मारे जायेंगें देश के आम नागरिक, नोटबंदी नहीं, यह मृत्यु महोत्सव है!
नोटबंदी नहीं, यह मृत्यु महोत्सव है!
मारे जायेंगें देश के आम नागरिक क्योंकि तमाम रंगबिरंगे अरबपति राजनेता मुक्तबाजार के कारिंदे हैं और उन्हें इस देश की जनता से कोई मुहब्बत नहीं है।
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पलाश विश्वास
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में नोटबंदी को क़ानूनन चलाई जा रही व्यवस्थित लूट की संज्ञा दी है।
डा.मनमोहन सिंह मुक्तबाजार के मौलिक ईश्वर हैं और अर्थशास्त्र वे हमसे बेहतर जानते हैं, भले ही कल्कि महाराज और उनकी अर्थक्रांति के बगुला विशेषज्ञ का अर्थशास्त्र उनसे बेहतर हो।
माननीय ओम थानवी ने कल फेसबुक पर टिप्पणी की है कि पुराना पाप उनका धुल गया है। लेकिन उनका पाप इतना बड़ा है कि तमाम ग्लेशियर पिघलकर गंगाजल बनकर भी उसे धो नहीं सकता। वे संसद में जो बोले, वह दरअसल मुक्तबाजार का व्याकरण है। जो सौ टका सही है।
दुनिया में सचमुच ऐसा कोई देश नहीं है जहां बैंक करदाताओं और ग्राहकों कोमना कर कर दें। भुगतान न कर पाने की स्थिति दिवालिया हो जाना है।

नोटबंदी ने भारतीय बैंकिंग प्रणाली को दिवालिया बना दिया है।
सिर्फ मनमोहन सिंह ही नहीं, तमाम रेटिंग एजंसियां विकास दर में कमी की आसंका जता चुके हैं। कृषि उत्पादन ठप है। औद्योगिक उत्पादन गिर रहा है। मुद्रा का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। अब बेदखल हुआ बाजार भी नोटबंदी की वजह से बंद है।
बाजार की गतिविधियां इसी तरह ठप रही और डिजिटल देश का नानडिजिटल बहुसंख्या जनता अगर उत्पादन प्रणाली, अर्थव्यवस्था और बाजार से बाहर कर दिये जाये तो यह दिनदहाड़े डकैती नहीं है। डकैती के बावजूद अर्थव्यवस्था, उत्पदन प्रणाली और बाजार की गतिविधियां ठप नहीं पड़ जाती।
देश के नागरिकों से उनकी क्रय क्षमता रातोंरात छीनकर कल्कि महाराज ने मुक्तबाजार को ही बाट लगा दी है और यह नोटबंदी मुक्त बाजार के व्याकरण के खिलाफ है।
डा.मनमोहन सिंह का कहना कुल मिलाकर यही है।
सारी बुनियादी सेवाएं और बुनियादी जरूरतें जब आपकी क्रय क्षमता से जुड़ी हैं तो वह क्रयक्षमता छिन जाने से आप हवा पानी भी खरीदने की हालत में नहीं हैं और राशन पानी दूर की कौड़ी है।

पूरा देश अब गैस त्रासदी के शिकंजे में है।
एक मुश्त खेती, कारोबार और बाजार को ठप करने का एक ही नतीजा है और वह है मौत जिसका भुगतान बैंकों की नकदी प्रवाह की तरह आहिस्ते आहिस्ते होगा।
कतारों में खड़े कुछ लोगों को नकद भुगतान जरुर हो गया है, लेकिन जो अपने घरों में बीवी बच्चों, मां बाप बहन के साथ तिल-तिल तड़प-तड़प कर मरने को अभिशप्त हैं, उनकी लाशों की गिनती कभी नहीं होने वाली है।
पिछले सत्तर सालों से भारत के देहात में किसान सपरिवार इसी तरह मरते खपते रहे हैं और बाकी देश ने तनिको परवाह नहीं की।
आजादी के बाद से आदिवासियों की बेदखली जारी है। उनका कत्लेआम जारी है। प्राकृतिक संसाधनों की इस खुली लूट और सैन्य राष्ट्र के सलवा जुड़ुम का बाकी देश समर्थन करता है।
कश्मीर और मणिपुर में सैन्य शासन और दमन का भी राजनेता विरोध नहीं करते। न आदिवासियों, दलितों, पिछडो़ं, अल्पसंख्यकों और स्त्रियों के कत्लेआम की कोई परवाह है उन्हें, जब तक न वोटबैंक राजनीति इसके लिए उन्हें मजबूर न कर दें।

बिग बाजार कोई बैंक नहीं है। उसे बैंकिंग की इजाजत है। पेमेंट बैंकिंग अलग हो रही है। ईटेलिंग के अलावा अब कोई विकल्प बचा नहीं दिखता।
दूसरी ओर, चौतरफा खरीदारी के इस माहौल में भी आज पीएसयू बैंकों की पिटाई देखने को मिल रही है। निफ्टी का पीएसयू बैंक इंडेक्स 0.12 फीसदी की कमजोरी के साथ कोरोबार कर रहा है।
पेटीएम के अलावा नकदी कहीं नहीं है। ऐसे हालात में देहात और कस्बों से लेकर महानगरों तक किराना दुकानदारों से लेकर फल वालों, रेहड़ी वालों, फुटपाथ वालों, हाकरों, सब्जी मछली वालों का सारा कारोबार अब शॉपिंग माल में चला गया है।
छह महीन तक नकदी का संकट नहीं सुलझा तो इनके पास कारोबार चलाने लायक पैसा भी नहीं बचेगा। खुदरा बाजार में कितने लोग हैं, कल्कि महाराज इसका कोई सर्वे करा लेते तो बेहतर होता।
एटीएम और बैंकों से लाशें बहुत कम निकलने वाली हैं जाहिर है।
खेत खलिहानों, कारखानों और खुदरा बाजार, चायबागानों से लाशों का जो जुलूस निकलने वाला है, उनमें नौकरीपेशा लाशें भी कम नहीं निकलेंगी। एकाधिकार पूंजी सारी नौकरियां का जायेंगी।

नोटबंदी नहीं, यह मृत्यु महोत्सव है।
अकेले बंगाल के 300 चाय बागानों के करीब पांच लाक मजदूरों को उनकी दिहाड़ी नहीं मिल रही है। खेत मजदूरों और असंगठित क्षेत्र के करोडो़ं लोग यकबयक बेरोजगार हो गये हैं और हाट बाजार में खुदरा दुकानदारों का कारोबार ठप हैं।
किसान न खेत जोत पा रहे हैं न बीज बो पा रहे हैं। फसल तैयार है तो उसे बेच भी नहीं पा रहे हैं।
अब आगे भुखमरी है जो मंदी की वजह से और भयंकर होगी। आटा चाल दाल तेल सबकुछ मंहगा हो रहा है और आय के सारे साधन खत्म हो रहे हैं।
लोगों के हाथ पांव तो एकमुश्त काट ही लिये गये हैं। उनके दिलोदिमाग और एक एक अंग प्रत्यंग बेदखल हैं।
अब वे सीना ठोंककर कहने लगे हैं कि वे डिजिटल इंडिया बना रहे हैं और नोटबंदी का मकसद दरअसल कैशलैस सोसाइटी है।

काला धन निकालने का मकसद वे खुद गलत बताने लगा है।
अपनी सिरजी आपदा को लंबे अरसे तक जारी रखकर वे एकाधिकार पूंजी के हवाले कर रहे हैं सब कुछ और आम जनता की तकलीफों, उनकी जिंदगी और मत की उन्हों कोई परवाह नहीं है।
अब 28 नवंबर को नोटबंदी के खिलाफ भारत बंद है। इस बारे में आदरणीय मोहन क्षोत्रिय की टिप्पणी लाजबाव है। उन्होने लिखा हैः
दुकान बंद हो जाती है तो लगता है भारत बंद है,
दुकान खुली रहती है तो लगता है भारत खुला हैl
बाबा को व्यापारी और व्यापारी को बाबा बनाने की नीति के बारे में सोचियेl
अब दुकानदारों को सोचना है कि भारत बंद रहेगा या खुलाl
भारत तो अब 8 नवंबर से बंद ही है। सारी जनता काम धंधा बंद करके एटीएम, बैंक से लेकर बिग बाजार के सामने कतारबद्ध है। एक एक करके उत्पादन इकाइयां बंद है। असंगठित क्षेत्र में नकदी के अभाव के चलते कोई काम नहीं है।
शॉपिंग माल के अलावा सारा खुदरा कारोबार मय किराना साग सब्जी फल मछली अनाज हाट बाजार राशन पानी घर का चूल्हा सारा कुछ बंद है और आम जनता इस तरह केसरिया फौज हैं कि उनकी तबीयत हरी हरी है।
सावन के अंधे को सारा कुछ हरा हरा नजर आता है। कहीं किसी प्रतिरोध की सुगबुगाहट नहीं है।
लोग कतार में खड़े-खड़े मर रहे हैं।
लाशें निकल रही हैं एटीएम और बैंकों से।
दुनिया में भारत पहला देश है जहां नकद जमा होने के बावजूद करदाताओं और ग्राहकों को धेला भी नहीं मिल रहा है।
रोज दिहाड़ी नहीं मिल रही है। चूल्हा सुलगाने के लिए दिल्ली दरबार से रोज नये फरमान जारी हो रहे हैं। रिजर्व बैंक के नियम रोज बदल रहे हैं।
सारे बैंकों और एटीएम पर नो कैश की तख्ती टंगी है और हाट बाजार के साथ साथ काम धंधे से लोग बेदखल हो रहे हैं।
जलजंगलजमीन नागरिकता से वे पहले ही बेदखल हैं।
कानून बदलकर पूंजीपतियों के तीस लाख करोड़ देश से बाहर निकालने के बाद नोट बंदी हुई है जिसकी गोपनीयता का आलम अब बेपर्दा है क्योंकि राष्ट्र के नाम वह ऐतिहासिक भाषण लाइव नहीं था। पहले से जो रिकार्डिंग की गय़ी थी, उस संबोधन की गोपनीयता की भी बलिहारी।
जिन क्षत्रपों ने राजनीतिक गोलबंदी के लिए पहल की है, कमसकम वे कल्कि महाराज के विकल्प नहीं है क्योंकि आम जनता को उनके कारनामे और तमाम किस्से मालूम है। वे अपने अपने हिस्से के कालाधन बचाने की जुगत लगा रहे हैं और कुल मिलाकर उन्हें शिकायत यही है कि संघियों और भाजपाइयों ने तो अपना कालाधन सफेद कर लिया, लेकिन उन्हें कोई मोहलत नहीं मिली है।
इसीलिए हिंदुत्व एजंडे के संघियों से भी बड़े झंडेवरदार शिवसेना के सारे अंग प्रत्यंग नोटबंदी के खिलाफ चीख पुकार मचाने लगे हैं।
इस राजनीतिक गोलबंदी से बदलेगा कुछ भी नही।
आधार परियोजना से लेकर तमाम आर्थिक सुधारों के नरमेधी अश्वमेधी अभियान के रंगबिरंगे सिपाहसालार एकजुट होकर आगामी चुनाव में सत्ता पर काबिज होने की जुगत लगा रहे हैं और यूपी पंजाब के चुनाव के बाद पता भी चल जायेगा कि इसका नतीजा क्याहोने वाला है।
1991 के बाद से लगातार हो रहे सत्ता परिवर्तन से लगातार आम जनता के सफाया का कार्यक्रम जारी है जो हर सत्ता बदल के बाद तेज से तेज होता जा रहा है, जो हिंदुत्व का विशुध पतंजलि ग्लोबल एजंडा है।
मुक्तबाजार के पहरुओं से जनांदोलन की उम्मीद लगाना बेवकूफी के अलावा कुछ नहीं है। ये तमाम लोग समता और न्याय के किलाफ रंगभेदी वर्ण वर्चस्व और अस्मिता गृहयुद्ध के महारथी हैं।
जनविद्रोह जो आजादी तक लगातार जारी रहा है, उसका सिलसिला भारत विभाजन के बाद थम गया है।
जमींदारियों और रियासतों के वारिशान ने सत्ता में साझेदारी के तहत देश के तमाम संसाधनों पर कब्जा कर लिया है और मिलजुलकर वे देश बेच रहे हैं।
हिस्सेदारी की लड़ाई बाकी है।
सलवा जुड़ुम के खिलाफ कोई नहीं बोल रहा है। फर्जी मुठभेडों के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा रहा है।
सैन्य दमन के पक्ष में हैं सारे के सारे और रंगभेदी युद्धोन्माद इन सभी का राष्ट्रवाद है क्योंकि वे अइपनी जमींदारी और रियासत बचाने में लगे हैं।
देश की राजनीति आम जनता के लिए ब्लैकहोल है।
यह सुरसामुखी राजनीति सबकुछ हजम कर जाने वाली है।
मारे जायेंगें देश के आम नागरिक क्योंकि तमाम रंगबिरंगे अरबपति राजनेता मुक्तबाजार के कारिंदे हैं और उन्हें इस देश की जनता से कोई मुहब्बत नहीं है।
जनसत्ता में हमारे पूर्व संपादक ओम थानवी के मुताबिक मोदी और उनके भक्त आपस में नोटबंदी "सर्वे" की बधाई बाँट रहे हैं, हक़ीक़त यह है कि लोग त्राहिमाम-त्राहिमाम कर उठे हैं। यह होना ही था। रिज़र्व बैंक की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 16.4 लाख करोड़ के नोट चलन में हैं। इनमें 38.6 प्रतिशत 1000 के नोट हैं, 47.8 प्रतिशत 500 के। अर्थात् देश की 86 प्रतिशत से ज़्यादा की मुद्रा को बग़ैर बदलवाए उसका 'धारक' इस्तेमाल नहीं कर सकता।
इसे किसी ने बेहतर उपमा यों दी है - आप अगर किसी के शरीर से 86 प्रतिशत ख़ून निकाल दें, तो उसका Multiple Organ Failure होना लाज़िमी है।
पर इस बात को देश के स्वनामधन्य "सर्जन" को कौन समझाए? उनके इर्द-गिर्द चापलूसों की भीड़ है, जैसे इंदिरा गांधी के गिर्द हुआ करती थी। ख़ासकर इमरजेंसी के "अनुशासन पर्व" के बाद।
राजनीति और राजनेताओं की साख के मद्देनजर ही हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने लिखा हैः

जस अम्बानी तस पेटीएम.
भाई पलाश! अभी गहराई से देखते रहो. राजनीतिक दलों की हाय तोबा तो अपने कालाधन पर खतरे के कारण है. कम से कम नोट्बन्दी के इस दर्द के सहते हुए भी आम जन के चेहरे पर उम्मीदों की लाली देख रहा हूँ क्या साम्यवाद या समाजवाद के झंडाबरदारों ने आम जनता में भीतर ही भीतर में पनप रहे इस आक्रोश को वाणी व देने का प्रयास किया.. हिन्दूवाद का घोर विरोधी होते हुए भी मैं अभी इस मामले में मोदी के साथ हूँ. ’अभी” शब्द पर भी ध्यान दें।
रौतेला जी! जुगाड़ और कथनी और करनी में अन्तर ही भारतीय संस्कृति की आत्मा है. यही उपनिषदों के तवत्तिष्ठति दशांगुलम का सार है.( वह उससे ( हर विधान से) दस अंगुल आगे है) मौका लगने पर हम भी कहाँ पीछे रहने वाले हैं. जनधन खातों में इक्कीस हजार करोड़ की माया आ गयी है. महाभारत है मित्र! जो जुए में पत्नी को भी दाँव पर लगा दे वह धर्मराज, जिसके लिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए नीति और अनीति में कोई फर्क ही न हो केवल गीता का उपदेश दे. जो नियम से चलने का प्रयास कर उस राम को १२ कलाओं का अवतार माना जाय और जो आज के अर्थों में चालू हो ( कृष्ण)वह १६ कलाओं का अवतार. सब लीला है.