गुस्से में है पर अंधा नहीं, संजीदा है मुसलमान
किस करवट बैठेगा मुसलमान?


अमलेन्दु उपाध्याय
उत्तर प्रदेश में शायद यह पहला ऐसा चुनाव है जिसमें कोई एक अहम मुद्दा नहीं है। हालांकि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की तरफ से मुद्दे बनाने की कोशिशें की गईं लेकिन मुद्दे बने नहीं। आजादी के बाद से हर चुनाव में मुख्य मुद्दा रहा ‘मुसलमान’ हालांकि इस बार भी मुद्दा तो है लेकिन इस बार उसके मुद्दे पिछले चुनावों से जुदा हैं। सूबे में मुस्लिम मतदाता बहुत बड़ी ताकत है। लगभग दो दर्जन जिलों में मुसलमान अपनी मर्जी के मुताबिक सियासत का रुख तय करने में सक्षम है। अगर कहा जाए कि नए परिसीमन के बाद सत्ता की चाभी मुसलमानों के पास है, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। परिसीमन के बाद 113 सीटों पर मुस्लिम मतदाता निर्णायक भूमिका में होंगे। आंकड़ों के अनुसार रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बरेली, बलरामपुर, अमरोहा, मेरठ, बहराइच और श्रावस्ती में मुसलमान तीस प्रतिशत से ज्यादा हैं। जबकि गाजियाबाद, लखनऊ, बदायूं, बुलंदशहर, खलीलाबाद, पीलीभीत, आदि में एक चैथाई मतदाता मुसलमान हैं।
यही कारण है कि कोई भी दल स्वयं को मुसलमानों का सच्चा हमदर्द साबित करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहता है। इसी के मद्देनज़र सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी, जिसने अपने लगभग पचास फीसदी मौजूदा विधायकों के टिकट काट दिए हैं, उसने इस बार थोक भाव में मुसलमानों को टिकट दिए हैं। जबकि उसकी चिर प्रतिद्धंदी समाजवादी पार्टी स्वयं को मुस्लिमों के मत का असली हकदार समझती रही है। वह मुसलमानों को अठारह प्रतिशत आरक्षण देने का वायदा कर रही है, (यह दीगर बात है कि उसे ओबीसी कोटे में साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण पर तो दर्द हो रहा है। जबकि इस साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण से मुसलमानों का कोई भला नहीं होने वाला है। क्योंकि उनको इस साढ़े चार प्रतिशत के लिए सिख, ईसाई, जैन और बौध समाज से भिड़ना पडेगा।) इसी तरह कांग्रेस ने तो खुलकर आरक्षण का दांव चला है। उधर पीस पार्टी और उलेमा कौंसिल जैसे छोटे- छोटे दल भीे इस वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रहे हैं।
संघी भाई आजादी के बाद से ही मुसलमानों के लिए व्यंग्य में नारा देते रहे हैं ‘पहले भाई फिर कांग्रेस आई’। यानी मुस्लिम मतदाता की पहली पसंद मुस्लिम उम्मीदवार और दूसरी पसंद कांग्रेस है। काफी हद तक यह बात सही भी है। नब्बे के दशक के प्रारम्भ तक हालत कुछ ऐसे ही थे। उसके बाद यूपी में मुसलमान की पहली पसंद समाजवादी पार्टी हो गई। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। इस बार न ‘पहले भाई फिर कांग्रेस आई’ वाली स्थिति है और न ‘मौलाना’ मुलायम के लिए पागलपन की हद तक जाने वाली स्थिति। ऐसे मुस्लिम मतदाताओं की खामोशी से सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के दिलों की धड़कनें तेज हैं। इस बार बहन जी से मुस्लिम मतदाता नाराज़ है इसलिए बसपा का अगर पहले भाई भी है तो भी भाई इस बार भाई को मिलता नहीं नज़र आ रहा।
समाजवादी पार्टी मुसलमानों की पसंद रही थी लेकिन अमर सिंह के प्रेम में अपने हाथों से अपना घर जलाने की हद तक दीवाने हुए मुलायम सिंह ने मुसलमानों को अपने से दूर कर लिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के सजायाफ्ता मुजरिम कल्याण सिंह से दोस्ती और उसके बाद जिल्लत के साथ आज़म खां के निष्कासन ने मुसलमानों को सपा से दूर कर दिया। जब तक सपा नेतृत्व को अकल आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सवेरा हो चुका था। आजम खां की घर वापसी हुई भी तो भी आजम खां सपा को हुए नुकसान की भरपाई करने में सफल होते नहीं दिखते। जो लोग आजम खंा को जानते हैं और नज़दीक से समझते हैं उन्हें मालूम है कि खां साहब अपने अपमान को नहीं भूलते हैं और अपने अपमान का बदला चुन-चुनकर लेते हैं। वह भी समझ रहे हैं कि जब सपा की अटकी है तो उन्हें मान मनौवल के साथ बुलाया गया है। मुलायम सिह का बुढ़ापा है और उनके युवराज को दिन में ख्वाब आने लगे हैं कि इस होली पर सूबे के मुखिया का ताज उनके ही सिर होगा सो सपा के युवराज ने कई ऐसे फैसले लिए हैं जिनसे यह साफ संदेश गया है कि न तो आजम खां की पार्टी में कोई हैसियत बची है और न युवराज को मुस्लिम मतों की चिन्ता है। जनता में भी यह संदेश साफ जा रहा है कि अब सपा की बागडोर इस होली के बाद पूरी तरह से युवराज के ही हाथों होगी और मुलायम सिंह किनारे खड़े होकर अपना बुढ़ापा काट रहे होंगे। इसलिए अगर आजम खां दिल से भी लाख चाहें (जों वो चाहेंगे नहीं) और कितना ही गला फाड़ें तो भी सपा को कुछ हासिल कराने की स्थिति में नहीं हैं।
ऐसे में मुस्लिम मतदाता की पहली पसंद कांग्रेस हो सकती है। लेकिन यह बात भी दावे के साथ नहीं कही जा सकती क्योंकि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की पिछली तीन सालों में उत्तर प्रदेश में मेहनत कुछ रंग लाती तो दिख रही है पर पूरे प्रदेश में उनका संगठित ढांचा न होने की वजह से कांग्रेस को वो लाभ होता नहीं दिख रहा, जो हो सकता था। गांधी खानदान के युवराज के राजनीतिक गुरू दिग्विजय सिंह मोर्चा जरूर ले रहे हैं लेकिन दिल्ली के राजदरबार में संगठन और सरकार के बीच जो टकराव बढ़ रहा है और 36 का आंकड़ा साफ दिखाई देने लगा है उसके चलते भी मुस्लिम मतदाता एकतरफा कांग्रेस को जाता भी नहीं दिख रहा।
बटला हाउस एन्काउन्टर को जिस तरीके से दिग्विजय सिंह ने मुद्दा बनाया और गृह मंत्री पी चिदंबरम ने उस मुद्दे की हवा निकाली उससे यह संदेश जरूर गया कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार और राहुल गांधी के बीच सब कुछ ठीक-ठीक नहीं है। लेकिन इस संदेश का भी सकारात्मक असर राहुल गांधी के पक्ष में जाता दिख रहा है और उसके लिए राहुल को भाजपा का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उसने सरकार और कांग्रेस के मतभेद पर कांग्रेस को घेरने की नीयत से जो सवाल उठाए उससे कांग्रेस को संगठन के स्तर पर सफाई देने की जरूरत नहीं रह गई। शुरूआती दौर में राहुल गांधी की जो छवि बुद्धू बावा की बनी थी, लगता है वह छवि अब टूट रही है और मुस्लिम मतदाताओं में यह संदेश जा रहा है कि गांधी परिवार के इस चश्म-औ-चराग पर भरोसा किया जा सकता है। अगर यह राय व्यापक तौर पर आम मुस्लिम अवाम में फैल गई तो संभव है कि यूपी के हालात बदले हुए ही नजर आएं जिसकी किसी राजनीतिक पंडित ने कल्पना भी नहीं की होगी। चूंकि 18 प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाला यह तबका अगर एकतरफा कांग्रेस की तरफ घूम गया तो सारे समीकरण उलट पुलट जाएंगे।
लगता यही है कि इस आहट को संभवतः बहन जी भी भांप रही हैं और सपा के युवराज भी, (यह तो आने वाला समय ही साबित करेगा कि भाई का साथ आई को कितना मिलता है)। अहम बात यह है कि इस बार वह युवा पीढ़ी भी वोट डालेगी जिसने 6 दिसंबर 1992 का बाबरी मस्जिद विध्वंस नहीं देखा है लेकिन गुजरात के नरसंहार और बटला हाउस एंकाउन्टर जैसे जख्म जिसके माथे और सीने मेें हैं। सवाल यह है कि यह पीढ़ी नरसिंहाराव का बाबरी मस्जिद विध्वंस में योगदान भी नहीं जानती और न 1990 में बाबरी मस्जिद बचाने के लिए मुलायम सिंह का कारसेवकों पर गोली चलवाने की साक्षी है। ऐसे में इस पीढ़ी के वे जज्बात नहीं हो सकते जो 90 के दशक में युवा या किशोर के थे। हां इस पीढ़ी को मुलायम सिंह का कल्याण सिंह से दोस्ती करना मालूम है और सपा के युवराज का फैजाबाद में बाबरी मस्जिद का जिक्र न करना मालूम है। इसलिए नई पीढ़ी का मुस्लिम नौजवान गुस्से में तो है लेकिन नफ़रत की आग में अंधा नहीं है चूंकि उसे लग रहा है कि उसे हर बार दोस्तों और दुश्मनों दोनों ने छला है। यही वजह है कि बहुत संजीदगी के साथ वह अपने गुस्से को रोज़गार, तरक्की और शिक्षा के मसाइल के साथ जोड़ रहा है। न वह भाई के पीछे दौड़ रहा है न आई के पीछे। और न अब वह उस प्रत्याशी को वोट करने की रणनीति अपना रहा है जो भाजपा को हराने में सक्षम है। भाजपा की असल परेशानी का सबब भी यही है कि जब से मुसलमान ने भाई को वोट देने की प्राथमिकता को किनारे किया है उसकी (भाजपा) की दुकान ही फीकी पड़ गई है। चूंकि अगर फिरकापरस्ती का माहौल नहीं होगा तो भगवा खेमे में उदासी ही रहेगी।
एक मुस्लिम नौजवान ने बहुत संजीदगी के साथ गुस्से में कहा कि आजादी के समय हम नौकरियों में दस फीसद थे आज दो फीसद रह गए। यही मिला है हमको! अब जो हमारे बुनियादी मसाइल रोज़गार, तालीम और सेहत के लिए संजीदा होगा हम उसे ही वोट करेंगे।