असदुद्दीन ओवैसी इतने कमअक्ल साबित होंगे, यह अंदाजा नहीं था। यह कैसे संभव है कि कोई शख्स सियासी मैदान में उतरे और इतनी जल्दी पकड़ लिया जाए कि वह अवाम के जिस हिस्से के लिए चीख-चिल्ला रहा है, दरअसल वह उसके ही खिलाफ है।
बिहार विधानसभा का चुनाव फिलहाल ब्राह्मणवादी (हिंदुत्व) राजनीति के पुनरोत्थान के लिहाज से देश में क्या अहमियत रखता है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन हालात में अगर ओवैसी बिहार के सीमांचल यानी मुसलिम बहुल इलाकों में अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं, तो क्या उससे भाजपा को कोई नुकसान होगा या खुद उन्हें क्या कुछ भी फायदा होगा?
अगर इन्हीं पच्चीस सीटों पर वोटों के हेरफेर से बिहार में भी बाबू बजरंगी या प्रवीण तोगड़िया ब्रांड भाजपाई सरकार बनती है तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?
कम से कम बिहार का यह चुनाव देश की राजनीति में गैर-संघी यानी गैर-भाजपाई आवाजों की जगह तय करने वाला है।
लालू की पार्टी और खासतौर पर नीतीश से कोई लगाव नहीं होने के बावजूद मैं चाहता हूं कि कम से कम इस बार ओवैसी या मुलायम यादव जैसी ताकतें भाजपा की जीत तय करने की जिम्मेदारी नहीं उठाएं।
हालांकि ओवैसी को अब यह समझना चाहिए कि न केवल गैर-मुसलमानों, बल्कि मुसलमानों के बीच भी उनकी असलियत पहचानी जा रही है कि वे आरएसएस के एक मोहरे के तौर पर, आरएसएस की सियासत के मददगार के तौर पर बिहार बिधानसभा चुनावों में हिस्सा लेने गए हैं।
बड़ी तादाद में मुसलिम नाम वाले युवाओं को ओवैसी से सावधान होते, मुसलमानों को सावधान रहने की हिदायत देते देख कर यही लग रहा है कि 'नीच' कही जाने वाली हिंदू जातियों के ठेकेदार हिंदुओं को नफरत और हिंसा के अंधेरे कुएं में धकेल रहे हैं, तो दूसरी ओर ऐसे ही अंधेरे में झोंकने वाले ओवैसी जैसे नेताओं को नई पीढ़ी के बहुत सारे मुसलिम युवा खारिज कर रहे हैं, उसकी चाल को बेनकाब कर रहे हैं।
यह याद रखा जाए कि बिहार के सीमांचल के इलाकों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफरत फैला कर मजहबी ध्रुवीकरण की सियासत जमीन पर उतारने की कवायद शुरू हो चुकी है। सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत मुसलिम समाज को ओवैसी जैसी ताकतों से रहने की है, लेकिन हिंदुओं की 'नीच' कही जाने वाली तमाम दलित-पिछड़ी जातियों और महिलाओं को भी भाजपा-आरएसएस के सवर्ण मर्दवादी सामंती ब्राह्मणवाद के पुनरोत्थान की साजिश को समझ कर खुद को भाजपा-आरएसएस की राजनीति से पूरी तरह अलग कर लेना चाहिए।
यह भी सनद रहे कि जहां-जहां भाजपा की सरकारें हैं और महज साल-डेढ़ साल में केंद्र में आने के बाद सत्ता के तंत्र और सामाजिक माहौल में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच कैसा नफरत और शक का माहौल बना दिया गया है, यह सबको पता है।
अरविंद शेष
अरविंद शेष, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।