।
"अगर हिंदू राज असलियत बन जाता है, तो इसमें संदेह नहीं कि यह इस देश के लिए सबसे बड़ी तबाही होगी. हिंदू चाहे जो कहें, हिंदू धर्म स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारे के लिए खतरा है. इस लिहाज से यह लोकतंत्र के साथ नहीं चल सकता. हिंदू राज को किसी भी कीमत पर रोकना होगा."
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर
मित्रों, माफ करना कि बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर की 125वीं जयंती के वार्षिक उत्सव के सत्तावर्गीय आयोजन और सत्तावर्ग में बाबासाहेब के दखल के लिए मचे घमासान महाभारत के मृग मरीचिका माहौल को साफ करने के लिए हमें ऐसा कहना लिखना पड़ रहा है।
बाबासाहेब हमारे वजूद में हैं और बाबासाहेब उनके लिए मजबूरी है क्योंकि अंधी पागल दौड़ के इस मुक्त बाजार में गांधी और गोलवलकर के नाम वोट नहीं मिल सकते, राम मंदिर के नाम पर भी बहुजनों के वोट नहीं मिल सकते, वोट मिलेंगे तो बाबासाहेब के नाम पर।
बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर का नाम उनकी मजबूरी है और बाबासाहेब हमारा वजूद है।
अब हम तय करें कि हम अपना वजूद किस हद तक इस जनसंहारी गरम नरम हिंदुत्व के द्वैत अद्वैत वैदिकी प्रभूव्रग के मनुस्मृति शासन के हवाले करने को तैयार हैं।
आज अरसे बाद आदरणीय डा. आनंद तेलतुंबड़े के साथ घंटे भर की बातचीत हुई। वे नेशनल प्रोफेसर हैं और उन्हें फुरसत में पकड़ना बेहद मुश्किल होता है।
वैसे मैं कद काठी से बौना हूं और नैनीताल में तो भौगोलिक समस्या हो जाती थी। शेखर पाठक जैसे साढ़े छह फुट ऊंचाई के विद्वान प्रोफेसर के साथ खड़े होने में।वह तो उमा भाभी हमारे कद की हैं तो हमारी हिम्मत बंधी। संजोगवश देश भर में हमारे मित्रों की हैसियत और ऊंचाई हमसे लाख गुणा बेहतर हैं।
हम चूंकि मौजूदा स्थाई बंदोबस्त को हिंदू राष्ट्र मानकर जाति उन्मूलन के एजेंडा की बात कर रहे हैं, हम चूंकि अस्मिताओं और भाषाओं की दीवारें तोड़कर सत्तावर्ग की वर्तनी, व्याकरण, सौंदर्यबोध और बाजार के नियमों और सत्ता के अनुशासन के खिलाफ देश जोड़ने और एक फीसद से कम मिलियनर बिलियनर सत्तावर्ग के खिलाफ देश की बाकी जनता को लामबंद करके परिवर्तन के जरिये समता और सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैंः
हम चूंकि हिंदू राष्ट्र की बुनियाद पुणे करार को मान रहे हैं और मान रहे हैं कि आरक्षण, ग्लोबीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के इस नरसंहारी समय में वैश्विक पूंजी के इस अनंत वधस्थल पर उत्पादक समुदायों और समूहों के अनिवार्य मृत्यु उत्सव में वैदिकी कर्मकांड के मंत्रोच्चार के बराबर फर्जीवाड़ा के सिवाय कुछ नही है, जिसे आधार मानकर हत्यारों की जमात छह हजार से ज्यादा जातियों में बंटे बहुजनों को लाखों अस्मिताओं में खंडित करके तमाम संसाधनों पर काबिज होकर देश बेचो कार्निवाल में शत प्रतिशत हिंदुत्व का नरसंहार महोत्सव मना रहा है और जाति संघर्ष जाति अस्मिता को सत्ता की चाबी मानकर मिथ्या आरक्षण को कामयाबी का एक मात्र रास्ता मानकर आपस में महाभारत के जरिये गुलामी के स्थाई बंदोबस्त में आजाद और खुशहाल मान रहे हैं वध्य जनताः
तो इस घनघोर वैदिकी हिंसा के मध्य बाबासाहेब की प्रासंगिकता पर बहस और संवाद सबसे जरुरी है।
बार-बार, बार-बार गरम और नरम हिंदुत्व का विकल्प चुनकर जो यह सिस्टम फेल है
फेल है धर्मनिरपेक्षता,
फेल है अर्थ व्यवस्था,
फेल है संविधान,
फेल हैं लोकतंत्र और लोक गणराज्य,
फेल हैं नागरिक और मानवाधिकार,
फेल हैं मनुष्यता और सभ्यता,
पेल है प्रकिति और पर्यावरण,
फेल है समता और न्याय के सिद्धांत,
और फेल है बदलाव के तमाम सपने,
फेल हैं जनमत जनादेश और जनांदोलन,
और बार-बार धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण के मार्फत जो जनमत जनादेश का खेल मजबूत बना रहा है मनुस्मृति शासन मध्ये हिंदुत्व का यह नर्क, उसकी चीरफाड़ अब बेहद अनिवार्य है।
जो बदलाव का ख्वाब नहीं देख सकते, जिनकी इंद्रियां विकल हैं और जिनके रगों में मनुष्यता के लिए कोई खून बचा नहीं है, जो सत्तावर्ग के सामने आत्मसमर्पण करके बाजार के सारे मजे लूटकर राम से हनुमान बनने को तत्पर हैं, ...जारी.... शेष भाग अगले पृष्ठ पर पढ़ने के लिए यहां क्लिक करेंपिछला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें
जाहिर है कि यह बहस और संवाद उनके लिए नहीं हैं। ऐसे लोग हमें खारिज करें या हमें गालियों से नवाजे या हमारे खिलाफ फतवे जारी करें, या सीधे हमला करें, हमें इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं है।
बदलाव के लिए किसी धर्मोन्मादी बजरंगी सेना की जरूरत नहीं होती और दुनिया के इतिहास ने बार-बार साबित कर दिखाया है कि सत्ता के खिलाफ लड़ने का कलेजा बहुत कम लोग होता है, उन चंद लोगों की बदौलत इस कायनात की तमाम बरकतें और नियामतें दुनियाभर की शैतानी ताकतों के गठबंधन के बावजूद अब भी बची हुई हैं और हम दरअसल अपने देश में सचमुच के बदलाव के उन चंद बंदों की तलाश में हैं जो गरम हिंदुत्व और नरम हिंदुत्व के ताने बाने से बने इस हिंदू राष्ट्र को फिर वही सचमुच का भारतवर्ष बना दें।
मुझे अपनी प्रतिभा, अपनी शिक्षा दीक्षा और अपनी योग्यता की सीमाएं मालूम हैं और इसलिए हमेशा देश भर में अपने सबसे काबिल मित्रों से संवाद करके अपने विचारों को तराशने का काम करता रहता हूं।
मुझे डर यह था दरअसल कि जो मैं लिख रहा हूं, उसका अंबेडकरी विचारों से कोई अंतर्विरोध तो नहीं है और इसलिए हफ्तों से तेलतुंबड़े से बात करने का बेसब्र इंतजार कर रहा था।
तो आज घंटे भर की बातचीत के बाद हम लोगों ने तय किया है कि जब सत्ता वर्ग के दोनों खेमे हमारे बाबासाहेब के दखल के लिए छननी लेकर देश के समझदार बहुजनों का शिकार को निकले हैं कि बाबासाहेब के मंत्र जाप से उनके सत्ता समीकरण सध जायें, तो हम सच का सामना करेंगे और अपने इस निन्यानब्वे फीसद भारतीय प्रजाजनों को लागातार इस जन्नत का हकीकत बताते रहेंगे।
आज इस लंबी बातचीत का कुल जमा निष्कर्ष निकला- मजबूरी का नाम बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर।
हमने जब आनंद जी से निवेदन किया कि आज इसी शीर्षक से रोजनामचे की शुरुआत करता हूं तो वे बोले कि ऐसा लिख दोगे तो अंबेडकरी जनता बहुत नाराज हो जायेगी।
इस पर हमने कहा कि अंबेडकर का हर अनुयायी अब मुकम्मल देवदास है जो आत्मध्वंस का जलता हुआ प्रतीक है। वह नाराज हो या खुश, सच का सामना करने के सिवाय इस गैस चैंबर में रास्ता तोड़ निकालने का कोई उपाय नहीं है। पानी सर से ऊपर है और सारी हदें पार हैं, या तो जीना है या मरना है। अगर-मगर, किंतु परंतु से काम लेकिन चलेगा नहीं।
दरअसल भारत में विकास गाथा और समरसता, समावेश, समायोजन का कुल जमा यही है कि पहले मजबूरी का नाम महात्मा गांधी था, तो अब मजबूरी का नाम डा.भीमराव अंबेडकर है।
समता सामाजिक न्याय लोकतंत्र कानून का राज, नागरिक मानवाधिकार श्रम उत्पादन अर्थव्यवस्था राजकाज राजकरण प्रकृति और पर्यावरण, जलवायु और मौसम, जल जमीन जंगल नागरिकता और आजीविका के हकहकूक के तमाम मसलों के मद्देनजर भारतीय लोकतंत्र का सफर का दायरा गांधी और अंबेडकर का फासला है।
बाकी कुछ भी न बदला है और न बदलने जा रहा है, क्योंकि सड़े हुए पानी में जीने की अभ्यस्त हो गयी हैं मछलियां, और मछलियों को इस तालाब में किसी किस्म की हलचल से डर लगता है।
यह सच है कि समान अवसरों के लिए अजा अजजा को आरक्षणा का स्थाई संवैधानिक व्यवस्था बाबासाहेब कर गये तो बाबासाहेब की ही सिफारिश पर अमल करते हुए अब पिछड़ों को भी आरक्षण है। आरक्षण महिलाओं को भी मिल रहा है।
आरक्षण से महिलाओं का सशक्तीकरण जरूर हुआ है लेकिन पुरषवर्चस्व के इस किले में स्त्री की दासी भोग्या शरीर सर्वस्व दशा और उसके रंगभेदी उपभोग के स्थाई बंदोबस्त को तोड़कर सही मायने में स्त्री मुक्ति जैसे इस मनुस्मृति शासन के अंत के बिना नहीं हो सकता, उसी तरह सारे के सारे कायदे कानून, संवैधानिक प्रावधान और लोकतंत्र और इंसानियत की महक से अलहदा मुक्तबाजार के इस जल्लादी धर्मोन्मादी जमींदारी विरासत में प्रजाजनों को सिर्फ आरक्षण से मुक्ति नहीं मिल सकती, जबकि ग्लोबीकरण उदारीकरण और निजीकरण के बारे में कोई जनचेतना नहीं है, जनांदोलन तो दूर की कौड़ी है। मुक्तबाजार में आरक्षण का धोखा है। नौकरियां खत्म हैं।
मेहनतकशों के हक हकूक खत्म हैं। बाबासाहेब के सारे श्रमकानून खत्म हैं। उत्पादन प्रमाली खत्म हैं। खुदरा कारोबार खत्म हैं। कृषि खत्म है। रोटी नहीं।रोजगार नहीं। पैसे हैं तो मौज करो, वरना न शिक्षा है, न रोजगार, न बिजली है, न राशन पानी। न चिकित्सा है। यह हम सिलसिलेवार बता रहे हैं। बाजारों से लेकर उद्योगों तक, खेतों से लेकर चायबागानों तक, कलकारखानों में विदेशी पूंजी की एफडीआई तंत्रसाधना कर रहे हैं रंगबिरंगे कापालिक और नागरिकों की हैसियत शवसाधना में इस्तेमाल की जाने की लाश है और तमाम समूह और समुदायों में कबंधों का अनंत जुलूस हैं।
जल जंगल जमीन पहाड़ समुंदर नदियां मरुस्थल रण खनिज से लेकर पर्यावरण मौसम और जलवायु तक बाजार के हाथों में बेदखल है और हमारे हिस्से में भूकंप, भूस्खलन, अकाल, सूखा, बाढ़, दुष्काल, कुपोषण, भुखमरी, बीमारियों और आपदा का जो अनंत सिलसिला है वह सत्तावर्ग का सृजन है, उनका रचनाकौशल है और उनके लिए शेयर बाजार के भाव हैं राजकाज और राजकरण।
जब हम ऐसा कह रहे हैं तो इस मनुस्मृति बंदोबस्त के खिलाफ जनता को लामबंद करने के बजाये अंबेडकरी सौदागर तमाम हमें कटघरे में खड़ा करके आखिर इसी मुनाफावसूली के तंत्र को ही मजबूत कर रहे हैं और हमारे खून पसीने, हमारी हड्डियों के टुकड़ों का ही कारोबार चला रहे हैं वे लोग। वही लोग सत्ता वर्ग के अलग अलग हिस्सों को नुमाइंदगी करके पहले गांधी, मार्क्स लेनिल और लोहिया के विचारों की जुगाली करते हुए हिंदू राष्ट्र के सिपाह सालार औरमनसबदार बनते रहे हैं और अब वे अंबेडकर की नामावली ओढ़कर खूंखार भेड़ियों की फौज लेकर दलितों की बस्तियों में आखेट को निकले हैं।
मनुष्यता और सभ्यता के खिलाफ, प्रकृति और पर्यावरण के खिलाफ युद्धअपराधियों के हाथों बेदखल हैं बाबासाहेब बीमराव अंबेडकर।
हम सिर्फ तमाशबीन धर्माध भीड़ में तब्दील हिंदू राष्ट्र की पैदल सेनाएं हैं जो अश्वमेध के घोड़ों की टापों में खुशहाली खोजते हैं।
हमारे लोग तब बहुत नाराज होते हैं, जब हम मुक्त बाजार के बंदोबस्त में पुणे करार के तहत सत्तावर्ग के मिलियनरों बिलियनरों में शामिल रामों और हनुमानों की मलाईकथा कहते हुए बताते हैं कि बहुजनों को दरअसल आरक्षण से मिला होगा जो कुछ, अब लेकिन कुछ नहीं मिलने वाला है और आरक्षण के जरिये सब कुछ हासिल कर लने के खातिर अपनी अपनी जाति को मजबूत बनाने की लड़ाई दरअसल मनुस्मृति शासन को मजबूत ही कर रही है, जो जाति की बुनियाद पर है और बहुजन जाति व्यवस्था को मजबूत करते हुए दरअसल हिंदुत्व की नर्क ही चुन रहे हैं, जो उनकी गुलामी की वजह है और जिसके कारण लोक-परलोक सुधारने की गरज से बाहुबलि हिंदुत्व के तंत्र मंत्र यंत्र को बनाये रखने में बहुजन हिंदू राष्ट्र की पैदल सेना बनकर अपने ही स्वजनों के नरसंहार में शामिल हैं।
हमने डा.आंनद तेलतुबड़े जो अंबेडकर के तमाम लिखे को डिजिटल बना चुके हैं और बाबासाहेब के ग्रांड सन इन ला हैं, उनसे निवेदन किया है कि वे जो सन 1991 के बाद आरक्षण के स्टेटस पर लगातार शोध करते रहे हैं कि कितना आरक्षण लागू है और कितना नहीं है, कितना वायदा है और कितना धोखा है, किन पदों पर प्रोन्नतियां मिली है और किन किन सेक्टरों में कितना आरक्षण मिला है, किन्हें आरक्षण मिला है और किन्हें नहीं मिला है, यह सारा सच आंकड़ों समेत सार्वजनिक कर दें, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो जाये और हमारे लोगों की आंकों पर बंधी हिंदू राष्ट्र की गुलामी की पट्टियां हट जायें।
पलाश विश्वास


