मुकाबला अब मोदी बनाम राहुल कतई नहीं, निलेकणि और केजरीवाल है
मुकाबला अब मोदी बनाम राहुल कतई नहीं, निलेकणि और केजरीवाल है
खुद से टकराकर लहूलुहान हो रहे हैं हम सारे लोग
हिन्दी समाज की दिशाहीनता ही आज इस अनन्त वधस्थल की असली नींव, कॉरपोरेट कायाकल्प का यह वृहत् मीडिया खेल समझो भइये!
पलाश विश्वास
हिन्दी समाज में गृहयुद्ध का राजनीतिक मतलब बेहद संगीन है और हिन्दी समाज की दिशाहीनता ही आज इस अनन्त वधस्थल की असली नींव है। धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री अस्मिता का यह गृहयुद्ध हमारे सभी जरूरी मुद्दों को हाशिये पर धकेल रहा है और आपसी कटुता इस स्तर तक पहुँच रहा है कि विमर्श का माहौल ही खत्म हो रहा है।
हमारे प्राचीन साथी उर्मिलेश और प्राचीन परिचित उदय प्रकाश के बयानों का स्वागत है लेकिन इनके अलावा फेसबुक पर रचनाकारों, पत्रकारों, संस्कृतिकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, युवाजनों, छात्रों, महिलाओं, बुद्धिजीवियों और कर्मचारियों की फौजें लामबन्द हैं। बुनियादी मुद्दों पर बाकी लोगों की प्रतिक्रिया का बेसब्री से इंतजार है ताकि एक राष्ट्रव्यापी संवाद बदलाव के लिये शुरू किया जा सके। तमाशा देखने का मनोरंजक समय यह है नहीं, संसद और संसद के बाहर जो हो रहा है, उसके खतरनाक संकेत हैं। कॉरपोरेट राज का कायाकल्प हो रहा है। मामला अब नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी का कतई नहीं है। मामला सीधे तौर पर नंदन निलेकणि और अरविंद केजरीवाल का है, जो मनमोहन ईश्वर के अवसान के बाद कारपोरेट राज के नये ईश्वर बतौर सुनियोजित तरीके से स्थापित किये जा रहे हैं।
बायोमेट्रिक डिजिटल रोबोटिक समय में भारत अमेरिकी राजनय युद्ध की आड़ में तमाम समीकरण साधे जा रहे हैं। फर्जी प्रोफाइल की तरह फर्जी मुद्दों का बवण्डर खड़ा किया जा रहा है और असली मुद्दे सिरे से गायब हैं। वंचित तबकों की राजनीति का कॉरपोरेटीकरण हो रहा है। जनान्दोलनों का भी कॉरपोरेटीकरण अंतिम चरण है। सारे विमर्श कॉरपोरेट एजेण्डा के मुताबिक हैं। जागो भइया, जागो, सिंहद्वार पर दस्तक है भारी।जाग सको तो जाग जाओ भइया।
इसी बीच उत्तराखंड से अच्छी खबर है कि उत्तराखंड महिला मंच का सम्मेलन हो रहा है। उत्तराखंडी स्त्री विमर्श राजधानियों के विमर्श से उसी तरह भिन्न है जैसे अरुंधति राय, इरोम शर्मिला, सोनी सोरी, तमाम आदिवासी श्रमजीवी और पूर्वोत्तर की महिलाओं का विमर्श। हमें राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिरोधी सामाजिक शक्तियों के समन्वय का हरसम्भव प्रयास करना होगा अगर हम भारतीयजन गण और लोक गणराज्य भारत के प्रति किसी भी स्तर पर प्रतिबद्ध है। ऐसा करने के लिये सबसे पहले संवाद और विमर्श का उनमुक्त स्वतंत्र वातावरण बनना जरूरी है। फर्जी बवंडरों के तिलिस्म तोड़कर बाहर आना है। मौकापरस्त मेधा को जनसरोकार से जोड़कर सन्नाटा तोड़ना है। सड़क पर उतरना अब लगभग असंभव है। लेकिन संवाद और विमर्श की गुंजाइश अभी है। अभिव्यक्ति के सारे दरवाजे बन्द भी नहीं हुए हैं।माध्यमों को जनपक्षधरता के मकसद से इस्तेमाल करें तमाम समर्थ लोग तो यकीनन हम इस दुस्समय के मुकाबले खड़े हो सकते हैं।
असली मुद्दा यही है। वजूद का संकट है यह। हम लोग बाकायदा एक जादुई तिलिस्म में कैद हैं और हमें अहसास तक नहीं हैं। खुद से टकराकर लहूलुहान हो रहे हैं हम सारे लोग।
हस्तक्षेप पर खुरशीद के बहाने जो मेरी प्रतिक्रिया दर्ज हुई उस पर तनिक गौर कीजियेगा। लड़ाई धर्मनिरपेक्षता बनाम स्त्री अस्मिता कतई नहीं है। स्त्री अस्मिता के जागरण के बिना हम कहीं नहीं होते और धर्म निरपेक्षता स्त्री अस्मिता के बिना असम्भव है।


