मधु लिमये : लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के करिश्माई नेता
मधु लिमये की जीवनी. Madhu Limaye Biography in Hindi. मधु लिमये को आने वाली पीढ़ियों द्वारा नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उनके अथक संघर्ष और सामाजिक न्याय का कारण बनने के लिए भी याद किया जाएगा।

मधु लिमये (1st May-1922-8th January 1995)
समाजवादी नेता मधु लिमये की जयंती 1 मई पर विशेष
स्व. मधु लिमये आधुनिक भारत के विशिष्टतम व्यक्तित्वों में से एक थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बाद में पुर्तगालियों से गोवा को मुक्त कराकर भारत में शामिल कराने में। वह एक प्रतिबद्ध समाजवादी, एक प्रतिष्ठित सांसद, नागरिक स्वतंत्रता के हिमायती, एक विपुल लेखक होने के साथ साथ ऐसे व्यक्ति थे जिनका सारा जीवन देश के ग़रीब और आम आदमी की भलाई में गुज़रा और उनके के लिए वह ताउम्र समर्पित रहे।
मधु लिमये देश के लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के करिश्माई नेता थे और अपनी विचारधारा के साथ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। ईमानदारी, सादगी, तपस्या, उच्च नैतिक गुणों से संपन्न होने के साथ साथ, मधु लिमये पर महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के दर्शन का बहुत प्रभाव था जिसका उन्होंने जीवन भर अनुसरण किया और सार्वजानिक जीवन में अपना एक ख़ास स्थान बनाया। एक प्रबुद्ध समाजवादी नेता के रूप में उन्होंने 1948 से लेकर 1982 तक विभिन्न चरणों में और अलग अलग भूमिकाओं में समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व और मार्गदर्शन किया।देश के समाजवादी आंदोलन के सबसे अग्रणी नेताओं में से एक मधु लिमये ने समाजवादी आदर्शों को स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई और आधुनिक भारत के निर्माण में उनका योगदान वास्तव में जबरदस्त है।
मधु लिमये का जीवन
मधु लिमये का जन्म 1 मई, 1922 को महाराष्ट्र के पूना में हुआ था।उन्होंने अपनी प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा रॉबर्ट मनी स्कूल, बॉम्बे और सरस्वती मंदिर, पूना से हासिल की। एक ज़हीन छात्र, मधु लिमये ने सिर्फ एक साल में अपनी पांचवीं, छठी और सातवीं क्लास पास की। अल्पायु के कारण ही उन्हें 13 वर्ष की उम्र में मैट्रिक परीक्षा देने की अनुमति नहीं मिली। औपचारिक स्कूली शिक्षा में रुकावट ने उन्हें इतिहास, विभिन्न देशों में स्वतंत्रता आंदोलन और महान हस्तियों की आत्मकथाओं पर किताबें पढ़ने का अवसर प्रदान किया। अपनी स्कूली शिक्षा के बाद, मधु लिमये ने 1937 में पूना के फर्ग्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया और विश्व इतिहास, भारतीय प्रशासन, अंग्रेजी और संस्कृत को अपने विषयों के रूप में चुना। इसी दौरान मधु लिमये समाजवादी विचारों के प्रति आकर्षित हुए। साथ ही उन्होंने छात्र आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया और ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन के सक्रिय सदस्य बन गए। तभी से मधु लिमये ने मानवता को उपनिवेशवाद, ग़ुलामी, अन्याय तथा वंचना और शोषण के बंधन से मुक्त कराने की यात्रा शुरू की।
स्वतंत्रता सेनानी मधु लिमये ने बहुत ही कम उम्र में राजनीति में प्रवेश किया। अपने 15 वें जन्मदिन पर 1937 में वह पूना में मई दिवस के जुलूस में शामिल हुए। इस जुलूस पर आरएसएस के स्वयंसेवकों द्वारा हिंसक हमला किया गया था। इस जुलूस के नेता सेनापति बापट और एस एम जोशी बुरी तरह घायल हो गए। संघर्ष और प्रतिरोध की राजनीति के साथ मधु लिमये की राजनीति में यह शुरुआत थी। इसके बाद, मधु लिमये एस एम जोशी, एन जी गोरे और पांडुरंग एस साने, उर्फ साने गुरुजी के निकट संपर्क में आए और अपने समकालीनों के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन और समाजवादी विचारधारा के प्रति आकर्षित हुए। वह युवा समाजवादियों की टोली, वी.एन. उर्फ अन्ना साने, केशव उर्फ (बंडू) गोरे, गंगाधर ओगले, माधव लिमये और विनायक कुलकर्णी की अध्ययन मंडली में शामिल हो गए।
31 दिसंबर 1938 को इस समूह ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) के पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने का फैसला किया। एस एम जोशी उस समय पूना जिला कांग्रेस कमिटी के महासचिव होने के साथ साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के प्रांतीय सचिव भी थे। 1939 में, एसएम ने 17 वर्ष की आयु में मधु लिमये को पूना कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का जिला महासचिव नियुक्त कर दिया।
युवा मधु लिमये ने भक्तिभाव से पूना में सीएसपी को संगठित किया। उसी वर्ष दो प्रसिद्ध समाजवादी नेताओं, जयप्रकाश नारायण और डॉ राममनोहर लोहिया ने पूना का दौरा किया और मधु लिमये के कौशल से प्रभावित हुए। 1939 में, जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा, तो उन्होंने सोचा कि यह देश को औपनिवेशिक शासन से मुक्त करने का एक अवसर है।लिहाज़ा अक्टूबर 1940 में, मधु लिमये ने युद्ध के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया और अपने युद्ध विरोधी भाषणों के लिए गिरफ्तार कर लिए गए।उन्हें लगभग एक वर्ष के लिए खानदेश क्षेत्र की धुलिया जेल में डाल दिया गया।मधु लिमये को सितंबर, 1941 में रिहा किया गया और पार्टी ने उन्हें फ़ौरन महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्र सेवा दल और युवा शिविरों के आयोजन का काम सौंप दिया।
अगस्त 1942 में, अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी ने जब बंबई में अपना सम्मेलन आयोजित किया, जहाँ महात्मा गांधी ने 'भारत छोड़ो' का आह्वान किया तो मधु लिमये वहां मौजूद थे। यह पहला मौका था जब मधु लिमये ने गांधीजी को करीब से देखा। उसी समय गांधीजी सहित कांग्रेस पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मधु अपने कुछ सहयोगियों के साथ भूमिगत हो गए और अच्युत पटवर्धन, उषा मेहता और अरुणा आसफ अली के साथ भूमिगत प्रतिरोध आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने एक प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की और अच्युत पटवर्धन और एस एम जोशी द्वारा संपादित एक मराठी पत्रिका 'क्रान्तिकारी' शुरू की। उस समय वह बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन के सामने 'मूषक महल' नामक जगह पर रह रहे थे।
18 अप्रैल, 1943 को पुलिस ने छापा मार कर साने गुरुजी, एन जी गोरे, श्रीभाऊ लिमये और माधव लिमये को गिरफ्तार कर लिया लेकिन एस एम जोशी और मधु लिमये बच गए।'मूषक महल’ में छापे के बाद, समाजवादियों ने अपने ठिकाने बदल दिए और एक नए स्थान पर स्थानांतरित हो गए जिसे 'हडल हाऊस’ कहा जाता था।
सितंबर, 1943 में मधु को एस एम जोशी और विनायक कुलकर्णी के साथ इस जगह से गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 'डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स' के तहत गिरफ्तार किया गया था और जुलाई 1945 तक वर्ली, यरवदा और विसापुर की जेलों में बिना किसी मुकदमे के हिरासत में रखा गया। उनकी नजरबंदी के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने उनसे भूमिगत गतिविधियों के रहस्यों को उगलवाने की पूरी कोशिश की, लेकिन लिमये पुलिस द्वारा किए गए गंभीर अत्याचारों के बावजूद ख़ामोश रहे। समाजवादी आंदोलन में रहते हुए मधु लिमये लगभग एक दशक, 1938-48 तक कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े रहे। उन्होंने फरवरी, 1947 में सीएसपी के कानपुर सम्मेलन में भाग लिया, जहाँ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) से 'कांग्रेस’ शब्द हटा दिया गया।
मधु लिमये सोशलिस्ट पार्टी के पुनर्गठन में सबसे आगे थे और उन्हें खानदेश क्षेत्र की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को सफलतापूर्वक लामबंद किया और किसानों और युवाओं को समाजवादी धारा से जोड़ा। 1947 में, उन्होंने भारतीय समाजवादी आंदोलन के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में सोशलिस्ट इंटरनेशनल के एंटवर्प (बेल्जियम) सम्मेलन में भाग लिया। वह 1948 में नासिक सम्मेलन में सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए, और 1949 में पटना में हुए सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में संयुक्त सचिव चुने गए। वे सोशलिस्ट पार्टी की विदेश मामलों की समिति के सह सचिव और रंगून स्थित एशियन सोशलिस्ट ब्यूरो के सचिव भी थे।
मधु लिमये इलाहाबाद में 1953-54 में आयोजित प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के पहले स्थापना सम्मेलन में भी संयुक्त सचिव चुने गए। मधु लिमये ने 15 मई 1952 को प्रोफेसर चंपा गुप्ते से शादी की। वह उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन दोनों जगह प्रेरणा और समर्थन का एक बड़ा स्रोत साबित हुईं।
चंपा गुप्ते बाद में लिमये एक बहादुर महिला थीं, जो समाजवाद के सिद्धांतों और आदर्शों में विश्वास करती थीं और मधु लिमये के सभी संघर्षों और राहों की साथी रहीं। वास्तव में, यह दोनों व्यक्तित्व अपने सभी प्रयासों में एक दूसरे के पूरक थे।
गोवा मुक्ति आंदोलन
मधु लिमये ने 1950 के दशक में, गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया, जिसे उनके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1946 में शुरू किया था। उपनिवेशवाद के कट्टर आलोचक लिमये ने 1955 में एक बड़े सत्याग्रह का नेतृत्व किया और गोवा में प्रवेश किया। पेड़ने में पुर्तगाली पुलिस ने हिंसक रूप से सत्याग्रहियों पर हमला किया, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर कुछ मौतें हुईं और लोगों को चोटें आईं। पुलिस ने मधु लिमये की बेरहमी से पिटाई की। उन्हें पांच महीने तक पुलिस हिरासत में रखा गया था। दिसंबर 1955 में, पुर्तगाली सैन्य न्यायाधिकरण ने उन्हें 12 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। लेकिन मधु लिमये ने न तो कोई बचाव पेश किया और न ही भारी सजा के खिलाफ अपील की। एक बार जब वह गोवा की जेल में थे तो उन्होंने लिखा था कि 'मैंने महसूस किया है कि गांधीजी ने मेरे जीवन को कितनी गहराई से बदल दिया है, उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और इच्छा शक्ति को कितनी गहराई से आकार दिया है।’ गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान, उन्होंने पुर्तगाली कैद में 19 महीने से अधिक समय बिताया।
कैद के दौरान उन्होंने जेल डायरी के रूप में एक पुस्तक 'गोवा लिबरेशन मूवमेंट और मधु लिमये’ लिखी जो 1996 में गोवा आंदोलन के शुभारंभ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित हुई। 1957 में पुर्तगाली हिरासत से छूटने के बाद भी मधु लिमये ने गोवा की मुक्ति के लिए जनता को जुटाना जारी रखा और विभिन्न वर्गों से समर्थन मांगा तथा भारत सरकार से इस दिशा में ठोस कदम उठाने के लिए आग्रह किया। जन सत्याग्रह के बाद, भारत सरकार गोवा में सैन्य कार्रवाई करने के लिए मजबूर हुई और गोवा पुर्तगाली शासन से मुक्त हुआ। दिसंबर 1961 में गोवा आजाद हो कर भारत का अभिन्न अंग बना।
सोशलिस्ट पार्टी का नेतृत्व
कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में वर्षों सक्रिय रहने के बाद, अप्रैल 1958 में शेरघाटी (गया) में आयोजित सोशलिस्ट पार्टी (लोहिया गुट) के राष्ट्रीय सम्मेलन में मधु लिमये को पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। उनकी अध्यक्षता में संगठन को मजबूत करने के लिए बड़े प्रयास किए गए।स्पष्ट नीतियां और ठोस कार्ययोजना बनाकर पार्टी को मज़बूत किया गया।1959 में मधु लिमये ने सोशलिस्ट पार्टी के बनारस सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जहाँ उनकी अध्यक्षता में पार्टी ने समाज के पिछड़े वर्गों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने के लिए एक प्रस्ताव अपनाया और नारा दिया 'सोशलिस्ट पार्टी ने बाँधी गांठ, पिछड़े पावैं सौ मैं साठ।' 1964 में एसपी-पीएसपी के विलय के बाद, वह नवगठित संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष और चौथी लोकसभा में 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी संसदीय दल के नेता चुने गए। राममनोहर लोहिया उस दल के सदस्य थे लेकिन उन्होंने मधु लिमये को अपना नेता चुना।
भारतीय संविधान और संसदीय मामलों के ज्ञाता मधु लिमये, 1964 से 1979 तक चार बार लोकसभा के लिए चुने गए।उन्हें संसदीय नियमों की प्रक्रिया और उनके उपयोग तथा विभिन्न विषयों की गहरी समझ थी।वह भारतीय संविधान के विश्वकोश थे और संवैधानिक मामलों पर संसद में दिए गए उनके भाषण आज भी मील का पत्थर हैं और उनकी परिपक्वता और समझ को प्रतिबिंबित करते हैं। उन्होंने लोक सभा में आम आदमी के प्रति अपनी चिंता, संवेदनशीलता और प्रतिबद्धता का ज़ोरदार ढ़ंग से प्रदर्शन किया।
सदन में जब वह बोलने के लिए खड़े होते थे तो उनके पास सन्दर्भों का पहाड़ होता था और उन्हें ध्यान से सुना जाता था।
मधु लिमये का मानना था, “कि संसद बड़े पैमाने पर लोकप्रिय आंदोलनों का एक विकल्प नहीं है, बल्कि जन सेवा का एक अतिरिक्त साधन और जनता की शिकायतों को उठाने का एक मंच है।" उनका यह भी मानना था कि आम आदमी की आशाओं और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने के लिए संसद का इस्तेमाल एक औज़ार के रूप में किया जाना चाहिए।मधु लिमये ने ऐसा ही करके प्रभावी ढंग से देश के महत्वपूर्ण मुद्दों को संसद में उठाया।इसी कारण उन्हें एक उत्कृष्ट सांसद के रूप में याद किया जाएगा, जिन्होंने अपनी तर्कसंगत शैली से बहसों को और सदन की गरिमा और मर्यादा को बढ़ाया।
नागरिक स्वतंत्रता के हिमायती
मधु लिमये जीवन भर नागरिक स्वतंत्रता के योद्धा और हिमायती रहे। उन्होंने कई बार न्यायपालिका का सामना किया और खुद अपने मामलों को निचली अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय तक में तर्कों के ज़रिये उठाया और हमेशा सफल हुए। मधु लिमये को स्वतंत्र भारत में जब-जब अवैध रूप से गिरफ्तार किया गया उन्होंने हर बार अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी और उन्हें कामयाबी हासिल हुई। 1959 में, जब वे सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उनकी पार्टी की पंजाब इकाई ने राज्य के विभिन्न ज़िलों में मूल्य वृद्धि के खिलाफ आंदोलन शुरू किया और 7 जनवरी 1959 को, जब वे हिसार के जिला पार्टी कार्यालय में बैठे थे, बिना किसी वारंट के पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो मधु लिमये ने अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ आईपीसी की धारा 226 के तहत पंजाब हाई कोर्ट में 'हैबियस कॉर्पस' याचिका दायर की। उच्च न्यायालय ने उनकी अवैध गिरफ़्तारी के खिलाफ उनकी रिट याचिका स्वीकार कर ली और उन्हें 2 फरवरी, 1959 को रिहा कर दिया। दूसरी बार उन्हें दफ़ा 144 के उल्लंघन के लिए उनके संसदीय क्षेत्र मुंगेर के तहत लखीसराय रेलवे स्टेशन पर 5 नवंबर 1968 को गिरफ्तार कर लिया गया। मधु लिमये ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी इस गिरफ़्तारी को चुनौती दी और कोर्ट ने उनकी गिरफ़्तारी को अवैध घोषित करते हुए 18 दिसंबर 1968 को उन्हें तुरंत रिहा कर दिया गया।मधु लिमये के अदालती मुक़ददमों की एक लंबी सूची है जहाँ उन्होंने प्रशासन और पुलिस द्वारा की गई गिरफ़्तारी को चुनौती दी थी क्यूंकि ऐसा सत्तारूढ़ पार्टीयां अपने राजनीतिक विरोधियों को कुचलने या उसकी जन-विरोधी नीतियों का विरोध करने में मदद करने वालों को डराने-धमकाने के उद्देश्य से करती हैं। उन्होंने आम नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता को कम करने के लिए सरकार द्वारा अपनाए गए असंवैधानिक तरीकों का भी दृढ़ता के साथ विरोध किया।
साठ के दशक के उत्तरार्ध में जब असंवैधानिक विवादों ने राष्ट्रीय बहस का रूप अख़्तियार कर लिया तो मधु लिमये ने इन मुद्दों को जोरदार ढ़ंग से उठाया और उनका विरोध करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि और सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश, न्यायमूर्ति के.एस. हेगड़े को पत्र लिखे। बाद में इन मुद्दों पर विस्तार से उनकी पुस्तकों में चर्चा की गई।
मधु लिमये को आने वाली पीढ़ियों द्वारा नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उनके अथक संघर्ष और सामाजिक न्याय का कारण बनने के लिए भी याद किया जाएगा।
विदेश नीति और अन्तर्राष्ट्रीय संबंध
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों में मधु लिमये का दृढ़ विश्वास था। उनके अनुसार, गुटनिरपेक्षता की अवधारणा देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही थी, जिसके आधार में उपनिवेशवाद का ख़ात्मा कर सभी लोगों के लिए स्वतंत्रता, निरस्त्रीकरण, विकासशील देशों के आर्थिक हितों की सुरक्षा और विश्व शांति निहित थी। वह गुटनिरपेक्ष आंदोलन को एक नया आयाम दिए जाने के पक्ष में थे ताकि इसे और अधिक जनोन्मुखी बनाया जा सके। उन्होंने महसूस किया कि इस आंदोलन को निम्न-वर्ग के लोगों की आर्थिक और सामाजिक आकांक्षाओं को स्पष्ट करना चाहिए। उन्होंने यह भी विचार रखा कि भारत को उत्तर-दक्षिण टकराव के रूप में कड़ा रुख अपनाना चाहिए, क्योंकि यह राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद के खिलाफ औपनिवेशिक लोगों के संघर्ष का विस्तार था। साथ ही गुटनिरपेक्षता की नीति को किसी भी देश के साम्राज्यवादी आधिपत्य के खिलाफ काम करना चाहिए। उसी समय उन्होंने यह भी महसूस किया कि इसे अन्य देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों के लिए एक निवारक के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत की विदेश नीति की स्वतंत्रता हर कीमत पर सुनिश्चित की जानी चाहिए और इसका उद्देश्य दीर्घावधि में हमारे राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक हितों की रक्षा करना होना चाहिए। मधु लिमये का मत था कि राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ देशों को आर्थिक शोषण से भी मुक्त होना चाहिए। गुटनिरपेक्षता का एक सक्षम वातावरण बनना चाहिए जहां औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्र, पूर्ववर्ती उपनिवेशों की आर्थिक वृद्धि के लिए योगदान करते हैं। तब अकेले गुटनिरपेक्षता की नीति सार्थक हो जाती है। परमाणु मुद्दे पर, उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि जब तक सभी परमाणु शक्तियां पूरे तरीके से कुल निरस्त्रीकरण के लिए सहमत नहीं होती हैं, जिसमें संचित परमाणु शस्त्रागार को नष्ट करना शामिल है, भारत को अपने स्वयं के परमाणु विकास के मामले में कोई समझौता नहीं करना चाहिए। इस संबंध में, उनका मानना था कि भारत को आत्मनिर्भर बनने के लिए अपनी परमाणु तकनीक को जल्द से जल्द विकसित करना चाहिए। 1971 में बांग्लादेश में संकट के कारण भारत की सुरक्षा के लिए आसन्न खतरे की स्थिति में, मधु लिमये ने भारत की तत्कालीन सरकार को अपना समर्थन दिया साथ ही उन्होंने जयप्रकाश नारायण को बांग्लादेश की मुक्ति के पक्ष में विश्व जनमत जुटाने का नेतृत्व करने के लिए राजी किया जो मुख्य रूप से भारत सरकार की जिम्मेदारी थी।
मधु लिमये एक सच्चे राष्ट्रवादी के तौर पर राष्ट्रीय संकट की घड़ी में बेकार नहीं बैठे। उन्होंने स्वयं बांग्लादेश की मुक्ति के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल करने के लिए विभिन्न देशों का दौरा किया।
अपने शानदार सार्वजनिक जीवन के दौरान चार दशकों में, मधु लिमये ने दुनिया भर के कई देशों का दौरा किया। वह एशियन सोशलिस्ट ब्यूरो के सचिव भी थे, इसका मुख्यालय रंगून में था। प्रेक्षक प्रतिनिधि के रूप में, उन्होंने 1953 में पेरिस में सोशलिस्ट इंटरनेशनल की परिषद की बैठक में भी भाग लिया।वे कई विदेशी दौरों पर अपने नेता डॉ राममनोहर लोहिया के साथ भी गए। उन्होंने 1967 में मास्को में एस एम जोशी के साथ रूसी क्रांति की 50 वीं वर्षगांठ समारोह में भाग लिया। विभिन्न देशों की उनकी यात्राओं ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय संबंधों की समझ और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनके ज्ञान और अन्य विश्व प्रसिद्ध हस्तियों जैसे हेरोल्ड लास्की जैसे प्रख्यात विचारकों के साथ बातचीत ने उन्हें भारतीय विदेश नीति की एक मज़बूत आवाज़ बनने में मदद की जो आज भी काफी प्रासंगिक है।
समाजवाद,धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रहरी
मधु लिमये का वैचारिक धरातल धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद पर आधारित था। भारत की धर्मनिरपेक्षता में उनका अडिग विश्वास था। उनका मानना था की भारत की सहिष्णुता, समग्र और बहुधर्मी संस्कृति उसकी एकता का एक मज़बूत आधार है और यही विश्वास उसकी एकता का सार है। वह दृढ़ता के साथ भारतीय संविधान की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद के पक्षधर थे और पूरा जीवन उसके संरक्षण के लिए काम करते रहे।
मधु लिमये ने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों में दृढ़ विश्वास के साथ, भारत की लोकतान्त्रिक संसदीय संप्रभुता की रक्षा के लिए अथक संघर्ष किया। अपने लेखन, भाषणों और कार्यों (सत्याग्रह) के माध्यम से उन्होंने एक से अधिक तरीकों से लोकतांत्रिक विरासत की रक्षा की। स्वस्थ लोकतांत्रिक लोकाचार से प्रतिबद्ध होने के कारण, वह हमेशा अपने सिद्धांतों के साथ खड़े रहे और असामान्य राजनीतिक परिस्थितियों के दौरान भी अपने मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया। आपातकाल के दौरान पांचवीं लोकसभा के कार्यकाल के विस्तार के खिलाफ जेल से उनका विरोध इस बात की गवाही है। उन्हें जुलाई 1975 से फरवरी 1977 तक मध्य प्रदेश की विभिन्न जेलों में मीसा (MISA) के तहत हिरासत में रखा गया था। उस समय उन्होंने अपने युवा साथी शरद यादव के साथ आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के दुरुपयोग के ज़रिये अपने और लोक सभा के कार्यकाल के अनैतिक विस्तार के विरोध में पांचवीं लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। मधु लिमये ने जेपी आंदोलन 1974-75 के दौरान और बाद में एकजुट विपक्षी पार्टी (जनता पार्टी) बनाने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह जनता पार्टी के गठन और आपातकाल के बाद केंद्र में सत्ता हासिल करने वाले गठबंधन में सक्रिय थे उन्हें मोरारजी सरकार में मंत्री पद देने का प्रस्ताव भी किया गया लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। बाद में 1 मई, 1977 को उनके 55 वें जन्मदिन पर उन्हें जनता पार्टी का महासचिव चुना गया।
लेकिन यह भी सच है कि उन्हें 1979 में केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता सरकार के पतन के लिए दोषी भी ठहराया गया। मधु लिमये ने उस समय मांग की थी कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य एक साथ किसी दूसरे सामाजिक या राजनीतिक संगठन का सदस्य नहीं हो सकता। यह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े सदस्यों की दोहरी सदस्यता पर हमला था जो विशेष रूप से सत्ताधारी जनता पार्टी से जुड़े थे और जो जनसंघ के पूर्व सदस्य थे। दक्षिणपंथी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी की पैतृक संस्था के रूप में जाना जाता है। इसी मुद्दे पर विवाद के कारण 1979 में जनता सरकार का पतन और जनता पार्टी का विघटन हुआ। बाद में मधु लिमये चरण सिंह के साथ जनता पार्टी (एस) में शामिल हो गए और जनता पार्टी (एस) और लोक दल के महासचिव 1979-82 बने। 1982 में उन्होंने लोकदल से नाता तोड़ लिया और लोक दल (कर्पूरी) का गठन किया। लेकिन जल्द ही राजनीति को अलविदा कह दिया।
एक लेखक के तौर पर मधु लिमये
मधु लिमये ने 1982 में सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने के बाद अंग्रेजी, हिंदी और मराठी में 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं। विपुल लेखक मधु लिमये ने लोकसभा में अपने प्रदर्शन की तरह अपने लेखन में भी तार्किक, निर्णायक, निर्भीक और स्पष्ट रूप से तथ्यों को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पेश किया। हालाँकि वे 1982 से सक्रिय राजनीति से अलग थे लेकिन उन्होंने अपने कई लेखों के माध्यम से राष्ट्र के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विकास से संबंधित मुद्दों पर अपनी चिंता जारी रखी। उनकी विद्वता के गुण उनके कार्यों में अच्छी तरह से परिलक्षित होते हैं, जो संवैधानिक और संसदीय प्रासंगिकता और राष्ट्रीय महत्व के विषयों की एक विस्तृत श्रृंखला है।
मधु लिमये ने अपने लेखन में जिन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को उठाया वह महत्वपूर्ण थे। मधु लिमये का लेखन इतिहास के विभिन्न चरणों के दौरान भारतीय समाज से जुड़े कई मुद्दों पर उनकी गहरी समझ को दर्शाता है। वह हमेशा प्रासंगिक रहेंगे।आने वाली पीढ़ियां मधु लिमये को हमेशा उनके शानदार विचारों के लिए याद करेंगी। मधु लिमये की रचनाएँ प्रचलित सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति और उनके समय के समाजवादी नेताओं के विचारों को एक अंतर्दृष्टि देती हैं।
अत्यंत निष्ठा और शुचिता वाले व्यक्ति, मधु लिमये ने हमेशा दृढ़ विश्वास के साथ काम किया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में उच्चतम नैतिक मानदंडों का उदाहरण पेश किया और समाज से न्यूनतम लिया और अधिकतम दिया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके सराहनीय योगदान के लिए मधु लिमये को भारत सरकार द्वारा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान पेंशन की पेशकश की गई लेकिन उन्होंने इसे विनम्रता के साथ अस्वीकार कर दिया। उन्होंने संसद के पूर्व सदस्यों को दी जाने वाली पेंशन को भी स्वीकार नहीं किया।
मधु लिमये एक प्रतिबद्ध समाजवादी के रूप में, याद किये जायेंगे जिन्होंने निस्वार्थ और बलिदान की भावना के साथ देश देश की सेवा की।
संक्षिप्त बीमारी के बाद 72 वर्ष की आयु में 8 जनवरी, 1995 को मधु लिमये का नई दिल्ली में निधन हो गया। उनके निधन से देश ने एक सच्चे देशभक्त, राष्ट्रवादी, प्रसिद्ध विचारक, समाजवादी नेता और एक प्रतिष्ठित सांसद को खो दिया।
क़ुरबान अली
( नोट : लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों समाजवादी आंदोलन के दस्तावेज़ों का संकलन कर उन्हें संपादित करने का काम कर रहे हैं।)
Madhu Limaye charismatic leader of the democratic socialist movement


