न्यायमूर्ति विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय जांच आयोग
नेहा दाभाड़े
सितंबर 2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों की जांच के लिए न्यायमूर्ति विष्णु सहाय की अध्यक्षता में एक-सदस्यीय जांच आयोग गठित किया गया था। उत्तरप्रदेश सरकार ने सहाय आयोग की रपट, मार्च 2016 में विधानसभा के पटल पर रख दी। रपट में स्थानीय पुलिस की गुप्तचर शाखा को हिंसा रोकने में असफल रहने के लिए दोषी ठहराया गया है। रपट में प्रशासनिक अधिकारियों को भी कटघरे में खड़ा किया गया है परंतु यह आश्चर्यजनक है कि रपट किसी भी राजनैतिक दल की दंगों में भूमिका की चर्चा तक नहीं करती।
सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को आयोग ने क्लीनचिट दे दी है और दंगों को रोक पाने में असफलता के लिए उसकी सरकार को दोषी नहीं ठहराया है। रपट में भाजपा के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया है। ज्ञातव्य है कि दंगों के कारण हुए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से भाजपा, सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में लाभांवित होने की आशा कर रही थी और भाजपा नेता, साम्प्रदायिक तनाव भड़का रहे थे। रपट की अलग-अलग कारणों से निंदा की जा रही है। जहां राजनैतिक दल एक दूसरे पर उंगलियां उठा रहे हैं (भाजपा, समाजवादी पार्टी को हिंसा के लिए दोषी बता रही है और समाजवादी पार्टी, भाजपा को), वहीं हिंसा के शिकार हुए लोग चकित हैं कि किसी भी राजनैतिक दल को दंगों के लिए दोषी नहीं पाया गया।
यद्यपि पूरी रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है तथापि अखबारों में जो ख़बरें छपी हैं उनके अनुसार, आयोग ने जिला मजिस्ट्रेट और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के स्थानांतरण सहित, प्रशासनिक असफलता को दंगों के लिए दोषी बताया है।
मुज़फ्फरनगर में साम्प्रदायिक हिंसा के पहले के घटनाक्रम को सरसरी निगाह से देखने पर ही यह स्पष्ट हो जाता है कि आयोग ने राजनैतिक दलों की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया है। घटनाक्रम की शुरुआत 27 अगस्त, 2013
बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद को आतंकी संगठन घोषित करे सपा सरकार – रिहाई मंच
जाटों को भड़काने के लिए कई वक्ताओं ने यह कहा कि मुसलमान, जाट महिलाओं की इज्ज़त के लिए बड़ा खतरा हैं। ऐसा बताया जाता है कि महापंचायत में लगभग 40,000 व्यक्ति उपस्थित थे। कुछ लोगों के अनुसार, यह संख्या एक लाख से भी ज़्यादा थी। महापंचायत में भाग लेने के लिए जिले के विभिन्न हिस्सों से जाट, ट्रैक्टर-ट्रालियों में पहुंचे। वे तलवारों, लाठियों, बल्लमों, देसी कट्टों और अन्य हथियारों से लैस थे। यह कोई अचानक जुटी भीड़ नहीं थी बल्कि इसे जुटाया गया था। यहां पर ‘‘मुसलमानों के दो स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान’’ जैसे नारे लगाए गए, अत्यंत भड़काऊ भाषण दिए गए और कुत्तों को बुर्का पहनाकर उन्हें चप्पलों से पीटा गया। मंच पर भारतीय किसान यूनियन के नेता नरेश टिकेत व राकेश टिकेत, सभी खाप पंचायतों के मुखिया, भाजपा विधायक सुरेश राणा, संगीत सोम व कुंवर भरतेंदर सिंह, पूर्व लोकदल सांसद हरिन्दर सिंह मलिक, पूर्व भाजपा सांसद सोहनवीर सिंह, ज़िला सहकारी बैंक की अध्यक्ष वंदना वर्मा व संघ परिवार की नेता साध्वी प्राची मौजूद थीं। इन सभी लोगों ने अपने भाषणों में जाटों को मुसलमानों से बदला लेने के लिए उकसाया।
महापंचायत में भाग लेने के बाद लौट रहे जाटों पर कुछ मुसलमानों ने हमला किया, ऐसा आरोपित है। इसके बाद दंगें भड़क उठे, जिनमें 60 लोगों ने अपनी जाने गंवाईं और लगभग एक लाख को अपने घरबार छोड़कर भागना पड़ा। इन दंगों ने पूरे इलाके का जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक परिदृश्य ही बदल दिया। इसके पहले तक, इस इलाके में मुसलमान और जाट शांतिपूर्वक, मिलजुलकर रहते आए थे। अब मुसलमान या तो राहत शिविरों में रह रहे हैं या अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं, जहां उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी हासिल नहीं हैं। अधिकांश लोग अपने घर वापिस जाने को तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्हें यह भय है कि हमलावर, जो कि खुले घूम रहे हैं, उन पर फिर से हमला कर सकते हैं।
समाजवादी पार्टी अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती
महापंचायत में दिए गए भाषणों का संज्ञान न लेना, आयोग की कार्यपद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। आयोग स्थानीय गुप्तचर इकाई के इंस्पेक्टर प्रबल प्रताप सिंह को दोषी ठहराता है। आयोग का कहना है कि इंस्पेक्टर ने महापंचायत में भाग लेने वाले लोगों की संख्या के संबंध में ठीक आंकड़े प्रस्तुत नहीं किए। गुप्तचर रपट में यह कहा गया था कि कार्यक्रम में पंद्रह से बीस हजार लोग आएंगे जबकि वहां चालीस से पचास हजार लोग पहुंचे। महापंचायत में कितने लोगों ने भागीदारी की और पुलिस की गुप्तचर शाखा ने उनकी संख्या का सही अंदाज़ नहीं लगाया, इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि प्रशासन ने महापंचायत का आयोजन होने ही क्यों दिया। प्रशासन को यह अच्छी तरह ज्ञात था कि जाट गुस्साए हुए हैं और ऐसे में उनकी भारी, हथियारबंद भीड़ को इकट्ठा होने देना, एक भारी भूल थी। और इसके लिए समाजवादी पार्टी अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती।
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पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा ने ‘‘लव जिहाद’’ के मुद्दे का इस्तेमाल, समाज को साम्प्रदायिक दृष्टि से ध्रुवीकृत करने के लिए जमकर किया था। इससे उसे चुनाव में लाभ भी मिला और इससे भारत में दंगों की प्रकृति में मूलभूत परिवर्तन आया। दंगे, जो पहले मुख्यतः शहरी क्षेत्रों तक सीमित रहा करते थे, अब गांवों तक फैल गए हैं। दंगों की जांच के लिए नियुक्त आयोग ने जाटों को इकट्ठा करने के भाजपा और उसके साथी संगठनों के नेताओं के प्रयास और उसके परिणामों पर कोई टिप्पणी नहीं की। शाहनवाज़ का एक जाट युवती से प्रेम और उसके कारण उसके भाईयों की जान गंवाने की घटना ने ‘‘बेटी बहू बचाओ’’ आंदोलन को गति प्रदान की और पश्चिमी उत्तरप्रदेश और राज्य के अन्य हिस्सों में साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस अभियान की शुरुआत विश्व हिंदू परिषद ने की थी, जिसका यह दावा है कि मुस्लिम युवक, हिंदू महिलाओं को अपने प्रेमजाल में फंसाकर उनसे विवाह कर लेते हैं और बाद में इन युवतियों को मुसलमान बनाकर मुस्लिम आबादी में वृद्धि की जाती है। यह अभियान किसी व्यक्ति के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार पर हमला है। इस तरह के असंवैधानिक और संकीर्ण अभियानों का विरोध और निंदा की जानी चाहिए। आयोग ने ऐसा नहीं किया।
इस अभियान का प्रमुख लक्ष्य, मुस्लिम समुदाय का दानवीकरण करना और उन्हें जाट समुदाय के ‘‘सम्मान’’ के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करना है। इसके कारण दोनों समुदायों के बीच मधुर और मित्रवत संबंध समाप्त हो गए हैं और युवा पीढ़ी के लोगों में मेलजोल एकदम खत्म हो गया है। भाजपा ने इस हिंदू पहचान का निर्माण कर, वाल्मीकियों समेत, सभी हिंदू जातियों को मुसलमानों के खिलाफ लामबंद कर लिया है। उत्तरप्रदेश में दलितों की बड़ी आबादी है और वे चुनाव में बसपा का समर्थन करते आए हैं। इस विराट हिंदू पहचान का निर्माण कर, भाजपा, वाल्मीकियों को अपने साथ मिलाने और बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का प्रयास कर रही है। मूल रूप से ऊँची जातियों के वर्चस्व वाला संघ परिवार, देश के अन्य भागों की तरह, उत्तरप्रदेश में भी दलितों को मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है। इस तरह के ध्रुवीकरण से भाजपा को मई 2014 के आमचुनाव में उत्तरप्रदेश में बहुत लाभ हुआ। इस रपट के जारी होने से उसे उत्तरप्रदेश में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी लाभ होगा। यादवों के वर्चस्व वाली समाजवादी पार्टी को भी इस हिंसा से फायदा होने की उम्मीद है क्योंकि उसे ऐसा लगता है कि इससे पश्चिमी उत्तरप्रदेश के मुसलमान, जो कि आबादी का लगभग 40 प्रतिशत हैं, उससे जुड़ जाएंगे। शायद यही कारण है कि सरकार ने शांति समितियां या मोहल्ला समितियां बनाकर साम्प्रदायिक सौहार्द को पुनर्स्थापित करने और अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किए।
मुद्दा
क्या वाकई आप मुस्लिमों को जानते हैं?
इन तथ्यों के दृष्टिगत, यह आवश्यक है कि सरकार, दंगों की विश्वसनीय जांच करवाए जिससे सच सामने आ सके। समाज के बढ़ते साम्प्रदायिकीकरण के कारणों की पड़ताल भी की जानी चाहिए और सरकारी मशीनरी को धार्मिक पूर्वाग्रहों से मुक्त करने के प्रयास होने चाहिए। यह तब ही संभव है जब जांच में दंगों के लिए ज़िम्मेदार राजनैतिक दलों, जनप्रतिनिधियों और सरकारी अधिकारियों की पहचान की जाए। शासक समाजवादी पार्टी, इस संबंध में अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं भाग सकती। प्रशासनिक मशीनरी, चुने हुए जनप्रतिनिधियों के अधीन काम करती है। राजनैतिक पार्टियां और निर्वाचित जनप्रतिनिधि, देश के लोगों के प्रति ज़िम्मेदार हैं और जांच आयोगों को चाहिए कि वे यह सुनिश्चित करें कि जनप्रतिनिधि और राजनैतिक दल, अपनी ज़िम्मेदारियों का सजगता और निष्ठा से पालन करें। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
(लेखिका सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म, मुंबई की उपनिदेशक हैं)
बुद्धू बक्सा
प्रिय अर्णब गोस्वामी, क्या हाशिमपुरा 1984 और मुज़फ्फरनगर दंगे थे और गुजरात में दंगे नहीं थे ?