पलाश विश्वास
प्रधान स्वयंसेवक का आज जन्मदिन है और अपने साम्राज्य गुजरात वाइब्रेंट में उन्होंने चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की मेजबानी की। जापान यात्रा से जो उन्होंने विदेशी राष्ट्रनेताओं को गीता भेंट करने की नयी परिपाटी शुरु की है और राजनय को हिंदुत्व पैकेज बना दिया है, उसका सिलसिला जारी है। ग्लोबल इशारों के मुताबिक भारत-चीन, भारत-जापान उभरते नये समीकरण देखें तो अंदाजा लगाना वाकई मुश्किल है कि क्या कुछ पक रहा है। इस उपमहाद्वीपीय समाज वास्तव की पड़ताल करें तो एक ही सूत्र वाक्य समूची प्रक्रिया को समझने के लिए मददगार हो सकता है- मनुष्य और प्रकृति के सर्वनाश में सहअस्तित्व, बाकी बचा युद्ध।

राजनय और विदेशनीति की यह मुक्तबाजारी परंपरा है। द्विपाक्षिक संबंध और बहुपाक्षिक राजनय भी एक दूसरे के कारोबारी हितों तक सीमाबद्ध है। कितने वाणिज्यिक समझौते हुए, परमाणु समझौता हो रहा है या नहीं, स्ट्रैटेजिक पार्टनर हैं या नहीं, कितना निवेश हो रहा है, उनकी किस कंपनी से हमारी किस कंपनी का गठजोड़ हुआ और किस राज्य में संबद्ध देश के औद्योगिक पार्क बनेंगे, यह सहअस्तित्व का नया, अभूतपूर्व और उत्तर आधुनिक पंचशील है।

युद्ध और छायायुद्ध भी जारी रहे, सीमाओं पर तनाव रहे, लंबित विवाद सारे उसी तरह अनसुलझे रहे, लेकिन कारपोरेट हित भी सधते रहे।

चीनी चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दुनिया की सबसे बड़ी फैक्ट्री और दुनिया के बैक आफिस के गठबंधन से वृद्धि विकास का जो एजंडा पेश किया है, उससे जाहिर है कि उनकी भारत यात्रा का मकसद आखिर क्या है।

जाहिर है कि उपचुनावों में मुंह की खाकर भी केसरिया कारपोरेट जारी रखने और राज्यों में सत्ता दखल के रण हुंकार के मध्य भारत सरकार को जिनपिंग के इस दुस्साहसिक बयान पर शर्म नहीं आयेगी कि चीन दुनिया की सबसे बड़ी उत्पादन प्रणाली है और भारत सबसे बड़ा प्रबंधकीय कार्यालय।

यह दरअसल भारतीय महान विकासगाथा हरिकथाअनंत है और गीता का सार भी।

भारत-बांग्लादेश, भारत-नेपाल, भारत-पकिस्तान, भारत-जापान, भारत-श्रीलंका से लेकर भारत-इजराइल, भारत-ब्रिटेन, भारत-अमेरिका और भारत-चीन द्विपाक्षिक संबंधों का सार कारोबार है।

डर्टी पिक्चर के बहुचर्चित संवाद मनोरंजन-मनोरंज-मनोरंजन की तर्ज पर कारोबार-कारोबार-कारोबार।

लालकिले के प्राचीर से प्रधान स्वयंसेवक ने जो प्राकृतिक संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल की युद्धघोषणा की और उसी मुताबिक मनुष्यता और पर्यावरण के लिए खतरनाक तमाम परियजोनाओं को चालू रखने का जो न्यूनतम राजकाज है, जो हिंदुत्व की सर्वव्यापी धर्मोन्मादी राजनीति है, उससे राजनय और विदेशनीति के प्रस्थानबिंदु भी फिर वहीं अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह और निरंकुश देश बेचो अभियान है।

सीमाओं के आर पार जो हिमालय है और सीमाओं के छूने वाले जो समुंदर हैं, जो साझा संसाधन हैं, जो महारण्य, मरुस्थल और रण सीमाओं के आर-पार है, वहां मनुष्य और प्रकृति के लिए दसदिगंत सर्वनाश तो है ही, नागरिक और मानवाधिकारों का निषेध भी है।

मसलन बंगाल के केसरियाकरण से बौद्धमय भारत के अंतिम अवशेष के खत्म अभियान से जो भद्र सुशील क्रयशक्तिसंपन्न नवधनाढ्य अंबानी अडानी मित्तल जिंदल टाटा बनने को बेताब हैं, उन्हें बांग्ला राष्ट्रीयता के धर्मोन्मादी कायाकल्प में कोई फर्क नहीं पड़ता कि शास्त्रीय नृत्यांगना सांसद स्वप्नसुंदरी ने स्मार्ट सिटी बनने को तैयार वृंदावन से बिहार और बंगाल की विधवाओं को चले जाने का परवाना जारी कर दिया है।

बाकी देश को भी सलवा जुड़ुम और आफसपा के नाना अभियानों में बेदखल अस्पृश्य आबादी की कोई चिंता नहीं है।

इस हाल में तेल युद्ध के तीसरे संस्करण से भारतीय अर्थव्यवस्था जो चीनी राष्ट्रपति के शब्दों में अब प्रबंधकीय कार्यालय या बेहतर समझने के लिए पोंजी मार्केंटिंग नेटवर्क है, उस पर आने वाली मंदी के अंब्रेला के तहत दूसरे चरण के सुधारों के परिप्रेक्ष्य में डांवाडोल डालर तंत्र के कारण क्या कयामत आने वाली है, यह कतई विवेचनीय नहीं है धर्मोन्मादी जनता के लिए। स्काटलैंड में जनमत संग्रह के नतीजतन यूरोपीय समुदाय में क्या-क्या गुल खिलेंगे, इस पर भी किसी को कोई फिक्र नहीं है।

कायनात और इंसानियत किस हद तक खतरे में हैं, इस पर वटारिक आदान प्रदान धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रे गीतोपदेस के परम पवित्र परिवेश में कतई विवेचनीय नहीं है।

बीबीसी के जो सवाल हैं, उनमें जाहिर है कि भारतीय मीडिया की कोई दिलचस्पी होनी नहीं है। बीबीसी के मुताबिक-

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे से चीनी लोगों को क्या चाहिए, इसको लेकर वे बेहद स्पष्ट हैं.

लेकिन भारत में चीन को लेकर एक सामूहिक चिंता देखने को मिलती है, जो फ़ैसले और नजरिए दोनों को सीमित करता है.

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान किस तरह के समझौते हो सकते हैं?

क्या उन मुद्दों पर दोनों देशों के बीच कोई बातचीत होगी, जिसको लेकर तनाव बना रहता है. वे कौन-कौन से पहलू हैं जिनके बहाने दोनों देश एक-दूसरे के करीब आ सकते हैं?

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Analysis on Chinese President's visit to India

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।