मी टू का दूरगामी प्रभाव है

वीरेन्द्र जैन

जिस दिन मी टू आन्दोलन की खबर आयी थी मैं बहुत खुश था क्योंकि इससे मेरे ही एक विचार को बल मिला था। जब और लोग भी आपकी तरह सोचने लगते हैं तो आपको अपने विचार पर भरोसा बढता है।

यौन अपराधों की संख्या रिपोर्ट होने वाले अपराधों की संख्या से कई कई गुना अधिक होती है क्योंकि इसमें पीड़िता न केवल शारीरिक मानसिक चोट ही भुगतती है अपितु बदनामी भी उसी के हिस्से में आती है। यह ऐसा अपराध होता है जिसमें अपराधी को तो पौरुषवान समझा जाता है और पीड़िता को चरित्रहीन समझा जाता है। ऐसे अपराध से जुड़े पुरुष के लिए रिश्तों की कमी नहीं रहती जबकि निर्दोष पीड़िता से शादी करने के लिए कोई सुयोग्य तैयार नहीं होता। खबर सुनने वालों से लेकर प्रकरण दर्ज होने तक पुलिस, डाक्टर, वकील और अदालत से जुड़े अनेक लोग किसी पोर्न कथा का मजा लेते हैं। घर में बैठ कर अखबार में खबर पढने वाले भी इन्हीं कारणों से अधिक रुचि लेकर पढते हैं।

इस तरह की घटना से सम्बन्धित किसी विरोध जलूस में भी घर परिवार से जुड़ी लड़कियां या महिलाएं हिस्सा नहीं ले पातीं। बड़े शहरों में भी हास्टल में रहने वाली लड़कियां या एनजीओ व राजनीतिक दलों में काम करने वाली महिलाएं ही नजर आती हैं। अगर किसी को पता न चला हो तो पीड़िता और उसके माँ बाप भी दूरदृष्टि से बात को दबाने की कोशिश करते हैं।

यह अपराध आर्थिक सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं के प्रति अधिक होते हैं जिसका मतलब एक ओर उनकी आवाज न उठा पाने की कमजोरी तो दूसरी ओर आवाज उठाने पर दूसरे सामाजिक नुकसान की आशंका में उनको चुप रहने को मजबूर होना होता है। यह कमजोरी इसलिए है कि प्रभावकारी संख्या में पीड़िताएं एकजुट नहीं हो पातीं। इस पृष्ठभूमि में मेरा सुझाव था कि किसी एक तय दिन को दुनिया की सेलीब्रिटीज समेत सारी महिलाएं एक साथ अपने साथ हुए शोषण या उसके प्रयास का खुलासा करें जिससे किसी को हीनता बोध महसूस न हो और महिलाओं की व्यापक एकजुटता बने। इसके लिए मैंने 14 फरबरी का दिन सुनिश्चित करने का सुझाव दिया था जो वेलंटाइन डे होने के कारण पूर्व से ही चर्चित और सम्वेदनशील दिन होता है। मेरे प्रस्ताव पर तो किसी का ध्यान नहीं गया था किंतु समानांतर रूप से प्रारम्भ हुये मी टू कैम्पैन की खबर मुझे अच्छी लगी थी।

सामाजिक दोष है यह

हाल ही में हुए खुलासों में हमने देखा है कि सुशिक्षित और सक्रिय महिलाओं ने भी साहस जुटाने में कितने वर्ष लगा दिये। इसमें केवल सम्बन्धित व्यक्तियों का ही दोष नहीं है अपितु यह सामाजिक दोष है जिसे पूरे समाज को बदल कर ही ठीक किया जा सकता है। यदि हम सामूहिक खुलासे का एक दिन निश्चित करने में सफल होते हैं तो उस दिन पुरुषों को भी इस बात के लिए तैयार होना पड़ेगा कि वे अपने घर परिवार की महिलाओं द्वारा दबा दिये गये मामलों को सहानिभूति के साथ लेंगे और दोषी को क्षमा याचना या दण्ड तक पहुंचाने में सहयोगी बनेंगे। हमें अपनी उन पौराणिक कथाओं से जनित नैतिकिताओं का भी पुनर्मूल्यांकन करना होगा जिन कथाओं में पीड़ित महिलाओं को ही शपित या दण्डित होना पड़ा था। मी टू अभियान के बाद जितने बड़े पैमाने पर एक साथ खुलासे होंगे उसके बाद हमें यौन शुचिता के नये मापदण्ड बनाने होंगे। ह्रदय की पवित्रता और समर्पण को देह की पवित्रता से अधिक महत्व देने की मानसिकता का वातावरण बनाना होगा।

हम लोग सबसे अधिक दोहरे मापदण्डों वाले लोग होते हैं। इससे कुण्ठित रहते हुए सामाजिक फैसले करते हैं। सच तो यह है कि परिवार नियोजन से सम्बन्धित सामग्री की व्यापक उपलब्धता के बाद नारी गर्भ धारण की मजबूरी से मुक्त हुई है जिससे स्त्री पुरुष के बेच की ज़ेंडर असमानता कम हुयी है। अब वह समान रूप से शिक्षित है और लगभग हर वह काम करने में सक्षम है जो पुरुषों के लिए ही सुरक्षित माने जाते थे, किंतु यौन अपराधों का भय उसे अकेले बाहर निकलने, देर से न लौटने आदि मामलों में कमजोर बनाता है। इसका परिणाम यह होता है कि लड़कियां पढ़ती तो थीं किंतु अपनी पढ़ाई के अनुरूप समाज को योगदान नहीं दे पाती हैं। जैसे ही यौन अपराधों के अपराधियों को दण्ड और सामाजिक अपमान मिलने लगेगा वैसे ही अपराधों में कमी आयेगी। महिलाओं की शिक्षा भी बढेगी, रोजगार बढेगा।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से यौन सम्बन्धों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण फैसले भी आये हैं। ये फैसले उच्च स्तर पर सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाने वाले हैं। यह सही समय है जब यौन अपराधों में भी पीड़िता की लुकाछुपी द्वारा अपराधी को मदद मिलने का सिलसिला समाप्त हो।

अपराधियों की मदद करने वाले लोग समय की सीमा का सवाल उठा रहे हैं जो अनुचित है। जब कोई महिला अब सवाल उठा रही है तो परिस्तिथियां अनुकूल होने पर तब भी उठा सकती थी, किंतु तब परिस्तिथियां अनुकूल नही थीं। पौराणिक कथाएं भी कुछ संकेत देती हैं, हमारे देश का नाम जिस भरत के नाम पर भारत पड़ा बताया जाता है उसकी माँ शकुंतला भी न्याय मांगने दुष्यंत के पास तब गयी थी जब भरत इतना बड़ा हो गया था कि शेर के बच्चों के साथ खेलते हुए उनके दांत गिनने लगा था। तब दुष्यंत ने समय की शिकायत नहीं की थी, बस सबूत मांगा था।

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