आतंकवादी हत्या के बाद अपनी पहचान के संकेत हत्या की जगह पर छोड़ देते हैं। मगर राजनीतिक हत्यारे बड़ी कुशलता से सारा इल्जाम भीड़ के सर मढ़ने का माहौल बनाते हैं और खुद हत्या से साफ़ बचकर निकल जाते हैं। दीमापुर में जो हुआ, वह कोई सामान्य जनआक्रोश की घटना नहीं थी बल्कि सोची समझी साजिश का नतीजा थी, जिसे सत्ता और प्रशासन की मदद से अंजाम दिया गया। पूरी घटना का विशद् विश्लेषण कर रहे हैं डॉ. अनिल पुष्कर। लेख लंबा है इसलिए दो किस्तों में... दूसरी किस्त..

दीमापुर- जनता को यह जानने का हक़ है कि इस दंगाई, खूनी और हिंसक राजनीति की जड़ें कहाँ हैं?
वह कौन सी राजनीतिक विचारधारा की प्रयोगशाला है जहां से साधारण घटनाओं को दंगे के आकार में ढाला जाता है।
जिस तरह यह घटना हुई है गौर से अगर देखें तो जनाक्रोश से कहीं ज्यादा अराजकता के अंश मिलेंगे। साम्प्रदायिकता के तत्व दिखेंगे, असामाजिक होने के सूत्र दिखाई देंगे। कुछ लोग कह सकते हैं कि अगर यह बात सच है तो फिर साम्प्रदायिक दंगा क्यों नहीं हुआ। अराजक लोगों ने भीड़ में घुसकर कोई और अहित क्यों नहीं किया? यह तो भीड़ के गुस्से का अंजाम था। मगर ये लोग यह भूल जाते हैं कि इसी मुल्क में रोज़ाना बलात्कार की घटनाएँ हर शहर में हो रही हैं और सबसे बड़ी बात कहीं भी मासूम बच्चियों के बलात्कार के बावजूद भी जनाक्रोश दिखाई नहीं दिया। फिर वो कौन से कारण हैं जिन्होंने भीड़ के भीतर इतना उबाल भर दिया जिससे लोगों ने एक मुलजिम को मुजरिम मानकर कानून को ताक पर रख दिया। भीड़ के भीतर एक ख़ास विचार को लेकर जज़्बात भड़काए गये। प्रायोजित तरीके से पूरी तैयारी के साथ हत्या की योजना एक ख़ास मकसद को पूरा करने की खातिर तैयार की गई थी।
कुछ इसी तरह का उपद्रव, हिंसा और दंगे की राजनीति बीते समय में मुजफ्फरनगर में हुई। जिसमें एक हिन्दू लड़की को छेड़ने के आरोपी मुसलमान शख्स को लड़की के परिवार वालों ने ही जान से मार डाला। इसके बाद इस घटना पर राजनीतिक रंग चढ़ा और साम्प्रदायिक दंगे की आग में मुजफ्फरनगर को झोंक दिया गया। यह दंगा भी एक बहुसंख्य समुदाय की आड़ में राजनीतिक प्रभावशाली लोगों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से किया गया था, जिसमें हजारों जानें गई थीं। सैकड़ों मजलूम मुसलमान परिवारों को घर छोडकर जाना पड़ा। इसे आप संभ्रांत भाषा में निर्वासन का दंश भी कह सकते हैं। यहाँ भी दहशत का पूरा कोप मुसलमानों ने झेला था। और जिस बहुसंख्य आबादी की बात की जा रही है, उसमें भी कमजोर पक्ष के लोग घर छोड़ने को मजबूर हुए थे। कुल मिलाकर यह घटना भी ताकतवर और कमजोर के बीच एक साम्प्रदायिक लड़ाई के रूप में उभरी थी।
आखिर जनता को यह जानने का हक़ है कि इस दंगाई, खूनी और हिंसक राजनीति की जड़ें कहाँ हैं? वह कौन सी राजनीतिक विचारधारा की प्रयोगशाला है जहां से साधारण घटनाओं को दंगे के आकार में ढाला जाता है। ये घटनाएँ साफ़ बताती हैं कि इतना सब हो जाना जनता को ही पीड़ा पहुंचाता है, बेघर होने का दंश झेलना कहीं सहज नहीं होता। कतई ये वीभत्स घटनाएँ याकि नरसंहार जनभावना याकि उसके आक्रोश से प्रेरित तो हरगिज़ नहीं है। इसके पीछे कोई राजनीतिक मंच और विचार का हथियार है ताकि लोगों में जनभावना के एकीकरण की बजाय साम्प्रदायिक भावना को भरा जा सके। उन्हें यथास्थिति से बाहर ले जाने की बजाय स्थिति को बेकाबू होने की दशा तक भड़काया जाता है। किसी भी साम्प्रदायिक विचार को लोकतंत्र में बोने वाले दल, दंगे की राजनीति करने वाले जनसेवक के भेष में हत्यारे होते हैं। उनका धर्म हत्या है। उनकी राजनीति नरसंहार पर टिकी हुई है। ये लोग धर्म को लड़ाकू बंकरों की तरह इस्तेमाल करते हैं। जनता इसमें अपनी जानें गँवाती है। राजनीति के सिपहसालार और हुकूमतपरस्त लोग हमेशा ही फायदे में रहते हैं। आम आदमी को इस भेदभाव की राजनीति उसकी असलियत को भी समझना होगा।
आप कहेंगे इन घटनाओं के बीच क्या समानता है? दरअसल हमें यह समझना चाहिए कि हर घटना में जहां साम्प्रदायिक दंगे हुए वहाँ ज्यादातर मामलों में अल्पसंख्य्क समुदाय को ही निशाना बनाया गया था और इस तरह की तमाम घटनाओं पर दंगाई राजनीति करने वाले दलों की नजरें लगातार बनी हुई हैं। दीमापुर में भी एक मुसलमान को ही हत्या के लिए ख़ास राजनीतिक मंशा से चुना गया। जनता को भड़काने के लिए हत्यारों को जिम्मेदारी सौंपी गई। कभी इस राजनीति में आपने यह देखा है कि हिन्दू लड़की का उसी समुदाय के द्वारा बलात्कार हुआ हो, जबकि ऐसी घटनाएँ लगभग रोजाना हो रही हैं। इसे लेकर दंगाई और साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों ने कभी हंगामा क्यों नहीं किया? जबकि ऐसा भी कई बार देखा गया कि पीड़ित पक्ष ने गुस्से में आरोपी की हत्या कर दी। चूंकि इसे साम्प्रदायिक मुद्दे में तब्दील नहीं किया जा सका। इसके पीछे भी एक ताकतवर राजनीतिक विचार काम करता है।
यहाँ यह साफ़ कर देना चाहिए कि हिन्दू लड़की के बलात्कार वाले मामले ऐसे हैं जिनमें ज्यादातर हिन्दू तबके के दबे-कुचले और दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी समुदाय की महिलाओं के मामले अत्यधिक संख्या में हैं और यहाँ पर जातीय संघर्ष होने की हर संभावना को राजनीतिक जरूरत के हिसाब से उपयोग में समय-समय पर उभारा भी गया। ऐसा भी हुआ कि कोई संभावना तलाशने की बजाय ऐसे मामले अक्सर दबाए जाते रहे हैं।
जबकि इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दू तबके से सम्बंधित महिला के साथ मुसलमान द्वारा बलात्कार या छेड़छाड़ के मामले में तुरंत यही राजनीतिक दल सक्रिय हो जाते हैं। इस बात से हमें यह समझना होगा कि मामला केवल बलात्कार का नहीं है। मामला महिलाओं की सुरक्षा का भी नहीं है। मामला देश के शर्मशार होने का भी नहीं है। मामला है बहुसंख्य तबके के भीतर छिपे ताकतवर समुदाय की राजनीति और उसके अस्तित्व के संकट और उसकी पहचान का। साथ ही उदारवादी विचारधारा की राजनीति करने वाले दलों की मंशा का भी सवाल है। ये दोनों इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझते हैं। केवल जनता ही इसे या तो नहीं समझती, या फिर समझने की कोशिश में भटकती रहती है। है। जनमानस में यह समझदारी फैलने न पाए। इस तरह की कोशिश हमेशा ही क्रूर राजनीतिक तन्त्र का हिस्सा रही है। फिर चाहे नेतृत्व हो या विपक्ष।
आखिर (उदार और कट्टर) दोनों तरह के राजनीति करने वालों ने महिला सुरक्षा को लेकर क्या ठोस राजनीतिक कदम उठाये? क्या ऐसे मामले रोकने के लिए लोकतंत्र, व्यवस्था में कोई गुंजाइश अभी बची है? इस सवाल को समझने के लिए हमें महिलाओं की सामाजिक स्थिति को समझना होगा। महिलाओं के सामाजिक सम्मान के रूप में राजनीतिक और सामाजिक दखल पर बात करने की सख्त जरूरत है। उन्हें ज्यादा से ज्यादा आर्थिक रूप से मजबूत करने के लिए स्वावलम्बी होने की जरूरत है। राजनीतिक भागेदारी में बराबरी का हक़ मिलने की जरूरत है। शैक्षिक संस्थानों में 50 प्रतिशत लड़कियों के लिए अनिवार्य उपस्थिति और आरक्षण की जरूरत है।
इन सभी बुनियादी सवालों से राजनीतिक दल हमेशा बचते आये हैं। उन्हें अल्पसंख्यक दलित और महिलाओं पर राजनीति तो करनी है मगर उनकी बेहतरी के लिए कोई सार्थक कदम न उठाया जा सके, यह प्रयास लगातार जारी है। जनता को माँग करनी चाहिए कि अधिक से अधिक महिलायें दलित-अल्पसंख्यक और आदिवासी बराबरी के हक़ को लेकर सचेत हों, संघर्ष करें। ज्यादा से ज्यादा संख्या में शिक्षित हों। हर क्षेत्र में आगे आयें। उन्हें सरकार से हर तरह का सहयोग मिले। उनका बौद्धिक स्तर अधिक मजबूत हो सके इसके लिए सामूहिक जागरूकता और शोषण से मुक्ति का आन्दोलन की सबसे ज्यादा जरूरत है।
बलात्कार तो सिर्फ एक कमजोर पक्ष के साथ होने वाली शारीरिक प्रताड़ना और आपराधिक घटना है। जिसके लिए न्याय में झोल ही झोल हैं। ये घटनाएँ महिलाओं के साथ तब नहीं रोकी जा सकतीं, जब तक महिलाएं अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर यह मांग नहीं उठातीं कि उन्हें हर क्षेत्र में बराबरी से हिस्सेदारी चाहिए। किसी भी मजबूत लोकतंत्र की सबसे ख़ास पहचान यही है कि वह लोगों के लिए कितना हितकर और समतामूलक व्यवस्था पर आधारित है। जहां सबके लिए न्याय और अधिकार बराबरी से मिल सकें। ऐसा न होने की दशा में दंगे, साम्प्रदायिक हिंसा, बलात्कार और शोषण से पीड़ित लोकतंत्र को लकवाग्रस्त और पंगु ही कहा जाएगा। ऐसे मुल्क जिनमें यह कमियाँ मौजूद हैं, जहाँ यह असमानताएं देखने को मिलती हैं वहाँ बलात्कार होना कोई अचरज की बात नहीं है।
क्या कोई ऐसा दंगा हुआ है जिसमें एक ही समुदाय के लोगों द्वारा बलात्कार हुआ हो और राज्य को दंगे का सामना करना पड़ा हो। क्यूंकि आन्दोलन किसी की हत्या की मांग तो कर सकता है मगर खुद किसी की हत्या नहीं कर सकता। वरना अब तक यह लोकतंत्र हर घटना पर हत्याओं का महासंग्राम बन चुका होता और लोकतंत्र होने से कहीं अधिक युद्ध की रणभूमि में तब्दील हो गया होता।
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अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)
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दीमापुर : साम्प्रदायिक ताकतों की शह पर केसरिया उन्माद का आतंक