सत्ता के कारिदों से बचें महाराज!
चुनाव जीतना हो तो दलितों और मुसलमानों को टोपी पहनाओ, बूमरैंग होगा यह फार्मूला।
हालत यह है कि थूकने पर जुर्माना है और मूत्रदान पर भी जुर्माना है, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान बहुत जल्द मूत्रदान अभियान में तब्दील होने वाला है और मंकी बातें सुनकर जनता को मतली होने लगेगी।
राजकाज से लिए सूचनातंत्र भी स्वच्छ और निरपेक्ष होना चाहिए। रंगदार मीडिया दागी चेहरों को भले ही उजला बना दें, भले ही सच को निरंतर छुपाता रहे, न लोकतंत्र उसके भरोसे चल सकता है और न राजकाज।
अखबारों के संपादक अब राजनीतिक दल तय करते हैं। बंगाल में 34 साल के वाम शासनकाल में डंके की चोट पर यह रिवाज चालू हो गया कि जो उपसंपादक बनने लायक नहीं है, जिसे खबर का अगवाड़ा पिछवाड़ा मालूम नो, न भाषा की तमीज हो और न न्यूजसेंस, ऐसे गदहे संपादक भी हम देखते रहे हैं।
फिर मीडिया में चूजे सप्लाई करने का दस्तूर अलग है। अनके लोग चूजे सप्लाई करते करते किंवदंती में तब्दील हैं तो अनेक संपादक तो बाकायदा चूजों के शौकीन हैं।
इसीलिए राजनीतिक कारिंदों की तरह काम कर रहे संपादकों की किरपा से पब्लिक कहीं ज्यादा बुरबक है। मुसलमान और दलित जरूरत से ज्यादा बुरबक समझे जाते हैं।
शारदा चिटफंड का मामला रफा-दफा है और इस प्रकरण में अब तक गिरफ्तार लोगों ने जिन्हें आरोपों की गर्फत में ज्यादा निशाना बनाया, बंगाल का मीडिया उन्हें अब ममता बनर्जी का विकल्प बनाने लगा है।
उनने कुछ नाराज मौलवियों को साथ नत्थी कर लिया है और दीदी से पहले धुंआधार इफ्तार पार्टी भी कर दी है, जिसमें दाढ़ी वाले खूब नजर आये तो जोर-शोर से प्रचार होने लगा कि दीदी की जीत आसान नहीं है और टूटने लगा है ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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मुसलमान वोट बैंक।
हम दीदी के कामकाज राजकाज और राजनीति के प्रशंसक नहीं रहे कभी। लेकिन हम जानते हैं कि वामदलों के जड़ों से कट जाने के बाद, संघ परिवार के साथ गुपचुप समझौते की वजह से एक साथ दलितों, हिंदुओं और मुसलमानों के वोट बैंक साधने में फिलवक्त ममता बनर्जी की कोई सानी नहीं है।
गौरतलब है कि करीब दो दशकों तक सड़क की राजनीति करने की वजह से जनता की नब्ज समझने और भवनाएं भड़काने में वे संघ परिवार से कहीं आगे हैं। जिस वजह से बंगाल में कमल की फसल महामारी की शिकार है।
फिल्मी ग्लैमर का इस्तेमाल और बाजार का इस्तेमाल भी दीदी खूब कर रही हैं।
खास बात यह है कि ममता बनर्जी भूमि सुधार के लिए भले कुछ करें या न करें, लेकिन जमीन के हक हकूक के बारे में देश भर में सबसे मुखर नेता हैं मुख्यमंत्री बनने के बावजूद और इस मामले में वे निवेशकों की भी परवाह नहीं करतीं।
मसलन, तीस्ता जलविवाद में जिस तरह उत्तर बंगाल के किसानों के हितों के मुताबिक उनने अड़ियल रुख अपनाकर अपनी जड़ें मजबूत की हैं, वह समझने वाली बात है।
फिर सत्ता का विकेंद्रीकरण राजनीति में ममता बनर्जी करें या न करें, पार्टी में भले ही सारी सत्ता उनमें निहित हो, प्रशासन को जनता की पहुंच में बनाये रखने में वे कामरेड ज्योतिबसु के चरण चिन्हों पर चल रही हैं। खुद रात दिन दौड़ती हैं और साथ में मंत्रियों और अमलों को भी दूर दराज के इलाकों में हांक कर ले जाती हैं।
काम हो या न हो, काम करने का इरादा जताने में उनकी कोई सानी भी नहीं है।
जाहिर है कि हवा हवाई राजनीति और चुनावी समीकरणों के सहारे ममता बनर्जी को हराने की बातें जो कर रहे हैं, उनका कोई जनाधार कहीं नहीं रहा है।
मीडिया को सब मालूम है, लेकिन मीडिया के ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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अपने समीकरण हैं, अपने अपने हित अनेक हैं जो साधे जा रहे हैं।
नई दिल्ली में हमारे एक पुराने धर्मनिरपेक्ष साथी तो संघ परिवार के नये मुसलमान चेहरा बनते नजर आ रहे हैं। पत्रकारिता से उनने खूब कमा लिया और राजधानी पहुंचकर उनके संपर्क भी खूब सध गये हैं।
कोलकाता से यह करिश्मा एमजे अकबर और राजीव शुक्ला करके रास्ता दिखा चुके हैं। बिहार के चुनावों में उनकी खास भूमिका होनी है।
बिहार में अति दलितों का नया मसीहा पैदा करने का करिश्मा भी इसी मीडिया के होनहार करके दिखा चुके हैं।
हमारे वे साथी मंत्रियों के लेटर पैड लेकर चलने वाले रहे हैं और बहुत संभव है कि जैसे दलितों के सारे रामों का कायाकल्प हो गया ठहरा, वैसे वे भी हनुमान अवतार में बहुत जल्द प्रगट होने वाले हैं और बहुत संभव है कि वे बहुत जल्द केंद्र सरकार में एक और मुसलमान मंत्री बन जायेंगे।
मुसलमानों को, दलितों को और आदिवासियों को इस तरह मंत्री से संतरी बनाते हुए राजकाज मनुस्मृति का जारी है, लेकिन अब तक भला किसी का हुआ नहीं है और न आगे होने वाला है। पिछड़े फिर भी उतने बुरबक नहीं हैं और सवर्णों की तरह नेतृत्व में हैं। सत्ता की बागडोर संभाले हुए वे नव ब्राह्मणों में तब्दील हैं और ब्राह्मणों को किनारे किये हुए हैं। पुराने स्वयंसेवको का हाल यह कि खिंसियानी बिल्ली खंभा नोंचे।
सच्चर कमिटी की रपट से मुसलमानों ने बंगाल में वाम शासन का तख्ता पलट कर दिया, क्योंकि उनकी धर्मनिरपेक्षता का पाखंड खुला तमाशा है।
दीदी के राजकाज में नमाज अदायगी तो खूब हो रही है और इफ्तार पार्टी ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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की भी धूम है, लेकिन नजरुल इस्लाम जैसे लोग मुसलमानों को खूब बता चुके हैं कि उनके हिस्से में कैसे बाबाजी का ठुल्लू है।
वाम और कांग्रेस कार्यकर्ता इस हालात से कोई फायदा इसलिए नहीं उठा सकते कि इन दलों की जनता के बीच दो कौड़ी की साख नहीं हैं और न उनमें जनता के बीच जाने का जिगरा है।
मुसलमान तो फिर भी समझते हैं और मीडिया के समीकरण के मुताबिक वोट भी नहीं गेरने वाले हैं, यह बार- बार वे साबित कर चुके हैं और फतवों का भी उन पर वैसा असर अब होता नही है। लेकिन दलितों का मोहभंग होता नहीं है और दलित जनता हर हाल में भेड़ धंसान है। फिर भी लोग समझते हैं कि मुसलमानों का वोट बैंक दखल संभव है।
महाराष्ट्र में दलितों के सैकड़ों किस्म के संगठन, आंदोलन और राजनीतिक अराजनीतिक संगठन का कुल जमा रिजल्ट भीमशक्ति शिवशक्ति एकाकार है तो यूपी में बहन मायावती की बसपा भाजपा के आगे बेबस सी हैं।
बाकी दलितों के वोट मार कर लेने का भी रिवाज है। यूपी में तो कल तक वोट गेरने का हक ही नहीं था। दलित मार खायेगा, फिर मारने वालों के साथ खड़ा हो जायेगा। मुसलमान और आदिवासी इतने बुरबक भी नहीं हैं।
बंगाल के दलित तो सत्ता का साथ छोड़ते नहीं हैं कभी, वे महज बीस फीसद से कम आबादी हैं और आदिवासी महज सात फीसद। दलितों का सबसे बड़ा आंदोलन मतुआ अब हिंदुत्व के शिकंजे में है और उसका एक बड़ा धड़ा अब भी दीदी के साथ है।
वाम दलों और कांग्रेस के साथ कोई नहीं है और हवा ऐसी बनायी जा रही है कि वाम कांग्रेस गठबंधन से बंगाल में परिवर्तन का रथ उलटा दिया जायेगा।
क्योंकि मीडिया की खबर है कि तृणमूल कांग्रेस के महासचिव मुकुल रॉय अपनी एक अलग पार्टी बनाने की तैयारी में हैं और ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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इसकी जल्द ही घोषणा करेंगे।
बहरहाल यह दावा उनने नहीं, दावा उनके सहयोगी और पार्टी से बाहर किए गए नेता दीपक घोष ने किया है। मुकुल ने अपने पत्ते खोले ही नहीं है और बाकी सब कुछ कयास है। अंधेरे में तुक्का लगे तो लगे, हो जाये रामबाण, वरना तुक्का।
इस पूर्व केंद्रीय मंत्री ने इसकी पुष्टि करने से मना कर दिया।
यूं दीपक घोष ने बताया कि मसौदा तैयार हो चुका है और हम ईद के बाद चुनाव आयोग के समक्ष नई पार्टी के गठन के लिए दस्तावेज जमा करा देंगे।
वहीँ मुकुल रॉय ने घोष के इस बयान से अपना पल्ला झड़ते हुए कहा कि यह उनकी टिप्पणी निजी है और मुझे इस बारे में कुछ भी नहीं कहना है।
गैरतलब है कि कभी ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस में अहम् जगह रखने वाले रॉय को सभी पदों से हटा दिया गया है।
वहीँ करोड़ों रुपयों के चिट-फंड घोटाले में सीबीआई द्वारा पूछताछ किए जाने के बाद से उनकी स्थिति बहुत खराब चल रही है।
सीबीआई द्वारा तृणमूल के नेताओं से पूछताछ को पार्टी ने साजिश करार दिया था वहीँ रॉय ने पार्टी के खिलाफ जाकर जांच एजेंसी का सहयोग करने की बात कही थी।
यह भी समझने वाली बात है कि दीदी-मोदी, साथ-साथ हैं। अलग दुकान खोल लेने पर फिर सीबीआई जांच के तेवर क्या होंगे, समझना मुश्किल है।
जेएनयू पलट जड़ जमीन से कटे माकपा के ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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नये महासचिव भी अपने वफादार पुराने मीडिया कारिंदों के झांसे में आ गये हैं और उनके परस्पर विरोधी बयान से बाकी देश में जो होगा सो होगा, बंगाल के वाम कैडर वापसी के लिए कुछ भी नहीं करेंगे, यह तय है।
मुकुल राय का सांगठनिक करिश्मा ममता बनर्जी की लड़ाकू सड़की जमीन की राजनीति के चलते कामयाब रहा है और भरोसे के चलते दीदी ने उन्हें मौका भी खूब दिया है ,वरना उनकी राजनीतिक हैसियत क्या थी कि वे भारत के रेल मंत्री बन जाते।
ताजा खबर यह है कि बैरकपुर विधानसभा क्षेत्र के विधायक शीलभद्र व हल्दिया की विधायक सिउली साहा इन दिनों पार्टी से अलग-थलग चल रहे राज्यसभा सदस्य मुकुल रायके करीबी हैं।
गौरतलब है कि मुकुल राय की ओर से शनिवार को निजाम पैलेस में आयोजित की गई इफ्तार पार्टी में दोनों शामिल हुए थे।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मुकुल राय से निकटता व उनके इफ्तार पार्टी में शामिल होने के कारण दोनों को निलंबित किया गया है।
अब मुसलमान इतने बुरबक तो नहीं ही होगे कि मुकुल की अलग पार्टी बन जाने से यकबयक उन्हें ख्वाब आयेगा कि दीदी की हार तय है और वाम काग्रेस गठबंधन की सत्ता होगी।
कारपोरेट मीडिया को बहुत गुमान है, खासकर कुछ बड़बोले संपदकों और पत्रकारों को कि वे जनमत बदल देंगे। कांग्रेस ने जो उनका भरोसा किया, तो बेड़ा उनका कितना गर्क हुआ, वह ताजा इतिहास है।
मीडिया और सोशल मीडिया दखल करके संघ परिवार भी समझने लगा है कि मीडिया और उसके चमचमाते झूठ के सहारे अश्वमेध जारी रहेगा और शत प्रतिशत हिंदुत्व का का अखंड भारत ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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अब अमेरिका भी होगा।
अमेरिका से जो खबरें छन-छनकर आ रही हैं, हम साझा करते रहेंगे कि कैसे बाबी जिंदल का हाल है और कितने आगे पीछ हैं वे।
फिलहाल सारे दावेदारों के मुकाबले हालत उनकी पतली है।
स्वदेश में भी महाजिन्न के चमत्कार और चौसठ आसनों की कवायद से क्या गुलबहार है, फिर वहींच मीडिया एक अकेले ललित मोदी के हवाले से विशुद्धता के अंदरमहल के सारे परदे उटाने लगा है।
हालत यह है कि थूकने पर जुर्माना है और मूत्रदान पर भी जुर्माना है, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान बहुत जल्द मूत्रदान अभियान में तब्दील होने वाला है और मंकी बातें सुनकर जनता को मतली होने लगेगी।
राजकाज से लिए सूचनातंत्र भी स्वच्छ और निरपेक्ष होना चाहिए। रंगदार मीडिया दागी चेहरों को भले ही उजला बना दें, भले ही सच को निरंतर छुपाता रहे, न लोकतंत्र उसके भरोसे चल सकता है और न राजकाज।
चप्पुओं के मीडिया साम्राज्य में दलदासों के राजकाज से जैसे जनता को सच मालूम नहीं है, वैसे भी सच सरकार को भी मालूम नहीं हो सकता। झूठ के कारोबार में झूठ सच बन जाये तो सचमुच सच का जो खेल होता है, वह तानाशाही के दायरे से बाहर कभी भी फटने वाला ज्वालामुखी होता है।
प्रेस की आजादी छीनकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र का क्या हाल हुआ लोग भले भूल गये हैं, लेकिन कालिख पुते सेंसर किये अखबारी पन्नों में इंदिरा गांधी का इतिहास भी लिखा है, बहुत बेहतर हो कि महाजिन्न तो पढ़ें हीं, बाकी हमारे कामरेड भी देख लें। समाजवादी तो संभल भी न सकेंगे, यूपी में ऐसा बवाल है।
पलाश विश्वास