मुल्क सियासी मजहबी गुंडों के हवाले, जिनने देखा नहीं बंटवारा, अब वे भी देख लें
मुल्क सियासी मजहबी गुंडों के हवाले, जिनने देखा नहीं बंटवारा, अब वे भी देख लें
कि मुल्क सियासी मजहबी गुंडों के हवाले है
मुहब्बत साबित हो तो पत्थर भी पिघले हैं
हम वे गुनाहगार हैं, जो मुहब्बत साबित नहीं कर सकै हैं
मसले न हिंदू हैं और न मुसलमान
सारे मसले आर्थिक हैं
बाकी सब कुछ झांसा
नींद भर सोये, अब जाग जाग
तेरी गठरी में लागा चोर
मुसाफिर जाग जाग
कि आशियाना में लगी है आग
पानी भी सर से ऊपर है
धर्म बदलने से कयामत नहीं थमनेवाली
मसलों को धार्मिक जो बना रहे हैं
उनके खिलाफ जाग जाग
भगाना के दलित- माँगा इंसाफ, मिला इस्लाम!, यही है हिन्दू राष्ट्र?
भगाना के दलित- माँगा इंसाफ, मिला इस्लाम!, यही है हिन्दू राष्ट्र? धर्मपरिवर्तन दलित उत्पीड़न का हल नहीं है, दलितों को संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए
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आज जरा थमके बैठियो।
सबसे पहले, पढ़ लें हमारे खास दोस्त भंवर मेघवंशी को।
मेघवंशी पाकिस्तान में भी होते हैं।
ऐसा कल रात आनंद तेलतुंबड़े के साथ लंबी बातचीत के सिलसिले में मालूम हुआ है।
कराची और सिंध में होते हैं मेघवंशी। हिंदू मेघ और मुसलमां मेघ में फासला बेहद कम होता है। बीच में बस मोहनजोदड़ो और हड़प्पा है।
इस पार कच्छ है तो उस पार सिंध है। बीच में वीरान खण्डहर हैं रण के।
यकीन मानों तो देश का बंटवारा दरअसल हुआ नहीं है।
यकीन मानों तो दरअसल बंटवारा मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का हुआ है।
यकीन मानो चारों तरफ काफिरों का हुजुमोहुजुम से घिरे हैं हम, जो मजहबी हैं, दरअसल वे मजहबी नहीं है।
मुहब्बत के बिना दरअसल मजहब कोई होता नहीं है।
जिसे हम मजहब समझते हैं,
वह दरअसल नफरत का कारोबार है।
हम सारे लोग काफिरों की नफरत का नर्क जी रहे हैं, मुहब्बत दरअसल किसी को नहीं है। नहीं है।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा का बंटवारा हो गया जिस पल समझो उसी पल मुहब्बत का सिलसिला खत्म है और जो है वह है नफरत का जलजला बेहिसाब, बेइंतहा।
पनाह उस रब के दरवज्जे में भी नहीं है, जिसकी इबादत के बहाने सारे दंगे हम करै हैं।
भंवर का भंवर बूझ लें तो बाकी किस्सा साबित करने की भी जरुरत नहीं है।
तनिको खबरदार भी हो जायें हुजूर कम से कम आनंद और हमने कल रात तय पाया है कि अब हम न सोयेंगे और न किसी को सोने देंगे। सबकी नींद उजाड़ देंगे हम यकीनन।
सुबह उठकर सबसे पहले अमलेंदु को फोन लगाया और कह दिया कि जमकर बैठ जायें।
अब न कोई रियायत होगी और न कोई सियासत होगी।
बेपरवाह बेखौफ सच का ताना बाना बुनकर ही दम लेना है।
हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी या हो कोई दूसरी जुबां, जमकर फायरिंग करनी है और सियासती मजहबी गुंडों सा मुल्क फिर आजाद करना है।
बड़े मकसद के लिए यकीन भी बड़ा होना चाहिए।
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यकीन चाहिए कि जो दोस्त साथ नहीं हैं फिलहाल, वे देर सवेर हमारे साथ होंगे और हाथों में हाथ भी होंगे। लबों पर मुहब्बत तो हो।
बहुत खस्तेहाल हैं हम यकीनन, लेकिन बेदम अभी हुए नहीं यकीनन। हमने अपने खासमखास पट्ठे को कह भी दिया कि जो बदलाव का ख्वाब देखे हैं, वे भौत जीते भी नहीं हैं।
जैसे गुंडे भी जीते नहीं है अरसा तलक।
पहले वे खबर बनाते हैं।
फिर खबर बन जाते हैं।
वैसे मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि हमउ मिलिटेंट बानी।
आजादी की बात वही कर सकै हैं जो होइबे करै हैं मिलिटेंटवा बेहिसाब। हमने ही बाबासाहेब से संविधान रचवाया है।
बंगाल के महार नमोशूद्र अछूत के खानदान से हूं।
पूरी जात, पूरा खानदान जल जंगल जमीन के जोद्धा रहे हैं।
लुकाछुपी का फायदा कोई नहीं है।
नफरत के हेजेमनी को सब मालूम ठैरा और निशाना भी उनर बहुतै अचूक बा। हो न हो, हमउ खबर बनी किसी न किसी दिन।
अबहुं जौन वोटों का हिसाब जोड़े हैं, जात पांत मजहब पहचान वगैरह वगैरह सियासत जो जोड़े हैं, उनसे गुजारिश है कि दिल जिनका जल रहा हो, उनसे तनिको डरियो कि दिल में आग लगी हो तो नफरत की दुनिया खाक हो जाती है यकीनन। आग फिर दिल में लगी है।
उनसे भी गुजारिश है, जो गाहे बगाहे बुलाते हैं क्योंकि अब न दुआ का कोई मौका है और न किसी को सलाम कहना है।
इबादत का वक्त भी नहीं है यह।
बचपन से हमने भाषण बहुतै झाड़ै हैं। जिन्हें भाषण का शौक है, वे यूट्यूब पर हमसे हों मुखातिब, बाकी हम किसी जलसे में नहीं हैं।
मजहब भी आखिर मुहब्बत का दूसरा नाम है।
मजहबी जो हों सचमुच उसका नफरत से कोई काम नहीं है।
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उस मजहब को सलाम सलाम जो हो खालिस मुहब्बत का पैगाम।
सच्चा काफिर होने वास्ते बहुत जरुरी है कि कायदे से पहले मजहब को जान लें। कायदे सेसारे पाक किताब, कायदे कानून जान लें।
कोई कट्टर मजहबी हो तो शायद ऐतराज भी न होता।
अगर उसका दिलोदिमाग जहर का सिलसिला न होता।
कट्टर हों तो हुआ करें, दूसरे मजहब की भी इज्जत करें।
फिर न सियासत का यह जहरीला सिलसिला होता।
जिनने देखा नहीं बंटवारा, अब वे भी देख लें बंटवारा
कि मुल्क सियासती मजहबी गुंडों के हवाले है
मुहब्बत साबित हो तो पत्थर भी पिघले हैं
हम वे गुनाहगार हैं, जो मुहब्बत साबित नहीं कर सकै हैं
मसले न हिंदू हैं और न मुसलमान
सारे मसले आर्थिक हैं
बाकी सबकुछ झांसा
नींद भर सोये, अब जाग जाग
तेरी गठरी में लागा चोर
मुसाफिर जाग जाग
कि आशियाना में लगी है आग
पानी भी सर से ऊपर है
धर्म बदलने से कयामत नहीं थमनेवाली
मसलों को धार्मिक जो बना रहे हैं
उनके खिलाफ जाग जाग
आग दिल में जब लगी हो हमारे तब धुंआ हिंदी में निकरै है।
निगोड़ी हिंदी जुबां है दरअसल हमारी, मातृभाषा बांग्ला, तो क्या।
हिंदू नहीं हूं विशुध, पर हमउ पुरकश हिंदुस्तानी बानी।
भले उनके हिंदू राष्ट्र में हमारी कोई जगह हो न हो।
हम पहले से चेता रहे थे कि घर वापसी का खेल बहुतै खतरनाक बा।
देखियो कि कैसे बुमरैंग हुई जाय रै।
पंतगबाजी करनी हो तो पतंगबाजी की तमीजो चाहिए।
नागपुर में केसरिया और नीले के अलावा कोई रंग नहीं है।
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देश में जो हो रहा है, वह फिर नागपुर का सिलसिला है।
मुल्क की परवाह न केसरिया को है।
न मुल्क की परवाह नीले को है।
लाल का किस्सा खुल्लमखुल्ला है।
अब बाबासाहेब के नाम जो सियासती दुकान चलावै हैं वे तनिको सोच समझकर जवाब दें कि बाबासाहेब ने हिंदुत्व छोड़कर जो बौद्ध धर्म अपनाया है और उसी हिसाब से बाबासाहेब का बसाया है नागपुर तो नागपुर उतना नीला भी क्यों नहीं है और नागपुरो मा जमीन आसमान क्यों केसरिया हुआ करै हैं।
उन्हीं बाबासाहेब की दीक्षाभूमि के आसोपास सारे भूकंप के एपिसेंटर क्यों हुआ करे हैं, यह भी बतइयो।
महार आंदोलन की विरासत के धारकों वाहकों, जरा यह भी बताना कि जिस मनुस्मृति का दहन कर दिया बाबासाहेब ने, मुल्क अब उसी मनुस्मृति का खुल्ला बाजार क्यों बना है और क्यों आपके सारे राम हनुमान हुआ करै हैं।
महार आंदोलन की विरासत के धारकों वाहकों, जरा यह भी बताना कि जाति उन्मूलन का एजेंडा जो बाबासाहेब का सबकुछ है, उसको संघपरिवार की समरस रस में डुबोया किन किनने है और क्यों मुल्क की राजधानी बाबासाहेब के नीले नागपुर का केसरिया नागपुर है। क्यों मुल्क फिर केसरिया है, नीला क्यों नहीं है।
सवाल समझ में नहीं आया तो अपने भंवर को जरूर पढ़ लें। चूंकि आनंद तेलतुंबड़े को पढ़कर समझना हर किसी के बस में नहीं है।
हमउ तो खैर पढ़ उढ़कर फिन वही बुरबक बानी कि हम गुनाहगार हैं कि अपनी मुहब्बत हमउ साबित न कर सकै हैं।
भंवर के सवाल बहुत मौजूं हैं और बहुजनों को इसका जवाब देना है।
खासतौर पर उन्हें जो फिर बाबासाहेब के ख्वाबों को हकीकत में बदलने खातिर मुल्क फिर बौद्धमय बनाना चाहते हैं और दरअसल वे लोग फिर हिंदूराष्ट्र की पैदल सेनाएं हैं।
सवाल फिर वहीं है कि देश के किसी भी कोने में कोई आदिवासी, कोई दलित, कोई पिछड़ा इतना तन्हा-तन्हा क्यों हैं।
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बहुत शोर है मुसलमां बिरादरी का, तो फिर मुसलमां भी इतना तन्हा-तन्हा क्यों हैं।
माफ करें कि बेअदब हैं हम बहुत।
माफ करें कि बदतमीज भी हैं हम बहुत।
क्योंकि हमारा कोई रब नहीं है।
क्योंकि हमारा कोई रब नहीं है।
इंसानियत के मजहबके सिवाय।
मसलन जैसे हर सिख अब अकाली है।
जो अकाली नहीं है सियासत से, वह भी दिलोदिमाग से अकाली है।
बहुत खून बहा है, बह रहा है पंजाब में।
फिर बंटवारे की दहलीज पर है मुल्क, मुल्क के पहरेदार सिख फिर भी सो रहे हैं।
मसलन खुदा के असल बंदा कौन है, बंदी भी कौन है, कहना मुश्किल है। सारे मुसलमां होते तो सियासती मजहबू गुंडों ने इस कदर मुल्क को बांट न लिया होता और काफिरों के फतवे का जलजला नहीं होता यकीनन। कहना बहुत मुश्किल कि कौन काफिर है और कौन मुसलमां इन दिनों।
पांच वक्त नमाज से कोई मुसलमां भी नहीं होता।
फिर गुजारिश है कि बदबख्त हूं, माफ भी कर दें।
असल सच यही है कि जिसे हम मजहब मान रहे हैं वह सियासत है दरअसल। मजहब दिलों का कारोबार है।
मजहब मुहब्बत का समुंदर है जो है ही नहीं कहीं भी इन दिनों।
विदेशी उपनिवेश में खुल्ला बाजार में जब बिक रहा हो देश, जब गुप्तांग के नमूने देकर डीएनए प्राफाइलिंग करवाने को बेताब हैं लोग तो फिर क्या तो हिंदू क्या फिर मुसलमां।
विदेशी उपनिवेश में खुल्ला बाजार में जब बिक रहा हो देश, जब सियासत के दांतों में फंसा हो वह कारतूज, जिसमें गाय और सूअर की चर्बी हों एकमुश्त तो समझ लीजिये फिर फिजां उसी अठारह सौ सत्तावन है, लेकिन कोई बागी अभी जिंदा बचा नहीं है।
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वधस्थल का मजहब कोई बता दें तो जानें।
कातिलों के खूनी खंजर का कोई मजहब हो तो जानें।
बता दें कि भोपाल गैस त्रासदी, सिख नरसंहार, गुजारात कत्लेआम वगैरह वगैरह और फिर उस बेहद बदनाम बंटवारे का क्या मजहब है। जिसे आज भी हम फिर फिर दोहरा रहे हैं।
कातिलों के हाथ रंगे हों या नहीं, गौर से देख लीजिये, हमारे हाथों से चूं क्या रिया है हो। चूं रिया है तो समझ लीजिये कि चूं क्या रिया है।
तनिकों दिल पर हाथ रखकर सोचिये कि कैसा कैसा मजहब हम जी रहे हैं। हमार दिल में मुहब्बत भी है या नहीं है।
बाबासाहेब के नाम दुकान चलाने वालों, इस सवाल से बच नहीं सकते कि बहुजनों की सियासत और सत्ता की चाबी का इतना शोर हैं तो बाबासाहेब के मजहब के बदले दलित क्यों इस्लाम अपना रहे हैं जबकि इस हिंदू राष्ट्र में इस्लाम की कोई जगह भी नहीं है।
दलित होकर जो इंसान न हुआ करै हैं और डोर डंगरों की तरह मरे हैं, मुसलमां बनकर वे जिहादी करार दिये जायेंगे, उसी तरह जैसे कि सलूक मुसलमां के साथ हिंदू राष्ट्र में दस्तूर है।
हमें उन लोगों से सबसे सख्त नफरत हैं जो इस नाजुक घड़ी में मुल्क की न सोचकर किसी सूअरबाड़े की इबाजत में मजै हैं।
हमें उन लोगों से सबसे सख्त नफरत हैं जिन्हे न आवाम से कोई सरोकार है और न आवाम की कोई परवाह हो। रब वे भी होंगे, तो भी हमारे दिलोदिमाग में उकी कोई जगह नहीं है।
हम तब भी डरे हुए थे दोस्तों, जब 2020 तक मुल्क और 2030 तक पूरी दुनिया को हिंदू बनाने का ऐलान हो रहा था।
हम तब भी उन आदमखोर दरिंदा का चारा बन रहे थे, जिनके मुंह लहू लगा है और फिरभी वे मुहब्बत नही कर रहे, गोलियों की रासलीला रचाकर इंसानी गोस्त लहू चाखै हैं वे दरिंदे।
घर वापसी का एजेंडा बदस्तूर जारी है।
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हम डरे हुए हैं कि दलित जब फिर इस्लाम अपना रहे हैं तो रंजिशन क्या क्या कारनामे फिर अंजाम होगें।
हम डरे हुए हैं कि दलित तो मारे ही जाते हैं और मारे ही जाते हैं मुसलमां भी किसी न किसा बहाने, अब कातिलों को कोई और बहाना नहीं चाहिये क्योंकि इससे बेहतर बहाना कोई नहीं है कि दलित कलमा पढ़ने लगे हैं।
अब जो कहर बरपेगा, उससे बचियो।
हम डर रहै हैं कि इस हिंदू मुस्लिम फसाद में फिर दलित आदिवासी और पिछड़े वे सारे के सारे मारे जायेंगे जो सत्ता से कहीं न कहीं नत्थी भी नहीं हैं।
वे सारे अब जिहादी बना दिये जायेंगे।
हम डर रहे हैं कि मसले जब हिदू मुस्लिम बन जाये सिर्फ तो न मजहब के लिए कोई जगह है और न इबादत और दुआ सलाम की भी कोई गुंजाइश है।
क्योंकि जिसे हम मजहब समझ रहे हैं वह सियासत है।
वह सियासत फिर सुखी लाला का कारोबार है।
मसले सारे जब हिंदू मुस्लिम हो जाये, तो दंगे भी जरूरी हैं। दंगों का सिलसिला जो खत्म न हुआ करै है।
हम डर रहे हैं दंगों के उस सिलसिले के अंदेशे से जो हकीकत भी है।
हम गलत समझते थे कि बंटवारे का हिसाब किताब हो गया ठैरा.
असल बंटवारा अब शुरु हुआ है।
हम समझ रहे थे कि तब कत्लेआम खूब हुआ होगा।
मसले जब सिर्फ हो जाये हिंदू मुसलमां तो समझ लीजिये कि कत्ले आम तो अब शुरु ही हुआ है, जिसकी कोई इंतहा नहीं है।
जिनने देखा नहीं बंटवारा, अब वे भी देख लें बंटवारा
कि मुल्क सियासती मजहबी गुंडों के हवाले है
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मुहब्बत साबित हो तो पत्थर भी पिघले हैं
हम वे गुनाहगार हैं, जो मुहब्बत साबित नहीं कर सकै हैं
मसले न हिंदू हैं और न मुसलमान
सारे मसले आर्थिक हैं
बाकी सबकुछ झांसा
नींद भर सोये, अब जाग जाग
तेरी गठरी में लागा चोर
मुसाफिर जाग जाग
कि आशियाना में लगी है आग
पानी भी सर से ऊपर है
धर्म बदलने से कयामत नहीं थमनेवाली
मसलों को धार्मिक जो बना रहे हैं
उनके खिलाफ जाग जाग
भंवर ने लिखा हैः
धर्मपरिवर्तन दलित उत्पीड़न का हल नहीं है, दलितों को संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए
भगाना के दलितों ने ग्राम पंचायत के सरपंच से लेकर देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय तक हर जगह न्याय की गुहार लगायी, वे तहसीलदार के पास गए, उपखंड अधिकारी को अपनी पीड़ा से अवगत कराया, जिले के पुलिस अधीक्षक तथा जिला कलेक्टर को अर्जियां दी। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री से कई कई बार मिले। विभिन्न आयोगों, संस्थाओं एवं संगठनों के दरवाजों को खटखटाते रहे, दिल्ली में हर पार्टी के अलाकमानों के दरवाजों पर दस्तक दी मगर कहीं से इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं जगी। ….
भंवर ने लिखा हैः
हर स्तर पर, हर दिन वे लड़ते रहे, पहले उन्होंने घर छोड़ा, फिर गाँव छोड़ा, जिला और प्रदेश छोड़ा और अंततः थक हार कर धर्म को भी छोड़ गए, तब कहीं जाकर थोड़ी बहुत हलचल हुयी है, लेकिन अब भी उनकी समस्या के समाधान की बात नहीं हो रही है।
पलाश विश्वास


