ए पोयट ए सिटी एंड ए फुटबालर - असली कोलकाता, गरीब और मेहनतकश कोलकाता, रोमांस और क्रांति के महानगर कोलकाता पर फोकस

मुकम्मल कविता रची है जोशी ने ए पोयट ए सिटी एंड ए फुटबालर में, जहां सामाजिक यथार्थ और निरंतर रचनात्मक सक्रियता की जिजीविषा मूल कथ्य है
जोशी जोसेफ हमारे प्रिय फिल्मकार और अभिन्न मित्र हैं। जोशी से हमारी मुलाकात कोलकाता में तब हुई जब राजीव कुमार की पहली फीचर फिल्म वसीयत की स्क्रिप्ट, डायलाग और स्क्रीनप्ले लिखने का काम कर रहा था मैं।
राजीव ने जोशी से हमारी मुलाकात करायी। चूंकि दोनों फिल्म डिवीजडन में नौकरी कर रहे थे और दोनों संतोषपुर में एक ही मकान में रह रहे थे, इसलिए बहुत जल्द जोशी हमारे मित्र बन गये।
जोशी को उसके चार वृत्त चित्रों के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के पुरस्कार मिले हैं। राजीव के साथ काम करते हुए जोशी ने मुझे अपनी पहली फीचर फिल्म इमेजिनरी लाइन का संवाद लिखने का काम सौंपा और संवाद लेखन के साथ साथ शूटिंग में मणिपुर के नगा इलाके में मैं उनके साथ रहा। इंफाल को नजदीक से देखा और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून का सर्वव्यापी प्रभाव को पूरे पूर्वोत्तर भारत में देखने का मुझे मौका मिला।
हम मैती बहुल लाकताक झील में भी शूटिंग कर रहे थे। मणिपुर के शास्त्रीय नृत्य, मार्शल आर्ट और रंगकर्म को मैंने जोशी के साथ ही देखा और समझा।
जोशी छोटी फिल्म बनाने के उस्ताद फिलमकार हैं। वह संवाद की ज्यादा जरुरत नहीं महसूस करते और बिंदास कहता है कि संवाद हो या न हो, सेल्युलाय़ड पर संवेदनाएं और माहौल पूरा होना चाहिए। हम जो नुक्कड़ फिल्म बनाने के लिए आनंद पटवर्धन से भी अपनी स्टाइल बदलने की अपील कर रहे हैं और फिल्मकारों से जनता की फ्लिम बनाने की अपील कर रहे हैं, उसे जोशी और राजीव कुमार दोनों ने खारिज कर दिया है।
मेरे भाई, प्रतिरोध के सिनेमा के सूत्रधार संजय जोशी भी इसके पक्ष में नहीं है।
इन तमाम लोगों से हमारी बहस चलती रही है।
इस बार जोशी ने मुझे अपनी 2014 में बनायी दो छोटी फिल्मों और एक लंबी फिल्म की डीवीडी भेजी है।
उसे देखने के बाद हम समझ पा रहे हैं कि जोशी क्यों विरोध कर रहे हैं। लंबी फिल्मों में संदर्भ और प्रसंग के साथ जो विषय विस्तार पूरे परिवेश और समग्र ब्यौरे के साथ संभव है, वह पांच दस मिनट की फिल्मों में संबव नहीं है।
दरअसल हमारा विरोध इन फिल्मों से है ही नहीं। जोशी खुद लंबी फिल्मों के साथ नियमित तौर पर लघु फिल्में बनाता रहा है और उसमें उसका कहा पूरी इंटेंसिटी के साथ अभिव्यक्त भी होती रही है।
पूर्वोत्तर में आफ्सपा हो या नागरिक जीवन में मुक्त बाजार और ग्लोबीकरण का असर हो या आम आदमी पर हावी फासीवादी राष्ट्रवाद का माहौल, जोशी की छोटी फिल्मों में बेहद प्रासंगिक तौर पर दर्ज है।
खास बात यह है कि जोशी ने फिल्म बनाने का प्रशिक्षण कहीं से लिया नहीं है। राजीव कुमार इसके विरपरीत पुणे फिल्म इंस्टीच्यूट होकर मणि कौल और कुमार साहनी के साथ बतौर सहायक निर्देशक काम कर चुके थे। राजीव का फिल्मों और रंगकर्म से छात्र जीवन से नाता रहा है। जबकि पुणे फिल्म इंस्टीच्यूट में दाखिले के इंटरव्यू से पहले जोशी ने कोई फिल्म ही नहीं देखी थी क्योंकि उसका गांव एक द्वीप है, जिसमें कोई सिनेमा हाल जाहिर है कि था नहीं। इसलिए वह पुणे फिल्म इंस्टीच्यूट में भर्ती भी नहीं हो सका।
राजीव और जोशी, ऋत्विक घटक से प्रेरित हैं लेकिन दोनों ने घटक के मेलोड्रामा से परहेज किया है और इसके बाजाय फोकस सामाजिक यथार्थ पर रखते हुए माध्यम और विधा की हर संभावना के दरवाजे खोले हैं।
जोशी की लंबी डाकुमेंटरी फिल्म ए पोयट ए सिटी एंड ए फुटबालर की समीक्षकों ने खूब सराहना की है। लेकिन यह फिल्म देखते हुए मुझे किसी एक फ्रेम में महसूस नहीं हुआ कि यह फिल्म कोई फीचर फिल्म नहीं है। फीचर फिल्म के सारे तत्व इस लंबे वृत्त चित्र में है, जो किसी भी बिंदु पर लाउड नहीं है।
एकदम कविता की तरह बनायी है यह फिल्म जोशी ने, जिसमें फ्रेम दर फ्रेम कविता की तरह बिंब संयोजन जहां हैं, वह कविता की तरह सामाजिक यथार्त परत दर परत खोलने की कोशिश भी है।
फिल्म का कवि बोहेमियन है, जैसा बहुत हद तक हमारे कवि गिरदा रहे हैं।
कवि गौतम सेन की कैंसर से जूझते हुए मौत 2013 में हो गयी और जोशी ने यह फिल्म 2014 में बना ली। इस फिल्म में जोशी ने गौतम के पीके बनर्जी पर बनी अधूरी फिल्म और उनकी दूसरी अधूरी फिल्म जंगल महल की क्लिपिंग्स का भी इस्तेमाल किया है।
गौतम सेन फिल्म डिवीजन के लिए पीके पर फिल्म बना रहे थे और जोशी फिल्म डिवीजन कोलकाता में डिप्टी डायरेक्टर जनरल हैं तो वे फिल्मकार की हैसियत से गौतम का संघर्ष भी जीते रहे हैं और कैंसर से तिल तिल मरते हुए लड़ते हुए कवि को जोशी ने बेहद नजदीक से देखा भी है।
कवि गौतम सेन के अंतर्जगत और आखिरी सांस तक लड़ते रहने की उसकी जिजीविषा को फुटबालर पीके बनर्जी की संघर्ष यात्रा से जोड़कर असली गरीब और मेहनतकश कोलकाता की रोजमर्रे की जिंदगी, उसके रोमांस, उसके विद्रोह और क्रांति के लिए उसकी छटपटाहट को उकेर कर जोशी ने दरअसल कोई फिल्म नहीं बनायी, यह सेल्युलाइड पर एक मुकम्मल कविता है।
गौरतलब है कि कैंसर से जूझते हुए गौतम सेन, पीके बनर्जी पर फिल्म बना रहे थे और यह फिल्म वे बना नहीं सके हैं। गौतम सेन की कविता के बजाये एक फिल्मकार की रचनात्मकता ज्यादा उभरी है और इस फिल्म को देखने के बाद मुझे कोई शक नहीं है कि परदे पर जिस फिल्मकार को जोशी ने नायक बनाया हुआ है, वह गौतम सेन तो नहीं है, खुद जोशी है। इसलिए फिल्म निर्माण की पूरी तकनीक, घूमते हुए कैमरे और बदलती हुई सोच की रचनात्मकता इतनी प्रामाणिक है।
जोशी पर अब तक मैंने अंग्रेजी में ही लिखा है। इमेजिनरी लाइन के संवाद लेखक बतौर मेरे फिल्मी अनुभव मैंने मणिपुर डायरी में हिंदी में हालांकि लिखा है। अब चूंकि हम जनता की फिल्म पर बहस चला रहे हैं तो जनभाषा हिंदी में यह सिलसिला शुरु हो , इस ताकीद से इस बार हिंदी में जोशी की फिल्मों पर लिख रहा हूं।
जोशी की यह फिल्म हमारे लिए बेहद मर्म को छूने वाला अनुभव साबित हुई। फिल्म का कवि गौतम सेन कहीं से भी यथार्थवादी कवि नहीं है और न नवारुण दा और वीरेनदा बोहेमियन रहे हैं कभी। लेकिन कैंसर से जूझते कवि की अखंड रचनात्मकता का जो समां जोशी ने बांधा है, उस कवि के कोई समाजिक सरोकार हो न हो, इस फिल्म में अपने सामाजिक सरोकार के कोलाज जोशी ने पेश किये, फ्रेम दर फ्रम मुझे नवारुणदा और वीरेनदा याद आते रहे तो गिरदा की याद तो आनी ही थी घुमक्कड़ी कवित्व के प्रसंग में।
जाहिर है कि यह आलेख प्रचलित अर्थों में कोई समीक्षा नहीं है। फिल्मों में मेरे और मेरे मित्रों के बीच चल रही बहस को साझा करने का प्रयास समझा जाये इसे ।
हमारे जिगरी दोस्त राजीव कुमार बेहद भद्र हैं। वह भी लाउड होना पसंद नहीं करता और बिना कुछ बताये बहते पानी में भी खून की नदी का अहसास जताने की कला उसके पास है। वह भी निरंतर सोचने वाला निर्देशक है लेकिन उसके साथ काम करने की पूरी स्वतंत्रता होती है। इसके विपरीत स्वभाव से राजीव की ही तरह भद्र जोशी फिल्म निर्माण के दौरान जितना सोचता है और कुछ न कुछ नया करने के लिहाज से पूरी पटकथा, संवाद और शाट में आखिरी वक्त तक फेरबदल करता है और इस सिलसिले में किसी की भी नहीं सुनता, उसके साथ काम करना नर्क जीने के बराबर है।
उसने स्क्रिप्टराइटर बतौर अपना कैरीयर की शुरुआत की और राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने के बाद ही लोगों ने उसे फिल्मकार माना, इसलिए स्क्रिप्ट वह खुद लिखता है और उसमें कोई हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करता।
इमेजिनेरी लाइन की स्क्रिप्ट और स्क्रीन प्ले वह रोज बदलता रहा और उसी मुताबिक मुझे नये सिरे से संवाद लिखने होते थे, उसकी चेतावनी को झेलते हुए कि संवाद न हो तो भी चलेगा, लेकिन संवाद वहीं होना चाहिए जो जरुरी हों, संप्रेषक हो और एक शब्द फालतू न हो। इस फिल्म में भी दो तिहाई हिस्से में जोशी ने अपने नायक गौतम सेन को कोई संवाद नहीं दिये हैं और अनंत मौन में उनके अंतर्जगत को उकेरा है।
शूटिंग के दौरान फ्रेम बनाते हुए अक्सरहां उसे संवाद और स्क्रिप्ट बदलने की खब्त है। इस पर तुर्रा यह कि पूरी यूनिट को आराम करने की छूट थी लेकिन हमें लगातार 24 घंटे, लागातार 36 घंटे हर फिल्म के साथ जुड़ा रहना था। संवाद ठीक है या नहीं निरंतर इसकी जांच करना था और उसे ठीक न लगे तो तुरंत बदलना था।
जोशी अदूर गोपाल कृष्णन के सहायक के बतौर काम कर चुका है। फिल्म निर्माण में वह अदूर की तरह ही पूरा डिक्टेटर है। डबिंग के वक्त भी हमें संवाद बदलने पड़े।
उस अनुभव के बाद हमें अहसास हो गया कि फिल्म निर्देशक की विधा है और फिल्म में कुछ करना है तो बतौर डायरेक्टर ही करना है और फिर मैंने किसी के लिए संवाद लेखन की हिम्मत नहीं की।
इस फिल्म का नायक दिवंगत कवि गौतम सेन फिल्म मेकर भी थे तो जोशी ने फिल्म में फिल्म निर्माण की पूरी प्रक्रिया भी साझा करने में कोताही नहीं की।
कवि और कैंसर मरीज और फिल्म निर्देशक की तिहरी स्थितियां इस फिल्म को बेहद जटिल बनाती है।
कवि और फिल्मकार के अंतर्जगत और उसके रचनाकर्म के माहौल को उसने बागाल के सबसे महान फुटबालर पीके बनर्जी के जीवन संघर्ष से जोड़कर इसे बहुआयामी बना दिया है।
ओलंपियन पीके बनर्जी का मशहूर वोकल टानिक कैंसर के खिलाफ कवि की जीजिविषा की पूंजी है जिसका विस्तार स्टेज एक से लेकर चार तक और कवि फिल्मकार की मृत्यु तक जोशी ने किया है और झूले कहीं नहीं है।
पीके और गौतम की जीवनगाथा के साथ साथ फुटबाल और कोलकाता की रोजमर्रे की जिंदगी, उसके रोमांस, उसके सहवास, उसके संघर्ष , उसके आंदोलन, शरणार्थी सैलाब और नक्सलवाद से लेकर जंगल महल तक का समामाजिक यथार्थ इस फिल्म में है जो कवि गौतम सेन का रचनाक्रम दरअसल है नहीं, वह विशुद्ध तौर पर फिल्मकार जोशी का आत्मकथ्य है।
बोहेमियन एक कवि को हमने भी बेहद नजदीकी से देखा है, जिसमें बोग की कोई लालसा न थी और उसकी घुमक्कड़ी से परत दर परत जुड़ा था सामाजिक यथार्थ जो जोशी की फिल्मों में छोटी हो या बड़ी, फीचर हो या वृत्तचित्र में निर्मम शर्त है।
ईमानदारी की बात तो यह है कि मैंने कभी कवि गौतम सेन को न देखा है और न जाना है और न उनकी कविताओं से मेरा कोई वास्ता रहा है। फिल्म में लगातार गौतम की कविताओं का सिलसिला है, जो मन की गहराइयों से निकलती तो हैं, लेकिन सामाजिक य़थार्थ से उसका कोई सरोकार नहीं है। ऐसी कविताएं मुझे नापसंद हैं।
पलाश विश्वास