मुहब्बत की जंग ही असल जंग है जो जीते मुहब्बत की जंग वे ही सिकंदर और नफरत के कारोबार में मालामाल हर सौदागर का आखेर बेड़ा गर्क।
बॉलीवुड ने पाकिस्तान जीता है। हर मुहब्बत भरे दिल को जीता है।
पूरा कराची शहर और पूरा पाकिस्तान माफियाऔर गुंजडा राज के हवाले हैं।
मतलब समझ लीजिये।
पलाश विश्वास
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पाकिस्तान को हिंदुस्तान से मुहब्बत कुछ कम नहीं है चाहे हिंदुस्तान को पाकिस्तान से मुहबब्त हो ना हो। प्यारे अफजल या किसी भी पाकिस्तानी ड्रामे के साउंड ट्रेक को सुन लें उसपर हावी बॉलीवुड है।
बॉलीवुड ने पाकिस्तान जीता है। हर मुहब्बत भरे दिल को जीता है।
प्यारे अफजल का सबसे बड़ा सबक यही है।
सबक यह भी है कि जंग हम तीन लड़ चुके हैं और जंग अभी बाकी है। अब हमारे हुक्मरान सौदा फिर करेंगे कि कब नये सिरे से वक्त की नजाकत के मुताबिक फिर कोई कारगिल या फिर कोई फुल वार हो। फिर भी न हिंदुस्तान पाकिस्तान फतह कर सकता है और न पाकिस्तान भारत का कुछ उखाड़ सकता है।
फारुख अब्दुल्ला ने हाल में सही कहा है कि आतंक का मुकाबला राष्ट्र नहीं कर सकता। सही इसलिए कि राष्ट्र ही आतंकवादी पैदा करता है।
हमने हाल में तालिबान, अलकायदा और आइसिस की कुंडली बांची है। अमेरिका ने पैदा किये तमामो भस्मासुर और सारे सुदर्सन चक्र उनके सफाये के बदले उनकी हिफाजत में लगे हैं।
अमेरिका ने पैदा किये आइसिस तो इजराइल ने पाला पोसा। मौलिक संकट अफगानिस्तान में सोवियत हस्तक्षेप से शुरु हुआ बाकी तेल युद्ध है।
दरअसल नफरत और जंग के जरिये कोई मुल्क जीता नहीं जाता। हिंदुस्तान फतह करने के बावजूद सिकंदर को यह अहसास हुआ तो सर झुकाकर वापस लौटा।
सम्राट अशोक ने भी कलिंग जीता था और बाकी इतिहास है।
मुहब्बत की जंग ही असल जंग है जो जीते मुहब्बत की जंग वे सिकंदर और नफरत के कारोबार में मालामाल हर सौदागर का आखेर बेड़ा गर्क।
हमने प्यारे अफजल की चर्चा करना इसलिए जरूरी समझा कि इस पाकिस्तानी ड्रामा ने आंकों में उंगली डालकर बता दिया है कि कैसे शहर दर शहर, मुल्क दर मुल्क माफिया और गुंडों के हवाले है। जहां प्रशासन सिर्फ जनता पर हुकूमत के वास्ते है, जबकि बाकी सब कुछ माफिया राज के हवाले हैं।
गुंडों के लिए न कोई लाल या हरा सिगनल है न कोई दायरा। इसीलिए कत्लेआम और बलात्कार की यह सुनामी।
कानून सिर्फ जनता के दमन के लिए है गुंडों और माफिया के लिए कानून नहीं है। माफिया और गुंडे हुकूमत पैदा करती है।
वही सुपारी देती है और वही उन्हें पनाह देती है।
हुक्मउदूली जब उनसे हो जाती है, तब उन्हें मुठभेड़ में मार दिया जाता है और हुक्मुदूली नहीं होती और समीकरण बदल जाते हैं तो पैसे देकर सेफ कारीडोर से उन्हें किसी और मुल्क में भेज दिया जाता है।
यह हर मुल्क का असल किस्सा है।
मेज पर कराची का नक्शा है और पुराना डॉन नये डॉन बने प्यारे अफजल को उसका इलाका समझा रहा है। पुराने डॉन ने अपना और अफजाल का इलाका दिखाया तो नये डॉन ने बाकी इलाकों के बारे में पूछा तो जवाब मिला कि सारे इलाके बंटे हुए हैं, जहां किसी न किसी दादा, गुंडा और डॉन का राज है।
पूरा कराची शहर और पूरा पाकिस्तान माफिया और गुंडा राज के हवाले हैं।
मतलब समझ लीजिये।
किसी भी माध्यम और विधा की किसी भी रचना की परख हम सामाजिक यथार्थ की कसौटी पर करते हैं। उसी मुताबिक जरुरी हुआ तो उसकी चीड़फाड़ करते हैं अगर उसके संदर्भ और प्रसंग से हमारा समय किसी न किसी रुप में प्रभावित होता है।
हम इस महादेश के भूगोल और इतिहास की विरासत साझा मानते हैं और मजहब और सियासत के दायरे से बाहर जनसंस्कृति की जड़ों को टटोलते रहते हैं क्योंकि हम मसलों और मुद्दों को किसी सीमा में बांधकर देखने के अभ्यस्त नहीं है।
इस महादेश के सारे टुकड़ों की लोक विरासत में अपनी जड़ें खोजना हमारी आदत है।
इसलिए बांग्लादेश हो या पाकिस्तान, नेपाल हो या श्रीलंका, भूटान हो या म्यांमर या अफगानिस्तान -चीजों को हम अपनी नजर से परखते हैं तो विरासत की खुशबू को स्पर्श करने की कोशिश भी होती है।
इसलिए हम पाकिस्तानी ड्रामा के उतने ही शौकीन हैं जितने बांग्लादेशी साहित्य के या भारतीय फिल्मों के।
इस देश के बिखरे बंटे टुकड़ों को महसूस किये बिना हम मसलों और मुद्दों को संबोधित कर नहीं सकते।
बिना राष्ट्र के संरक्षण के कोई अपकर्म अपराध कर्म या आतंक की वारदात संभव है ही नहीं, असल किस्सा प्यारे अफजल का यही है, जिसमें भारत और पाकिस्तान की सरहद एकाकार है।
भारत में हम अक्सरहां फिल्में माफिया और गुंडाराज पर दिखाते हैं तो वहां हर वक्त वजह भ्रष्याचार बता दी जाती है और अंततः सत्यमेव जयते और नायक हमेशा जिंदा या मुर्दा जो हो जीवित हो तो मुहब्बत की जंग में सिकंदर। बाकी सब कुछ ठीक ठाक। हुकूमत और राष्ट्र व्यवस्था के अंतर्विरोधों की निर्मम चीरफाड़ नहीं है।
पाकिस्तानी ड्रामा प्यारे अफजल ने पाकिस्तान में कोहराम मचाया हुआ है और हाल में भारत में उसका प्रदर्शन भी काफी लोकप्रिय है।
वर्गीय दृष्टि से एकदम अलहदा प्रेमी प्रेमिका की प्रेम कहानी है जहां प्रेमी मरते दम तक कह नहीं पाता कि जो खत मुहब्बत के उसने खुद खुदको लिखे हैं बचपन से जवानी तक, वे उसी प्रेमिका को संबोधित है और बेपनाह मुहब्बत के बावजूद रईस प्रेमिका मौलवी के बेरोजगार गरीब बेटे से बुरा सलूक करती रहती है। जिस कारण वह कराची का सबसे बड़ा गुंडा बन जाता है।
यह ड्रामा इस बेपनाह मुहब्बत की बेचैनी और कारनामों का जखीरा है और इसे पेश भी किया गया है बिल्कुल उसीतरह। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कहानी को निपटाया गया है और इसके साथ साथ पाकिस्तान में अपराध तंत्र माफिया तंत्र को बेरहमी से एक्सपोज कर दिया गया है।
यह ड्रामा प्रेम का रसायनशास्त्र जितना है उससे कहीं ज्यादा सियासती मजहब और मजहबी सियासत का किस्सा है तो उसका भौतिकी शास्त्र भी है।
कराची और लाहौर के साथ साथ अक्सरहां कश्मीर की सरजमीं पर केंद्रित पाकिस्तानी ड्रामा भी विदेशी कथा और जीवन शैली से बेतरह उतना ही प्रभावित है जैसा कि हमारी फिल्में और सीरियल।
प्यारे अफजल लेकिन विशुध पाकिस्तान की देशी कथा है। एकदम देशी प्रेमकथा है, जैसे देहात भारत में अब भी मुहब्बत का इकरार करना मुशिकल होता है। जिंदगी रीत जाती है लेकिन जुबान पर मुहब्बत के अलफाज आते नहीं है और जबतलक आते हैं, दुनिया जहां बदल जाती हैं।
इस ड्रामा के प्रदर्शन के सिलसिले में पाकिस्तान और भारत में भी मुहब्बत की इस दास्तां पर खासा जोर दिया गया है कि कैसे मामूली से नौजवान ने अपनी महबूबा का दिल जीत लिया और उसे फिर कहना पड़ा कि सारे खत उसीने लिखे हैं।
फिर भी भारत पाकिस्तान रिश्ते की तरह यह मुहब्बतनामा लहूलुहान है। निर्देशक ने करिश्मा यह किया है कि इसमें आपराधिक राष्ट्र को बेनकाब नंगा कर दिया है।