'मूल्यबोध' कहां है? पत्रकार की 'पॉलिटिक्स' क्या है?
'मूल्यबोध' कहां है? पत्रकार की 'पॉलिटिक्स' क्या है?
आइए, एक उदाहरण देखें कि हमारा सभ्य समाज आज कैसे गढ़ा जा रहा है। मेरी पसंदीदा पत्रिका The Caravan Magazine में पत्रकार शेखर गुप्ता पर एक कवरस्टोरी आई है- "CAPITAL REPORTER"। गुप्ता की निजी से लेकर सार्वजनिक ज़िंदगी, उनकी कामयाबियों और सरमायेदारियों की तमाम कहानियां खुद उनके मुँह और दूसरों के मार्फत इसमें प्रकाशित हैं। इसके बाद scroll.in पर शिवम विज ने दो हिस्से में उनका लंबा साक्षात्कार भी लिया। बिल्कुल बेलौस, दो टूक, कनफ्यूज़न-रहित बातचीत। खुलासों के बावजूद शख्सियत का जश्न जैसा कुछ!!!
दूसरा दृष्टान्त लेते हैं। अभी दो दिन पहले राजदीप सरदेसाई आजतक के 'एजेंडे' में अरुण जेटली से रूबरू थे। अमृता धवन ने जेटली से अडानी-मोदी संबंध पर एक सवाल किया जिस पर जेटली उखड़ गए। राजदीप ने टोकते हुए कहा कि पिछले दस साल में अडानी की संपत्ति में बहुत इजाफा हुआ है। इस पर हाजिरजवाब जेटली तड़ से बोले, "राजदीप, वो तो तुमने भी बहुत पैसा कमाया है।" इस पर राजदीप ने लिटरली दांत चियार दिया। दस सेकंड बाद शायद उन्हें लगा कि इसका प्रतिवाद करना चाहिए और वे बोले कि अडानी से उनकी तुलना ना की जाए, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
इन स्थापनाओं में 'मूल्यबोध' कहां है? पत्रकार की 'पॉलिटिक्स' क्या है? ये सवाल हवा में ऐसे उड़ा दिए गए हैं गोया इनकी बात करना पिछड़ापन हो। ज़रा पूछ कर देखिए, शेखर गुप्ता के लोकेशन से इसका जवाब शायद यह मिले कि तुम काबिल हो तो पैसे क्यों नहीं कमाते? गरीब रहने में क्या मज़ा है? चूंकि यही लोकेशन अब मुख्यधारा में स्थापित है या हो रही है, लिहाजा पत्रकारिता के आदर्श शेखर गुप्ता ही होंगे। ठीक वैसे ही जैसे साहित्य के आदर्श अशोक वाजपेयी होंगे। शेखर गुप्ता, अम्बानी और राडिया से लटपट करते रहें या अशोक वाजपेयी रमन सिंह से, फिर भी वे अनुकरणीय बने रहेंगे क्योंकि पोस्ट-रिफॉर्म भारत में यह बात तय की जा चुकी है कि आप सामाजिक बदलावकारी छवि बनाए रखते हुए पैसे बना सकते हैं चूंकि आप ईमानदार करदाता हैं। इसे कहते हैं चित भी मेरी, पट भी मेरी, सिक्का तो मेरा हइये है। आप इनकी आलोचना कर के देखिए, आपको कूढ़मगज, कनजर्वेटिव, अलोकतांत्रिक, कुंठित, असफल, कुढ़ने वाला, सनातन निंदक करार दिया जाएगा क्योंकि "आपके अंगूर खट्टे हैं।"
O- अभिषेक श्रीवास्तव


