मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा- सपा “सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है”-रिहाई मंच की पूरी रिपोर्ट
भारतीय लोकतंत्र में सांप्रदायिक हिंसा राजनीतिक दलों के लिए आवश्यकता बन गई है
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा की चौथी बरसी पर सम्मेलन
'सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है'
लखनऊ। मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा की चौथी बरसी पर यूपी प्रेस क्लब लखनऊ में रिहाई मंच ने ‘सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है’ विषय पर सम्मेलन किया। इस अवसर पर 'सरकार दोषियों के साथ क्यों खड़ी है', रिपोर्ट जारी की गई। रिपोर्ट लंबी है, कई किस्तों में है।
पूरी रिपोर्ट निम्नवत् है
मेरा धर्म एक षड़यंत्र है
मेरा नमाज पढ़ना एक षड़यंत्र है
मेरा चुपचाप रहना एक षड़यंत्र है
मेरा सोने से जागना एक षड़यंत्र है
मेरा दोस्त बनाना एक षड़यंत्र है
मेरी अनभिज्ञता, मेरा पिछड़ापन एक षड़यंत्र है
जबकि दूसरी तरफ-
इसमें कोई षड़यंत्र नहीं है
मुझे शरणार्थी बना दिया जाए
जिस मुल्क में मैं पैदा हुआ हूं
इसमें कोई षड़यंत्र नहीं है कि
उन हवाओं को जहरीला बना दिया जाए
जिसमें मैं सांस लेता हूं
और जहां मैं रहता हूं
इसमें निश्चय ही कोई षड़यंत्र नहीं है कि
मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएं
और फिर एक अखण्ड भारत की कल्पना की जाए
- तेलुगू कवि खादर महिऊद्दीन
भारतीय लोकतंत्र में सांप्रदायिक हिंसा राजनीतिक दलों के लिए आवश्यकता बन गई है। वर्तमान समय में गाय वध सांप्रदायिक हिंसा का कारण है, परन्तु हिंदू महिला के साथ मुसलमानों द्वारा कथित बलात्कार और छेड़-छाड़ करने की घटनाएं भी लंबे समय से सांप्रदायिक हिंसा का कारण बनती रही हैं।
दादरी के अखलाक हत्या कांड के पीछे अगर गौ हत्या की झूठी कहानी गढ़े जाना एक षडयंत्र था तो वहीं मुजफ्फरनगर, फैजाबाद और अस्थान (प्रतापगढ़) की सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में हिंदू महिला के साथ मुसलमानों द्वारा कथित बलात्कार/छेड़छाड़ किए जाने के झूठे आरोप, लगाया जाना सांप्रदायिक हिंसा का षडयंत्रकारी आधार बना है।
गौहत्या और हिंदू महिला की इज्जत ऐसे भावुक मुद्दे हैं, जिन पर कहानियां गढ़कर और अफवाहें फैलवाकर सांप्रदायिक हिंसा कराई जाती है और राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा किया जाता है।
राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के लिए सांप्रदायिक हिंसा करवाते हैं और जब सत्ता हासिल कर लेते हैं, तब पीड़ितों को न्याय दिलाने का अपना राजधर्म निभाने से गुरेज करते हैं। अपने रचे षडयंत्रों के आधार पर सत्ता हासिल करने वाला राजनीतिक दल सत्ता हासिल करने के उपरांत कैसे अपने ही लोगों को कानून के दायरे में ला सकता है। उस समय उनका मकसद सांप्रदायिक हिंसा में लिप्त अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को बरी करना हो जाता है।
यह भी होता है कि दूसरे राजनीतिक दल के नेताओं और कार्यकताओं के विरुद्ध सत्तासीन राजनीतिक दल दोस्ताना रवैया अख्तियार कर लेता है और उन षडयंत्रकारी अपराधियों के विरुद्ध दर्ज हुए मामलों की निष्पक्ष विवेचना नहीं की जाती, जिसका लाभ अपराधियों को मिलता है। नतीजे में यह सवाल अनुत्तरित रह जाते कि दंगा किसका षडयंत्र था और उसमें कौन-कौन शामिल थे।
आज के राजनीतिक परिदृश्य में अगर हम इन राजनीतिक दलों को चोर-चोर मौसेरे भाई की संज्ञा दें तो कुछ भी गलत नहीं होगा। प्रबुद्ध नागरिकों का यह देश धर्म है कि वे ऐसे अनुत्तरित सवालों पर आवाज उठाएं और राजनीतिक दलों की उन महानुभावों को बेनकाब करें जिनकी षडयंत्रकारी भूमिका थी और साथ ही सत्ता में बैठे शासकों को भी उनका राजधर्म याद दिलाएं साथ ही जनता को भी आगाह करें कि लोकतंत्र में जब वे अपना शासक चुन रहे हों तब राजनीतिक व्यक्तियों की कारगुजारियों को भी अपने संज्ञान में लें।
आज का यह सम्मेलन इसी दिशा में एक कदम है।
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनेक जनहित याचिकाएं दाखिल हुईं।
सर्वोंच्च न्यायालय ने अपने आदेश दिनांक 26 मार्च 2014 में स्पष्ट रूप से यह माना है कि मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा को शुरू में ही रोकने में लापरवाही के लिए यूपी सरकार जिम्मेदार है। अगर खुफिया एजेंसियां समय रहते प्रशासन को सचेत कर देतीं तो शायद इन घटनाओं को रोका जा सकता था।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी लिखा कि आशा है सभी मामलों की निष्पक्ष विवेचना की जाएगी और सभी अपराधियों को गिरफ्तार किया जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय ने किसी दूसरी जांच एजेंसी से मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के मामलों की जांच कराने की मांग को ठुकरा दिया और राज्य सरकार में यह विश्वास व्यक्त किया कि निष्पक्ष जांच होगी। इसलिए राज्य सरकार का यह दायित्व बढ़ गया कि वो पूर्ण रूप से राज धर्म का पालन करते हुए निष्पक्ष जांच कराए और दोषियों को कानून के कटघरे में लाकर खड़ा करे और इस दायित्व का निर्ववहन करते समय राजनीतिक संबन्धों, कार्यकर्ताओं के प्रति उदारता आदि का कोई ख्याल न करे।
परंतु अफसोस कि ऐसा नहीं हुआ।
...... जारी

राज्य सरकार ने जस्टिस विष्णु सहाय कमीशन गठित किया, जिसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी। कमीशन का कई बार कार्यकाल बढ़ाया गया।
इस जांच कमीशन से आशा थी कि सत्य की खोज करते हुए यह बहुत से अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब जनता के सामने रखेगा। यह जांच कमीशन अपने न्यायिक मस्तिष्क का प्रयोग करते हुए स्वयं भी उन प्रश्नों पर जांच आगे बढ़ा सकता था मगर ऐसा नहीं हुआ।
विष्णु सहाय कमीशन प्रतीक्षा करता रहा कि लोग आएं और उसके सम्मुख अपने बयान दर्ज कराएं। जो सूचनाएं जिला प्रशासन के पास थीं वे भी विष्णु सहाय कमीशन को नहीं दी गईं। यह जांच कमीशन चंद प्रथम सूचना रिपोर्ट का ही संज्ञान ले सका।
सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हत्या, आगजनी और लूटपाट की जो घटनाएं हुई थीं उनके संबन्ध में पीड़ित व्यक्तियों द्वारा अपनी व्यक्तिगत प्रथम सूचना रिपोर्ट दज कराई गई थी। यह लोग वही कह सकते थे जैसा इन्होंने घटित होते हुए अपनी आंखों से देखा और भोगा।
कुछ पांच सौ से ज्यादा एफआईआर दर्ज हुई थीं। इन सभी में यह प्रश्न समान रूप से निहित था कि क्या सांप्रदायिक हिंसा एक षडयंत्र था? इतने बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक हिंसा जिसका प्रसार शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत जिलों तक था किसी एक साधारण घटना के कारण नहीं हुआ, बल्कि साम्प्रदायिक नफरत को आधार बनाकर सुनियोजित तरीके से इसे अंजाम दिया गया। 7 सितंबर 2013 से पहले घटित हुए कवाल कांड को हवा किन लोगों ने दी?
लड़कियों के साथ हुई छेड़छाड़ की मनगढ़ंत कहानी भाजपा के नेताओं ने तैयार की।
शाहनवाज की हत्या के संबन्ध में दर्ज मुकदमा अपराध संख्या 404/2013 और मृतक सचिन और गौरव की हत्याओं के संबन्ध में दर्ज रिपोर्ट मुकदमा अपराध संख्या 403/ 2013 में इसका कहीं उल्लेख नहीं है कि लड़की के साथ छेड़-छाड़ होने की वजह से विवाद हुआ था, बल्कि इसके उलट एफआईआर नंबर 403/2013 में उल्लेख किया गया कि घटना का कारण मोटर साइकिलों का टकराना था।
विवेचक द्वारा लड़कियों का बयान अन्तर्गत धारा 161 सीआरपीसी घटना के 15 दिन बाद रिकॉर्ड किया गया और ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि भाजपा और अन्य सांप्रदायिक संगठनों ने यह षडयंत्रकारी अफवाह फैलाई कि सचिन व गौरव की हत्या का कारण लड़की के साथ हुई छेड़-छाड़ थी और इसी आधार पर भाजपा, किसान यूनियन और उनके हमख्याल राजनीतिक संगठनों के कार्यकर्ताओं ने अपने नेताओं के इशारे पर इस अफवाह को सांप्रदायिक रंग देकर गांव-गांव में जहर घोल दिया।
यह एक ऐसा षड़यंत्र था जिसकी गहन निष्पक्ष विवेचना होनी चाहिए थी। अगर दलील के तौर पर इस तथ्य को स्वीकार कर भी लिया जाए कि किसी लड़की से कोई छेड़-छाड़ हुई थी, तो क्या कानून अपना काम करने में असमर्थ था? और क्या अपराधियों को सजा नहीं दिलवाई जा सकती थी? क्या उसके लिए आवश्यक था कि झूठी वीडियो क्लिप इंटरनेट पर अपलोड करवाकर वितरित की जाएं, पंचायतों का आयोजन कराया जाए और फिर हजारों लोगों की हिंसक भीड़ को नगला मंदौड़ की पंचायत में बुलाया जाए और वहां पर हिंदू बहन बेटी की इज्जत बचाओ का भावुक नारा देकर आम हिंदू जन मानस को मुसलमानों के विरुद्ध भड़काया जाना कहां तक उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह विधि सम्मत है?
भीड़ को भड़काकर उससे हिंसा कराना कहां तक जायज है?
इतना ही नहीं जिन नेताओं ने भाषण दिए उन्होंने राज्य के विरुद्ध भी काफी बुरा भला कहा और लोगों को राज्य के प्रति अविश्वास, घृणा, शासन व्यवस्था छिन्न-भिन्न करने आदि के लिए भी उकसाया, जिसके फलस्वरुप सांप्रदायिक हिंसा हुई। भारतीय कानून के अंतर्गत यह राज द्रोह है।
इस गंभीर अपराध की गहन विवेचना होनी चाहिए थी, लेकिन हैरत की बात है कि सत्ताधारी दल ने ऐसा कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, उल्टे अपराधियों को सुरक्षा मुहैया कराया और उनपर लगे रासुका को भी हटा लिया।
3 सितंबर 2013 को शामली में सांप्रदायिक हिंसा और 5 सितंबर 2013 को लिसाढ़ की पंचायत तथा बामनौली जनपद बागपत में हुई हिंसा क्या इसी षडयंत्र का एक भाग नहीं था?
शामली नगर में एक दलित लड़की के साथ कथित सामूहिक बलात्कार की घटना को नगर शामली में हिंदू बहू-बेटी की इज्जत पर हमला बताते हुए सांप्रदायिक जहर घोला गया। अभी कुछ माह पूर्व उसी लड़की ने सेशन कोर्ट मुजफ्फरनगर में अपना बयान दर्ज कराया कि उसके साथ बलात्कार की कोई घटना नहीं हुई और उसने बलात्कार की रिपोर्ट कुछ लोगों के दबाव में दर्ज कराई।
इस तरह हिंदू लड़की के साथ मुसलमान युवकों द्वारा बलात्कार करने की एक झूठी कहानी तैयार कराई गई और
.... जारी

कवाल की झूठी कहानी को जोड़कर, इन दोनों मामलों के आधार पर हिंदू जन मानस को सांप्रदायिक रूप से भड़काया गया।
इस मामले में ऐसा नहीं था कि अफवाह फैलाने वाले लोग अज्ञात थे। ये वो लोग हैं जो सांसद, विधायक और जाने-पहचाने राजनीतिक व कथित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इन्होंने आम जनता के बीच में भाषण दिए और पंचायतें बुलाईं। मीडिया में इनके बयान भी प्रकाशित हुए जिनका इन्होंने उसी समय खंडन नहीं किया।
संगीत सोम के फेसबुक एकाउंट पर जो वीडियो क्लिप डाऊनलोड की गई और शेयर की गई, उसने जंगल की आग का काम किया, क्या यह षडयंत्र का हिंस्सा नहीं था?
7 सितंबर 2013 को नगला मंदौड़ में जो महापंचायत बुलाई गई उसमें शामिल होने के लिए लोग हथियारों के साथ क्यों गए? उन्होंने रास्ते में जाते हुए भड़काऊ नारेबाजी, गाली गलौज और हिंसा शाहपुर थाना क्षेत्र में क्यों की? क्या यह षडयंत्र नहीं था?
नगला मंदौड़ पंचायत में जिन नेताओं ने भड़काऊ भाषड़ दिए उनके विरुद्ध अंतर्गत धारा 120 बी क्यों मुकदमा दर्ज नहीं किया गया?
लाशों का गायब होना-
ग्राम लिसाढ़ में 13 मुसलमानों का कत्ल हुआ जिसके संबन्ध में रिपोर्ट दर्ज कराई गई और चश्मदीद गवाहों ने अपनी गवाही दी।
गवाहों का कहना था कि उन्होंने कत्ल होते हुए और लाशों को गिरते हुए देखा परन्तु किसी भी व्यक्ति की लाश ग्राम लिसाढ़ में नहीं मिली। आखिर वह लाशें कहा गईं?
आश्चर्यजनक बात यह थी कि इन्हीं 13 व्यक्तियों में से 2 लाशें गांव लिसाढ़ से लगभग 70 किलो मीटर दूर जनपद बागपत की नहर से बरामद हुईं।
प्रश्न यह है कि वह लाशें वहा कैसे पहुंचीं? यह लाशें दंगाई व्यक्तियों द्वारा पुलिस के सहयोग के बिना नहीं फेंकी जा सकतीं। 11 लाशें अभी तक नहीं मिल सकी हैं।
ग्राम मीमला के जंगल में पांच मुस्लिम महिलाओं व पुरूषों की लाशें देखी गई थीं जिसके विषय में ग्रामीणों द्वारा पुलिस को सूचित किया गया। पुलिस आई परन्तु पंचनामा नहीं भरा और अगले दिन प्रातः यह लाशें बिना पंचनामा भरे पुलिस द्वारा हटा दी गईं। इन्हें कहां फेंका गया इसका कोई पता नहीं है। यह लाशें किसकी थीं, इसका भी पता नहीं चला है।
इसके अतिरिक्त ग्राम हड़ौली निवासी जुम्मा, ग्राम बहावड़ी निवासी शकील, ग्राम ताजपुर सिंभालका के अब्दुल हमीद की लाशें भी आजतक नहीं मिल सकीं। जिन्हें कत्ल करके दंगाईयों द्वारा सबूत मिटाने के उद्देश्य से गायब कर दिया गया। यह सब पुलिस की मिली-भगत के बिना संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त 15 व्यक्ति अभी तक गुमशुदा हैं जिनके सम्बन्ध में अभी तक कोई जानकारी नहीं है।
रिहाई मंच को आशंका है कि इनकी हत्याएं हो चुकी हैं और लाशें गायब कर दी गई हैं। लेकिन चूंकि लाशें नहीं मिली हैं, इसीलिए इनके परिजनों को मुआवजा नहीं मिला है।
साइलेंट वार:- जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि साम्प्रदायिक तत्वों द्वारा मुसलमानों को लक्ष्य कर के हिंसा 28 अगस्त 2013 से ही प्रारम्भ हो गई थी। कई गांवों में मस्जिदों और ईदगाहों पर हमले हुए जिनमें सम्पत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया। मुसलमानों को पीटा गया और घायल किया गया। जिसकी इस सम्बंध में कई रिपोर्ट दर्ज हैं। इन हमलों में तेजी 7 सितम्बर की पंचायत के बाद आई।
ग्राम वाजिदपुर, जनपद बागपत में मस्जिद में गोलियां चलाई गईं जिसमें दो लोग मारे गए और कई घायल हुए। अनेक हत्याएं ऐसी हैं जो 15 सितम्बर 2013 से दो-तीन माह बाद तक जारी रही हिंसा में हुईं। इनकी पृष्ठभूमि में पुरानी दुश्मनी नहीं थी बल्कि साम्प्रदायिकता थी।
ऐसे कई मामलों को हम विस्तार से यहां प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। यह ‘साइलेंट वार’ नाम मीडिया द्वारा ऐसी हत्याओं, लूटपाट और आगजनी की घटनाओं को दिया गया है। इन घटनाओं में कई कत्ल मुजफ्फरनगर शहर में हुए। बुढ़ाना थाना अन्तर्गत तिहरा हत्या कांड इसी की कड़ी है।
बागपत जनपद में थाना रमाला के ग्राम सूप में किरठल निवासी एक मुस्लिम स्कूल मास्टर की हत्या और ग्राम वेल्ली थाना बुढ़ाना में करीमुद्दीन की हत्या इसी कड़ी में है।
हत्याओं का यह सिलसिला जनपद मेरठ में भी जारी रहा जहां कई गावों में निर्दोष मुसलमानों की हत्याएं हुईं।
शाहपुर जनपद मुजफ्फरनगर में चांदपुर निवासी इरफान पुत्र मीर अहमद की हत्या हुई जिसे पुलिस द्वारा प्रेम प्रसंग में हुई हत्या बता दिया गया।..................जारी

सरकार द्वारा जिन हत्याओं को स्वीकार किया गया है वह आंकड़ा अलग है। ये हत्याएं ग्राम बहावड़ी, लाख, फुगाना, खरड़, कुटबा में हुईं। जिनकी संख्या 25 हैं।
बलात्कार व महिला उत्पीड़न के मामले:
केवल 6 महिलाओं द्वारा बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराई गई परंतु अनेक महिलाएं ऐसी भी थीं जो लोक लाज के कारण रिपोर्ट दर्ज नहीं करा सकीं।
इसके अलावा अनेक महिलाएं दंगें के दौरान दिनांक 7 सितम्बर और 8 सितम्बर को घायल हुईं और आगजनी में मारी गईं। जिनमें ग्राम हसनपुर मजरा लिसाढ़, डूंगर की महिलाएं शामिल हैं जिनको दफना दिया गया।
ग्राम करौंदा महाजन निवासी इसहाक की पुत्री का एक दर्दनाक मामला है।
दिनांक 7 सितम्बर 2013 को गांव से भागते समय दंगाईयों द्वारा इस गर्भवती महिला की बेरहमी से पिटाई की गई। यह महिला पति से विवाद के कारण अपने पिता के साथ ही गांव में रहती थी। इस महिला को कभी भी बच्चा पैदा हो सकता था परंतु चोटों के कारण पेट के अंदर ही जुड़वां बच्चों की मृत्यु हो गई।
महिला को राहत शिविर जौला लाया गया और 8/9 सितम्बर 2013 को बुढ़ाना के एक नर्सिंगहोम में मृत जुड़वा बच्चों को गर्भ से निकाला गया।
कत्ल के अनेक मामलों को ’सांप्रदायिक हिंसा’ के दौरान हुआ कत्ल नहीं माना गया-
सांप्रदायिक हिंसा के दौरान जहां लाशों को गायब किया गया वहीं कई मामले ऐसे भी सामने आए जिनमें कत्ल कर देने के बाद लाशों को अज्ञात लाश बताकर पुलिस द्वारा दफना दिया गया, और इन हत्याओं को सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हुआ कत्ल नहीं माना गया। यहां तक कि पुलिस विवेचक द्वारा झूठी