मुक्तबाजारी सांढ़ संस्कृति में आम आदमी का मारा जाना तय, चाहे हत्यारे के मुखौटे का रंग कुछ भी हो
मुक्तबाजारी सांढ़ संस्कृति में आम आदमी का मारा जाना तय, चाहे हत्यारे के मुखौटे का रंग कुछ भी हो
भूमि अधिग्रहण कानून सिरे से बदलने की तैयारी वाम पहल माध्यमे, राजनीतिक सहमति से
पलाश विश्वास
हमने पहले भी लिखा है कि राजनीति जनता के खिलाफ लामबंद हो गयी है। मामूली पत्रकार हूं। इसलिए भाषा में तौल बराबर नहीं है। यह लामबंदी नहीं है। लामबंदी तो जनता की और पीड़ित पक्षों की हो सकती है, सत्ता पक्ष को लामबंदी की जरूरत नहीं होती क्योंकि वह दमनकारी है, उत्पीड़क और विध्वंसक भी। राजनीति दरअसल अपराधकर्मियों की तरह फिलवक्त गिरोहबंद हैं जनता के खिलाफ।जो राज्यतंत्र है और जो जनप्रतिनिधित्व का जलवा है,जो मुक्तबाजारी नवधनाढ्य मुक्तबाजारी सांढ़ संस्कृति है, उसमें आम आदमी का मारा जाना तय है चाहे हत्यारे के मुखौटे का रंग कुछ भी हो।
जैसा कि दस्तूर भी है, जैसा नागरिकता संविधान संशोधन कानून के वक्त हुआ, जैसा बायोमेट्रिक डिजिटल नागरिकता के लिए हुआ, जैसा अबाध निरंकुश मुक्त बाजार के हितों के मुताबिक होता है बार बार, कारपोरेट चंदा से चलने वाली राजनीति पारस्पारिक दोषारोपण और बेमिसाल नूरा कुश्ती के मध्य असंभव सहयोग के साथ भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर श्रम, खनन, पर्यावरण कानून और तमाम वित्तीय सुधार को अंजाम देने वाली है, जनता के साथ विश्वासघात की अटूट परंपरा का निर्वाह करते हुए।
ताजा खबर है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बीमा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) सीमा बढ़ाकर 49 प्रतिशत करने को आज मंजूरी दे दी लेकिन इसमें शर्त रखी गई है कि इनका प्रबंध नियंत्रण भारतीय प्रवर्तकों के हाथ में बना रहेगा।
आपको बता दें कि इससे पहले रेलवे व इंश्योरेंस में भी विदेशी निवेश को लेकर भाजपा बात आगे बढ़ा चुकी है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछली संप्रग सरकार के समय बनाये गये महत्वाकांक्षी भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने का संकेत देते हुए बुधवार को कहा कि वर्तमान कानून के चलते भूमि अधिग्रहण में बहुत समय लगेगा जिससे विकास कार्य प्रभावित होंगे। सड़क, राजमार्ग एवं जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी ने लोकसभा में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के नियंत्राणाधीन अनुदान की मांगों पर कहा कि अगले दो साल में प्रतिदिन औसतन 30 किमी राष्ट्रीय राजमार्गों निर्माण होगा। गडकरी ने कहा, 80 प्रतिशत भूमि अधिग्रहण के बिना किसी राजमार्ग परियोजना के लिए निविदा नहीं निकाली जायेगी। उन्होंने कहा कि यह कदम बुनियादी ढांचा विकास को तेज करने के लिए उठाया गया है। सरकार सभी मंजूरियोंवाली 300 परियोजनाओं का भंडार तैयार करना चाहती है। उन्होंने फिक्की द्वारा आयोजित पीपीपी शिखर सम्मेलन में यह जानकारी दी।
केसरिया कमल ब्रिगेड जो है सो है, लेकिन धर्म निरपेक्ष गैरकमलीय राज्यों की जो सरकारे हैं, उनकी पार्टियां कुछ कहें, लेकिन सुधारों के मामले में वे केंद्र का चोली दामन साथ निभा रहे हैं। डायरेक्ट टैक्स कोड, जीएसटी और सब्सिडी के साथ साथ एफडीआई और विनिवेश के हर संगीत कार्यक्रम में यह शास्त्रीय युगलबंदी दिख रही है।
मसलन दावा है कि भूमि सुधार कानून संशोधन, राहुल गांधी का ड्रीम रहा है जैसी कि यूपीए की तमाम योजनाएं नेहरु गांधी वंश से नत्थी हैं।
अब इसका क्या कहें कि वामपक्ष की एकमात्र बची खुची सरकार त्रिपुरा की युगल बंदी गुजरात सरकार के साथ है, जिनकी पहल पर भूमि अधिग्रहण संशोधन कारपोरेट उपक्रम है। इस पर तुर्रा यह कि राहुल गांधी के ड्रीम कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन के मुद्दे पर राजग सरकार को कांग्रेस शासित राज्यों की सुझावों के जरिए सहमति मिल गयी है। इसी बीच भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर रही केंद्र सरकार से गुजरात व त्रिपुरा ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के बनाए इस कानून को ही रद्दी की टोकरी में डालने और नया कानून बनाने को कहा है।
संसद में बजट और रेल बजट पेश हुए लगभग एक पखवाड़ा बीतने चला। संसद और संसद के बाहर हद से हद मूल्यवृद्धि पर चर्चा हो रही है। आर्थिक सुधारों के खिलाफ इसी एक पखवाड़े तो क्या पूरे तेईस साल से इस देश में खामोशी पसरी हुई है। जनगण को विकास कामसूत्र का पाठ देकर राजनीति का अनंत एटीएम चालू है। बजट सत्र है संसद का, लेकिन सरकार की आर्थिक नीतियों पर कोई बहस हुई नहीं है। बजट पर चर्चा महज रस्म अदायगी है जिसमें दिशा पूछी जा रही है और सत्याच्युत पक्ष अपने समय की चाशनी पेश करने में लगा है।
यह वह परिवेश है, वह निम्न दबाव क्षेत्र है, जिसमें सुनामी के इंगित हैं। संसद और संविधान को बायपास करके यहां तक कि मंत्रिमंडल तक की मंजूरी लिये बिना परिपत्र और शासनादेश के तहत एक के बाद एक सुधार लागू हो रहे हैं। मीडिया और कारपोरेट का समवेत हताशा के शोर से जनता को गलतफहमी हो गयी है कि केसरिया कारपोरेट सरकार शायद पूरी तरह बिजनेस फ्रेंडली नहीं है और शायद उसकी भी कुछ राजनीतिक बाध्यताएं हैं। भाषाई और अंग्रेजी मीडिया में सुधारों के गतिवेग से हड़कंप मचा हुआ है।
लोकिन विदेशी निवेशकों की अटल आस्था और सांढ़ संस्कृति की निरंकुशता पर गौर करें तो असलियत की कलई खुल जायेगी कि गला रेंतना जारी है लेकिन किसी को दर्द का तनिक अहसास नहीं है।
तेईस साल में ज्यादातर वक्त अल्पमत सरकारें सत्ता में रही हैं और नीतियों की निरंतरता जनसंहार सांढ़ संस्कृति की ही रही है।
जनता की आंखें अजीब प्रिज्म हैं जिसमें सत्ता इंद्रधनुष के सारे रंग अलग अलग दिखते हैं जो हकीकत में एक ही है।
केसरिया कारपोरेट सरकार के सत्ता में आते ही कारपोरेट लाबिइंग का सारेगामा भूमि अधिग्रहण कानून को खत्म करने का अलाप है। दलील यह है कि केंद्र सरकार को पिछले साल संप्रग सरकार द्वारा लागू भूमि अधिग्रहण कानून को निरस्त कर देना चाहिए और उसके बदले एक नया कानून लाना चाहिए ताकि सड़क, बंदरगाह और हवाई अड्डा जैसी बड़ी परियोजनाओं में वर्षों की देरी से बचा जा सके। इसे सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए एनडीए सरकार ने यूपीए सरकार के बहुचर्चित भूमि आधिग्रहण कानून में खासा बदलाव करने की योजना बनाई है। इसके लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मौजूदाकानून में तमाम चेंज करने का प्रस्ताव तैयार किया है।
बजट सत्र में पेश होने वाले भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक का आधार वे 19 सुझाव हैं जो राजस्व मंत्रियों के सम्मेलन में मिले थे। इन सुझावों को प्रधानमंत्री कार्यालय भेजा जा चुका है। इनमें एक सुझाव पीपीपी परियोजनाओं में 80 फीसद भू स्वामियों की सहमति को घटाकर 50 फीसद करने का है। एक अन्य सुझाव सामाजिक प्रभाव के आकलन संबंधी प्रावधान को केवल बड़ी परियोजनाओं पर ही लागू करने का है। दिल्ली, गोवा, हिमाचल और उत्तराखंड को बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर इतनी ही जमीन को खेती लायक बनाने वाले प्रावधान पर आपत्ति है। इन राज्यों का कहना है कि उनके यहां इस प्रावधान पर अमल संभव नहीं। कुछ राज्यों ने कानून के पिछली अवधि से लागू करने पर भी आपत्ति जाहिर की है। कई राज्यों ने कुछ प्रावधानों को और सख्त बनाने की भी बात कही है।
भूमि अधिग्रहण का मुद्दा लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। नोएडा से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के जबरदस्त आंदोलन हुए हैं। वित्त व प्रतिरक्षा मंत्री मशहूर कारपोरेट वकील अरुण जेटली ने भूमि अधिग्रहण कानून के बारे में कह दिया है कि किसानों को उनकी जमीन का उचित दाम मिले लेकिन कानून ऐसा भी न हो कि अधिग्रहण संभव ही न हो सके।
बिजनेस स्टैंडर्ड के मुताबिक फैसलों और नीतिगत पहल को चरितार्थ करने का कोई स्पष्ट खाका नहीं दिख रहा है। लेकिन इसका गौर से अध्ययन करने पर पता चलेगा कि वृहद नीति के दो संकेत ऐसे हैं, जिनसे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मोदी सरकार किस स्तर पर सोच रही है और आने वाले दिन में वह अपने प्रशासन के एजेंडे को कैसा आकार देगी। पहली, बड़े और व्यापक सुधार करने में सरकार की झिझक। मोदी सरकार से यह उम्मीद लगाई जा रही थी कि वह कामकाज संभालने के कुछ दिनों के भीतर ही बड़े आर्थिक सुधारों पर आगे बढ़ेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मोदी सरकार ने दो महीने में क्या किया और नरसिंह राव सरकार ने शुरुआती दो महीने में जो काम किया था उसकी तुलना करेंगे तो जमीन-आसमान का अंतर दिखेगा।
डॉ. भरत झुनझुनवाला ने दैनिक जागरण में लिखा है कि संभवत: राजग सरकार को चीन का मॉडल दिखता है। भूमि अधिग्रहण आसान होने से वहां बड़े प्रोजेक्टों को लागू करना आसान है। चीन में कृषि भूमि पर किसानों का मालिकाना हक होता है। इस भूमि को पहले स्थानीय सरकार अधिग्रहित करती है फिर किसानों के साथ वार्ता करके भूमि का मूल्य तय किया जाता है। कम से कम बाजार भाव के बराबर मूल्य दिया जाता है। जरूरत पड़ने पर बाजार भाव से 40 प्रतिशत अधिक भी दिया जाता है। इसके बाद सरकार द्वारा भूमि की नीलामी की जाती है। भूमि को दस गुना मूल्य तक बेचा जाता है। इस प्रक्रिया में स्थानीय सरकारें भारी लाभ कमाती हैं। इन सरकारों पर कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों का वर्चस्व होता है। अधिग्रहण के विरोध में किसानों के पास कानूनी संरक्षण शून्यप्राय हैं। असंतुष्ट होने पर किसान अदालत नहीं जा सकते।
झुनझुनवाला के मुताबिक यह प्रक्रिया किसान विरोधी है, जिससे उनमें भारी रोष व्याप्त है। वर्ष 2010 में चीन के 10 बड़े जनआंदोलनों में पांच भूमि अधिग्रहण के विरुद्ध थे। सुजाऊ शहर में किसानों ने टाउनहॉल पर जबरन कब्जा कर लिया। दो सप्ताह तक किसानों और पुलिस के बीच संघर्ष चला। इसके बाद पुलिस ने इन्हें जबरन निकाल दिया। शीजियांग शहर में अधिग्रहण के विरोध में किसान बीजिंग जाने को उतारू हुए, लेकिन पुलिस ने नाकेबंदी करके उन्हें रोक दिया। बस ड्राइवरों को धमकाया गया। तब किसान 50 किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे रास्ते से बीजिंग जाने को निकले। पुलिस ने 30 गाड़ियां भेजकर पुन: इन्हें रोका और इन्हें टाउनहॉल ले आए। यहां किसानों ने उत्पात किया और टाउनहॉल और 18 पुलिस कारों की तोड़फोड़ की।


