मुजफ्फरनगर : गन्ने की मिठास की जगह सांप्रदायिकता का जहर
मुजफ्फरनगर : गन्ने की मिठास की जगह सांप्रदायिकता का जहर
मुजफ्फरनगर दंगे और नागरिक समाज
मुजफ्फरनगर की फिजाओं में गन्ने की मिठास की जगह सांप्रदायिकता का
जो जहर तैर रहा है, उसे कैसे खत्म किया जाये?
सलीम अख्तर सिद्दीकी
मुजफ्फरनगर और उसके आसपास के क्षेत्र में हुये दंगों को एक महीने से ज्यादा हो चला है। वक्त के साथ खेतों में खड़ी गन्ने की फसल भी बड़ी हो गयी है। गन्ने की लहलाहती जो फसल लोगों को मिठास का एहसास कराती थी, आज की तारीख में डराती ज्यादा है। लोग अपने अनुभव बताते हैं कि रात की बात तो दूर, दिन में भी गन्ने के खेतों के बीच से गुजरते वक्त हवा की वजह से र्इंख में थोड़ी-सी भी सरसराहाट होते ही इस आशंका से आदमी अपनी चाल तेज कर देता है कि कहीं कोई वहाँ से निकलकर उस पर वार न कर दे। यदि एक महीने से ज्यादा गुजरने के बाद भी इतनी दहशत कायम है, तो कहना पड़ता है कि विश्वास की डोर में जो गाँठें पड़ी हैं, वे अभी ढीली तक नहीं पड़ी हैं। सच बात तो यह है कि अविश्वास की इन गाँठों को ढीली करने या खोलने के लिये कोई भी ईमानदार कोशिश नहीं की गयी है। राजनीति की शतरंज की बिसात पर बिछे मोहरे उन्हें और ज्यादा मजबूत करने पर लगे हैं। जिन लोगों ने इन गाँठों को खोलने के प्रयास भी किये, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन गयी। मुजफ्फरनगर सहित मेरठ में कुछ सामाजिक संगठनों ने अमन पसन्द लोगों को जोड़ा। लेकिन हैरत हुयी कि अमन पसन्दों की संख्या सैकड़ा भी बमुश्किल पार कर पाई। कार्यक्रम खत्म होते-होते सुनने वाले कम बोलने वाले ज्यादा रह गये। दो दिन पहले ही जल पुरुष राजेंद्र सिंह मुजफ्फरनगर के दंगा प्रभावित क्षेत्रों में ‘आग पर जल’ डालने की कोशिश करते नजर आये, तो उनके साथ चंद लोग ही थे।
जल पुरुष जैसे लोगों को सुनने और समझने के लिये लोगों की भीड़ नहीं जुटती, लेकिन ‘संगीत सोमों’ और ‘कादिर राणाओं’ की एक आवाज पर लोग किसी पंचायत में मय हथियारों के जुट जाते हैं, तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है और राजनीति का एजेंडा कौन तय कर रहा है?
दंगा प्रभावित क्षेत्रों में जाने पर पता चलता है कि एक वर्ग इस बात से नाराज है कि बेकसूर लोगों को जेल भेजा जा रहा है। लेकिन जब उनसे प्रश्न किया जाता है कि फिर कसूरवार कौन हैं, तो अकल्पनीय जवाब आता है कि दंगाई ‘बाहर’ से आये थे, हमें नहीं पता कौन थे? नंगला मंदोड़ की पंचायत से लौट रहे लोगों पर हमला करने वाले भी बाहर के नहीं थे और कुटबा, लांक और बहावड़ी जैसे गाँवों में हिंसा करने वाले भी कहीं से और से नहीं आये थे।
कांधला के राहत शिविर में रह रहे 70 साल के बुजुर्ग को इस सवाल का जवाब आज तक नहीं मिला है कि ‘जिन बच्चों को हमने अपनी गोद में खिलाया, उन्होंने हमें क्यों बेघर कर दिया। हत्या, लूटमार और आगजनी करने वाले लोग यह कहकर कैसे बच सकते हैं कि दंगाई बाहर से आये थे।’
दंगा प्रभावित क्षेत्रों में वही लोग सक्रिय हैं, जिन पर परोक्ष या अपरोक्ष रूप से दंगा भड़काने का आरोप है। राजनीति के समीकरणों के चलते, वे वही कह और कर रहे हैं, जो उनके राजनीतिक हित में है। दुर्भाग्य से दोनों ही समुदाय के लोग उन्हें ही सुन भी रहे हैं। अभी अविश्वास की दीवार में थोड़ी-सी भी दरार नहीं पड़ी है, इसलिये राहत शिविरों में रह रहे हजारों लोग भी अपने गाँवों में जाने को तैयार नहीं हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर कब तक वे राहत शिविरों में रहते रहेंगे। वक्त के साथ राहत सामाग्री भी कम होती जायेगी, जो शुरू होना भी हो गयी है। उसके बाद क्या होगा? कौन किसको ज़िन्दगी भर ऐसे ही खिलाता है? जहाँ तक सरकारी इमदाद की बात है, तो सब जानते हैं कि उसे लेना कितना दुश्वार है?
शुरू में कुछ लोगों ने ऐलान किया था कि पीड़ितों को मुस्लिम बाहुल्य गाँवों में बसाने के लिये जमीनें दी जायेंगी। वक्त के साथ वे आवाजें कमजोर होती जा रही हैं। आज के युग में जब जमीन के दाम आसमान छू रहे हैं, जमीन के एक टुकड़े के लिये भाई, भाई की जान ले रहा है, तो कौन मुफ्त या बहुत कम पैसों में अपनी जमीन किसको देगा? सबसे जरूरी सवाल यह है कि मुजफ्फरनगर की फिजाओं में गन्ने की मिठास की जगह सांप्रदायिकता का जो जहर तैर रहा है, उसे कैसे खत्म किया जाये? इसको खत्म करने की जिम्मेदारी किसकी है? यदि कोई सोच रहा है कि राजनीतिक दल या प्रशासन इसे खत्म कर देगा, तो वह ख्वाबों की दुनिया में जीता है। इसकी जिम्मेदारी नागरिक समाज की है, जो दुर्भाग्य से सामने नहीं आना चाहता। दरअसल, नागरिक समाज डरता है। कोई जातिवाद का शिकार है, तो कोई राजनीतिक कारणों से चुप है। लेकिन वह वर्ग सबसे बड़ा है, जो ‘हमें क्या पड़ी है’ सोचकर मस्त है। एक वर्ग है, जो कमरों में बैठकर हालात पर अफसोस करता है, गोष्ठियों में लम्बा-चौड़ा भाषण देता है और अगले दिन अखबार में अपनी तस्वीर देखकर सोचता है कि उसने अपना फर्ज पूरा कर दिया। यदि आज भी र्इख के खेतों के पास से गुजरते हुये लोगों को दहशत होती है और हजारों लोग राहत शिविरों से जाना नहीं चाहते, तो यह उस नागरिक समाज की असफलता है, जो दिल्ली रेप काण्ड पर पूरे देश को हिला देता है। सरकार कानून बदलने के लिये मजबूर हो जाती है। दरअसल, सांप्रदायिकता के खिलाफ मुखर होना मुश्किल काम है बनिस्बत दिल्ली रेप काण्ड जैसे मुद्दे पर मुखर होने के। अभी भी देर नहीं हुयी, सरकार नागरिक समाज के धर्मनिरपेक्ष लोगों को साथ लेकर अविश्वास की गाँठें खोलने का काम करे।


