मेक इन इंडिया के अच्छे दिन - वैश्विक भूख सूचकांक के मुताबिक भारत भूख और गरीबी का समुद्र
मेक इन इंडिया के अच्छे दिन - वैश्विक भूख सूचकांक के मुताबिक भारत भूख और गरीबी का समुद्र
मेक इन इंडिया के अच्छे दिन - वैश्विक भूख सूचकांक के मुताबिक भारत भूख और गरीबी का समुद्र
महेंद्र मिश्र
भारत भूख और गरीबी का समुद्र है। नया वैश्विक भूख सूचकांक यही बताता है।
118 देशों की इस सूची में भारत 97वें स्थान पर है।
पड़ोसी नेपाल, श्रीलंका, बर्मा और बांग्लादेश भी हमसे आगे हैं। चीन की तो हमसे कोई तुलना ही नहीं। वह बहुत आगे है। सूची में उसका स्थान 27वां है।
रवांडा और इथोपिया जैसे चंद गरीब और पिछड़े अफ्रीकी देश ही इस कतार में हमसे पीछे हैं।
कोई इस बात से संतुष्ट हो सकता है कि कम से कम पाकिस्तान को तो हमने पछाड़ दिया है। लेकिन इससे बात बनती नहीं।
जब हम खुद को महाशक्तियों की कतार में देखना चाहते हैं। तब यह सूचना हमारे सपनों पर किसी तुषारापात से कम नहीं। बावजूद इसके अगर हमारी हेकड़ी बनी रहे, तब उसका कोई इलाज नहीं।
क्या ऐसा भी कोई शख्स हो सकता है जिसके गोद में लिए बच्चे के फटे कपड़ों के भीतर से पसलियां झांक रही हों। फिर भी वह किसी पर खुद के धनी और ताकतवर होने का रौब झाड़े? अब यह उसका ढीठपना होगा या फिर निर्लज्जता।
अगर कोई इन सच्चाइयों के बाद भी खुद को महाशक्ति के तौर पर पेश करे।
रिपोर्ट में हालात को बद से बदतर बताया गया है।
1992 में इस सूची में भारत का स्थान 76वां था। जो 2000 में घटकर 93 पर चला गया। और फिर अब हम 97वीं पायदान पर हैं।
गिरावट के इस दौर की शुरुआत देश की अर्थव्यवस्था के खुलने के साथ हुई।
यह रिपोर्ट बताती है कि देश का विकास जरूर हुआ है। लेकिन अमीरों की अमीरी में और गरीबों की गरीबी में। अमीरों ने आसमान छुआ और गरीबों ने पाताल का रास्ता तय किया।
यानी संपत्ति तो जरूर पैदा हुई लेकिन उसका बंटवारा नहीं हुआ। एक छोटे हिस्से को दौलत का पहाड़ मिला और बड़े तबके को खाईं नसीब हुई।
देश की इस हालत के लिए पूरा राजनीतिक निजाम जिम्मेदार है। अगर बीजेपी है तो कांग्रेस उससे भी ज्यादा। और इसके लिए इन सबको मिलकर देश से माफी मांगनी चाहिए।
मुल्क की नई तस्वीर तो और ज्यादा खतरनाक है। विकास के नारे के साथ सत्ता में आए मोदी जी के एजेंडे में अब इसका स्थान आखिरी है।
मेक इन इंडिया की सच्चाई यह है कि औद्योगिक विकास दर पिछले दस सालों में सबसे नीचे चली गयी है। बेरोजगारी ने पिछले पांच सालों के आंकड़े को पार कर लिया है। निर्यात में पिछले दो सालों से लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। हर क्षेत्र में मंदी और पस्तहिम्मती है।
प्रधानमंत्री मोदी ने जब कोझीकोड से भूख और गरीबी के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आह्वान किया। तो लोगों में एक उम्मीद जगी थी। लेकिन किसी को क्या पता था कि वह वास्तविक युद्ध के रास्ते पर बढ़ने के लिए महज एक बायपास था, जिसकी कीमत जुमले से ज्यादा नहीं।
यह कितना अच्छा होता कि इस सूचकांक में सबसे नीचे स्थान पाए दक्षिण एशिया के दोनों मुल्क भारत और पाकिस्तान अपने-अपने यहां गरीबी और भुखमरी के विरुद्ध जंग छेड़ते। लेकिन दोनों मुल्कों की जनता का यह दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हो पा रहा है। क्योंकि दोनों ने एक तीसरा रास्ता युद्ध और युद्धोन्माद का चुन लिया है। इससे भला जनता की क्या भलाई होगी? ऊपर से गरीबों के हिस्से की रोटी के पैसे भी हथियारों की भेंट चढ़ जाएंगे।
दक्षिण चीनी समुद्र से लेकर एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर तक समुद्र गर्म हो रहा है। कहीं चीन के खिलाफ भारत है। तो कहीं पाकिस्तान के खिलाफ भारत। और कहीं चीन के खिलाफ अमेरिका ने मोर्चा लिया हुआ है।
पूरे इलाके में एक जंग का माहौल तैयार किया जा रहा है।
हथियारों की होड़ इसकी तार्किक परिणति बन जाती है। और इसका फायदा कोई दूसरा नहीं बल्कि हथियारों के सौदागर, उसके बनाने वाले और उसकी दलाली खाने वाले नेता और नौकरशाह उठाएंगे। और यह सब कुछ होगा गरीब जनता की पेट की कीमत पर।
हमको पता होना चाहिए कि यह सब अमेरिका के इशारे और उसके लाभ के लिए हो रहा है।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है। ऐसे में उसे अपने सामानों के लिए बाजार के साथ ही हथियारों के खरीदार भी चाहिए। और खरीदारी तभी होती जब किसी चीज की जरूरत हो। इसलिए सबसे पहले जरूरत पैदा की जा रही है। युद्ध और युद्धोन्माद का माहौल उसी का हिस्सा है। भारत के साथ मिलकर अमेरिका उसी काम में लगा हुआ है।
दरअसल लैटिन अमेरिका से भगाए जाने के बाद अमेरिका को मध्य पूर्व में पनाह मिली थी।
जहां तेल के कुओं पर कब्जे का मौका मिला। साथ ही हथियारों की बिक्री में जबर्दस्त फायदा हुआ। लेकिन इस कड़ी में उसकी कलई खुल गई। और आखिरकार इन इलाकों से उसे अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। इसलिए उसे अब नये ठिकाने की तलाश है।
इस लिहाज से दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया का इलाका उसके लिए मुफीद दिख रहा है। क्योंकि भारत जैसा एक देश उसका खुली बांहों से स्वागत कर रहा है। और उसकी पैठ बनाने के लिए हर सुविधा मुहैया कराने के लिए तैयार है। जबकि सच यह है कि वह भारत को एक मोहरे के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। और मोदी जी इसको अपना भाग्य समझते हैं।
लेकिन हमें कुछ सबक इतिहास से भी सीखना चाहिए।
अभी मध्यपूर्व और उसकी जंगें हमारे सामने से गुजरी हैं। और कुछ जगहों पर वह आज भी जारी हैं। वहां सिर्फ और सिर्फ तबाहियां मिली हैं। लिहाजा ऐसी किसी जंग या फिर उसके उन्माद में फंसने का मतलब बर्बादी ही होगी।
दरअसल जब हम युद्ध या फिर उसकी तैयारी में चले जाते हैं तो जीवन की दूसरी जरुरियात की चीजें पीछे छूट जाती हैं।
सोवियत रूस हमारे सामने साक्षात इसका उदाहरण है। अमेरिका और पूंजीवाद से लड़ाई के नाम पर हथियारों की खरीद और उसके उत्पादन में उसकी पूरी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई। दूसरी तरफ जनता के जीवन के जरूरी मसले गौड़ होते गए। और एक वक्त ऐसा आया जब जनता खुद ही उस व्यवस्था के खिलाफ खड़ी हो गई। ऐसे में हथियारों पर खर्चे को नाजायज करार देने वाले को राष्ट्रद्रोही करार देकर भले ही चुप करा दिया जाए। लेकिन अपने आखिरी मूल्यांकन में यह रास्ता देश और उसके बाशिंदों के खिलाफ जाएगा।
ऐसे में अभी इस बात की जरूरत है कि सरकार उसे रास्ते से मुंह मोड़ ले।
क्योंकि आखिरी तौर पर कोई भी देश हथियारों से शक्तिशाली नहीं बनता, बल्कि उसकी अर्थव्यवस्था ही उसकी असली ताकत होती है ।
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