माकपा ने दूरदर्शन पर चेताया - जोगी-बसपा गठबंधन और अन्य पार्टियां 'वोट कटाऊ' की भूमिका में है

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के लिए माकपा राज्य सचिव संजय पराते का कल दूरदर्शन से प्रसारित हुआ वक्तव्य :

CPI (M) State Secretary Sanjay Parte's statement for the Chhattisgarh assembly elections

छत्तीसगढ़ के प्रबुद्ध मतदाता बहनों और भाईयों,

छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनाव देश की भावी राजनीति की दशा-दिशा को निर्धारित करने वाले हैं. किसानों की क़र्ज़ से मुक्ति, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य, पेट्रोल-डीजल-गैस की बढ़ती कीमतों और आसमान छूती महंगाई पर लगाम, बेरोजगारों को काम, संविदा कर्मचारियों का नियमितीकरण और महिलाओं की सुरक्षा -– ये भाजपा के चुनावी वादे थे. यदि इन वादों को पूरा किया जाता, तो आम जनता की क्रय-शक्ति बढ़ती, जिससे घरेलू बाज़ार में मांग बढ़ती और उद्योगों में बेरोजगारों को काम मिलता. लेकिन राज्य में पिछले 15 सालों से तथा देश में पिछले साढ़े चार सालों से भाजपा ने जिन पूंजीपतिपरस्त नीतियों को लागू किया है, उससे आम जनता का जीवन-स्तर नीचे ही गिरा है और प्रदेश की अर्थव्यवस्था भी बर्बाद हुई है. प्रदेश में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ने का फायदा चंद धनकुबेरों को ही मिला है.

छत्तीसगढ़ की अधिकांश जनता खेती-किसानी व इससे जुड़े कामों में लगी है. लेकिन आज हमारे प्रदेश में खेती-किसानी की तस्वीर क्या है? भाजपा राज के 15 सालों में 25000 से ज्यादा किसानों ने क़र्ज़ के फंदे में फंसकर आत्महत्या की है. प्रदेश में आज हर किसान परिवार पर औसतन 50000 रुपयों का कर्ज़ है. खाद-बीज-डीजल-बिजली महंगी होने से खेती-किसानी की लागत बढ़ गई है. धान की लागत 2000 रूपये प्रति क्विंटल पड़ रही है, लेकिन समर्थन मूल्य 1750 रूपये ही घोषित किया गया है. छत्तीसगढ़ को हर साल सूखे से जूझना पड़ता है, लेकिन फसल बीमा योजना का कोई फायदा प्रदेश के किसानों को नहीं मिलता. निजी बीमा कंपनियों ने प्रीमियम के रूप में 9041 करोड़ रूपये तो बटोरे हैं, लेकिन सूखापीड़ित किसानों को लौटाए हैं केवल 1200 करोड़ रूपये ही! पिछले एक दशक में 1 लाख 30 हजार एकड़ से ज्यादा खेत ख़त्म हुए हैं. पशुधन के व्यापार पर अघोषित प्रतिबंध से ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमरा गई है. आवारा पशु समस्या बन गए हैं और खेतों में खड़ी फसल असुरक्षित हो गई है. नतीजा, खेती-किसानी और पशुपालन घाटे का सौदा बनकर रह गई है.

पिछले 15 सालों में जल-जंगल-जमीन-खनिज व अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर समाज का अधिकार ख़त्म हुआ है. प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों को कार्पोरेटों को सौंपने की नीति अपनाई गयी है. इस कोशिश में भू-राजस्व संहिता में आदिवासी विरोधी संशोधन किए गए हैं, ताकि आदिवासी भूमि को गैर-आदिवसियों के हाथों में हस्तांतरित किया जा सके. पेसा कानून, वनाधिकार कानून, 5वीं अनुसूची के प्रावधानों को लागू करने और अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए प्रदेश का आदिवासी समुदाय लड़ रहा है, जबकि भाजपा सरकार इन कानूनों को लागू करने से ही इंकार कर रही है. वन भूमि पर काबिज 6 लाख आदिवासियों के दावे निरस्त कर दिए गए हैं, जबकि जिन लोगों को आधे-अधूरे पट्टे दिए गए थे, वे भी उनसे छीने जा रहे हैं. विकास व खनन के नाम पर भी उन्हें बड़े पैमाने पर विस्थापित किया जा रहा है, लेकिन प्रभावितों के पुनर्वास-व्यवस्थापन-रोजगार की कोई योजना इस सरकार के पास नहीं है. जमीन हड़पने के लिए आदिवासी क्षेत्रों को पुलिस छावनी व सैनिक अड्डों में तब्दील कर दिया गया है और जो लोग लोकतंत्र, संविधान, मानवाधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें 'नक्सली और देशद्रोही' करार देकर जेलों में डाला जा रहा है. प्रदेश की जेलों में बंद लोगों में 75% दलित और आदिवासी ही हैं.

यदि आदिवासी-दलितों के लिए संविधान में उल्लेखित प्रावधानों को यह सरकार लागू करती, तो आदिवासियों के साथ सदियों से जारी ऐतिहासिक अन्याय दूर होता और स्वशासन की प्रक्रिया में कमजोर तबकों की भागीदारी से ग्राम-समाज मजबूत होता. लेकिन प्रदेश की भाजपा सरकार ने इसकी जगह राजकीय आतंकवाद को ही बढ़ावा दिया है और नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों का ही दमन किया है. केंद्र की भाजपा सरकार ने वनोपज के समर्थन मूल्य में 60% तक की कमी कर दी है, इसका भी वनों पर निर्भर आदिवासी-दलित समुदायों की आजीविका पर नकारात्मक असर पड़ा है. इन परिस्थितियों में आदिवासी और दलितों को बड़े पैमाने पर अपनी भूमि से विस्थापित होना पड़ रहा है. इसी परिप्रेक्ष्य में माकपा विभिन्न जन संगठनों द्वारा संयुक्त रूप से जारी वन अधिकार घोषणापत्र को अपना समर्थन देने का ऐलान करती है.

प्रदेश में ग्रामीण आबादी 76% है, लेकिन बजट का मात्र 11% ही ग्रामीण विकास पर खर्च किया जाता है. इसी प्रकार, 45% आदिवासी-दलितों के लिए बजट का मात्र 2-3% ही खर्च होता है. दलित आज भी जातिवादी अत्याचार का शिकार हैं और उनके मंदिर प्रवेश से लेकर सार्वजनिक स्थानों से पेयजल लेने और सामाजिक समारोहों में समान रूप से, बिना किसी भेदभाव के शिरकत करने पर प्रतिबंध हैं. आदिवासी-दलितों को संवैधानिक आरक्षण के प्रावधानों से वंचित करने की भी कोशिशें जारी हैं.

युक्तियुक्तकरण के नाम पर प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में 3000 स्कूल बंद कर दिए गए हैं. इससे लाखों आदिवासी बच्चे शिक्षा क्षेत्र से बाहर हो गए हैं. पिछले दो सालों से 75000 दलित छात्र-छात्राओं की 40 करोड़ रुपयों की छात्रवृत्ति का भुगतान नहीं किया गया है. निजीकरण के कारण पूरी शिक्षा व्यवस्था चौपट हो गई है और निजी शिक्षा संस्थाएं लूट का अड्डा बन गई है. गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्राप्त करना एक मध्यमवर्गीय परिवार के बस की बात नहीं रह गई है.

प्रदेश में पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या बढ़कर 25 लाख से ज्यादा हो गई है. नोटबंदी व जीएसटी के कारण रोजगार और व्यापार-धंधा भी चौपट हो गया है. निजी क्षेत्र में रोजगार वृद्धि दर शून्य है. बहुप्रचारित 'पद्दू' योजना के अंतर्गत केवल 12000 लोगों को ही प्रदेश में पकौड़ा-रोजगार मिला है. यही हाल मनरेगा का है, जिसे ठेकेदारों के जरिये मशीनों से करवाया जाता है. इसके बावजूद पिछले साल की 300 करोड़ रुपयों की मजदूरी का भुगतान अभी तक नहीं किया गया है. मनरेगा में मजदूरी भुगतान के मामले में छत्तीसगढ़ का देश में 26वां स्थान है. मनरेगा में लगभग 55 लाख परिवार पंजीकृत है, लेकिन पौने पांच लाख परिवारों को ही केवल 30 दिनों का काम मिला है. ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि केंद्र की भाजपा सरकार मनरेगा के खिलाफ है और उसने मनरेगा के बजट में भारी कटौती कर दी है. रोजगार के अभाव में गांवों से हर साल हजारों लोगों को पलायन करना पड़ता है.

स्वास्थ्य सूचकांकों के आधार पर छत्तीसगढ़ देश में 12वें स्थान पर है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना पूरी तरह से फ्लॉप साबित हुई है. प्रदेश में 96% लोग आज भी अस्पतालों में अपने ईलाज के लिए जेब से पैसे खर्च करते हैं. डेंगू और मलेरिया के बढ़ते प्रकोप ने प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल दी है. प्रदेश की आधी से ज्यादा आबादी कुपोषित है, इसके बावजूद 2 लाख परिवार आधार से लिंक न होने के कारण राशन दुकानों के सस्ते अनाज से वंचित हैं.

कैग ने पिछले 15 सालों में इस सरकार के लगभग एक लाख करोड़ रुपयों के घपलों-घोटालों को उजागर किया है. प्रदेश में चिटफंड कंपनियों द्वारा 50000 करोड़ रुपयों से ज्यादा की लूट की गई है. 21 लाख परिवार इस लूट का शिकार हुए हैं, लेकिन किसी भी कंपनी के खिलाफ कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की गई है. इस लूट के कारण सैकड़ों लोगों ने आत्महत्या की है.

बहुप्रचारित उज्जवला योजना पूरी तरह से फ्लॉप है और जिन 18 लाख लोगों को गैस सिलिंडर बांटे गए हैं, उनमें से 8 लाख लोगों ने अभी तक दूसरा सिलिंडर नहीं लिया है.

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, रसोईया मजदूर, मितानिन, शिक्षाकर्मी, पुलिस, नर्स आदि – कर्मचारियों के सभी तबके अपने बेहतर वेतन और नियमितीकरण के लिए लड़ रहे हैं. लेकिन इनके संगठित होने और आंदोलन करने के लोकतांत्रिक अधिकार को स्वीकार करने के बजाये भाजपा सरकार ने सत्ता की पाशविक ताकत के बल पर इनके आंदोलनों को निर्ममता से कुचला है. इन आंदोलनकारियों को देशद्रोह के आरोप में जन सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है.

ये तथ्य भाजपा राज के 15 सालों के कुशासन और तानाशाही को उजागर करते हैं. इस कुशासन और तानाशाही के खिलाफ प्रदेश के सभी तबके और समुदाय आंदोलित हैं. वे अपने बेहतर जीवन और लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं.

लेकिन आम जनता के असंतोष को दबाने के लिए भाजपा और संघ सांप्रदायिक मुद्दों को उछालने में लगा है. इसके लिए भाजपा-आरएसएस ने गौ-रक्षा, लव जेहाद, पाकिस्तान, राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे उठाये हैं, ताकि एक हिन्दू-सांप्रदायिक मानसिकता का निर्माण करके चुनावी लाभ बटोरा जा सके. प्रदेश में बड़े पैमाने पर चर्चों पर धर्मांतरण के नाम पर हमले किए गए हैं. दलितों और अल्पसंख्यकों की रोजी-रोटी को सुनियोजित तरीके से निशाना बनाया गया है. यह सरकार आम जनता को जाति-धर्म-संप्रदाय के आधार पर विभाजित करने का खेल खेल रही है. यदि वे इसमें कामयाब हो जाते हैं, तो मेहनतकश जनता की पूरी लड़ाई पीछे चली जायेगी.

स्पष्ट है कि भाजपा सरकार की आर्थिक नीतियां प्रदेश को बर्बाद करने वाली तो हैं ही, उसकी आस्था धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय, समानता और भाईचारा जैसे संवैधानिक मूल्यों में भी नहीं है. इसलिए छत्तीसगढ़ में भाजपा का चौथी बार सत्ता में आना हमारे देश के संविधान, जनतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकारों के लिए भी खतरा साबित होगा.

इस पृष्ठभूमि में ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं. सवाल देश बचाने का है और देश तभी बचेगा, जब आम जनता निर्णायक रूप से देश को बर्बाद करने वाली नीतियों को ठुकरायें. इसीलिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी आम जनता से अपील करती है कि भाजपा और उसको मदद पहुंचाने वाली पार्टियों/गठजोड़ की हर हालत में पराजय सुनिश्चित करे. भाजपाविरोधी मतों के विभाजन से भाजपा को ही मदद मिलेगी. जोगी-बसपा गठबंधन और अन्य पार्टियां 'वोट कटाऊ' की भूमिका में है. वे भाजपा की सांप्रदायिक-फासीवादी नीतियों के खिलाफ भी चुप्पी साधे हुए हैं. अतः जरूरी है कि भाजपाविरोधी वोट उस पार्टी या प्रत्याशी के पक्ष में जाए, जो भाजपा और उसको मदद पहुंचाने वाली ताकतों को हरा सके, ताकि लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का गठन किया जा सके.

भाजपा की पराजय को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से ही माकपा ने 3 सीटों – लुंड्रा, भटगांव व कटघोरा - पर लड़ने का फैसला किया है. ये वे सीटें हैं, जहां माकपा पिछले एक दशक से आम जनता को लामबंद कर उसके वास्तविक मुद्दों पर मैदानी लड़ाई लड़ रही है और कांग्रेस-भाजपा के राजनैतिक-वैचारिक विकल्प के रूप में उभरकर सामने आई है. लगातार जनसंघर्षों को संगठित करने के जरिये ही माकपा ने यह प्रतिष्ठा अर्जित की है.

आईये, लुंड्रा विधानसभा क्षेत्र से माकपा प्रत्याशी श्रीमती मीना सिंह को, भटगांव से सुरेन्द्रलाल सिंह को और कटघोरा क्षेत्र से सपूरन कुलदीप को विजयी बनाएं, ताकि प्रदेश में नेता बदलने की लड़ाई को नीति बदलने के संघर्ष से भी जोड़ा जा सके. विधानसभा में माकपा के जुझारू साथियों की उपस्थिति से सड़कों पर आम मेहनतकश जनता की समस्याओं और मांगों पर चल रहे संघर्षों को और मजबूती मिलेगी.

आईये, भाजपा की पराजय सुनिश्चित करें. आईये, लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय और भाईचारे की रक्षा के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए अपने वोट का इस तरह प्रयोग करें कि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का गठन किया जा सके.

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