(भाग-2)

डॉ . असगर अली इंजीनियर

(पिछले अंक से जारी)
मैं वक्फ और हज मामलों के उपमंत्री मौलाना अब्दुल हकीम मुनीब से भी मिला। वे तालिबान सरकार में मंत्री थे परंतु बाद में उन्होंने तालिबान का साथ छोड़ दिया और करज़ई सरकार में उपमंत्री बन गए। मुझे उनकी तालिबानी पृष्ठभूमि से अवगत कराते हुए यह सलाह दी गई थी कि मैं उनसे बातचीत करते समय बहुत सावधानी बरतूं। परंतु उन्होंने जिस ढंग से मुझसे बातचीत की, उससे मुझे ऐसा कतई नहीं लगा कि वे कट्टरपंथी या परंपरावादी हैं । यह भी हो सकता है कि उन्होंने मेरे सामने ऐसा अभिनय किया हो कि वे खुले दिमाग के व्यक्ति हैं और तालिबान को पंसद नहीं करते।
मैंने उनसे जानना चाहा कि अफगानिस्तान से हर वर्ष कितने मुसलमान हज पर जाते हैं। उनका उत्तर था, लगभग 30 हजार। फिर मैंने उन्हें यह जानकारी दी कि यद्यपि भारत एक गैर-इस्लामिक देश है तथापि वहां से हर वर्ष लगभग 1 लाख मुसलमान हज पर जाते हैं। मैंने उन्हें यह भी बताया कि भारत सरकार, हज यात्रा के लिए अनुदान देती है और हज यात्रियों की सुविधा के लिए इन्तज़ामात भी करती है। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भारत में सरकार हज यात्रा का खर्चा उठाती है। उन्होंने कहा कि हज पर जाना मुसलमानों का धार्मिक कर्तव्य जरूर है परंतु सिर्फ ऐसे लोगों हज पर जाना चाहिए जो यात्रा का खर्च स्वयं उठा सकें। किसी भी सरकार - चाहे वह इस्लामिक हो या नहीं - का कतई यह दायित्व नहीं बनता कि वह मुसलमानों को उनके धार्मिक कर्तव्य के पालन में आर्थिक मदद दे।
मैंने उनसे कहा कि इस बारे में मेरे भी ठीक वही विचार हैं जो उनके परंतु हज अनुदान की व्यवस्था बहुत लंबे समय से चली आ रही है और उसे समाप्त करना बहुत कठिन है। मैंने उन्हें उन कारणों से भी परिचित करवाया जिनके चलते भारत सरकार ने हज यात्रियों को अनुदान देने की व्यवस्था शुरू की थी। शुरूआती दौर में मुसलमान, समुद्र के रास्ते हज पर जाते थे। परंतु मुगल लाईन्स शिपिंग कम्पनी दिवालिया हो गई और उसने हज यात्रियों के लिए जहाज चलाने बंद कर दिए। इसके बाद एक ही रास्ता बचा और वह था हवाई मार्ग से हज पर जाना। चूँकि अधिकांश मुसलमान इतने गरीब थे कि वे हवाई यात्रा का खर्च नहीं उठा सकते थे इसलिए भारत सरकार ने उन्हें अनुदान देने का निर्णय किया। अब यह मुद्दा राजनैतिक दृष्टि से इतना संवेदशील बन गया है कि दक्षिणपंथी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार भी हज अनुदान की व्यवस्था को समाप्त नहीं कर सकी। उल्टे, उसने हाजियों का कोटा बढ़ाया ही।
हमने वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन के लिए कानून बनाए जाने के मुद्दे पर भी चर्चा की। मैंने श्री मुनीब को बताया कि भारत में वक्फ संपत्तियों की कोई कमी नहीं है परंतु दुर्भाग्यवश , उनका प्रबंधन ठीक ढंग से नहीं हो रहा है और इस कारण मुसलमान उनसे लाभान्वित नहीं हो पा रहे हैं। अगर इन संपत्तियों का उचित प्रबंधन किया जाए और इनमें हो रहा भ्रष्टाचार समाप्त हो जाए तो वक्फ संपत्तियों से इतनी आमदनी हो सकती है कि मुसलमानों की अशिक्षा व गरीबी की समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सके। अफगानिस्तान में वक्फ से जुड़ी समस्याएं एकदम अलग हैं। अफगानिस्तान एक मुस्लिम देश है परंतु श्री मुनीब के अनुसार, वहां के उलेमा इतने तंग दिमाग हैं कि वे वक्फ संपत्तियों का उचित इस्तेमाल ही नहीं होने देते। मैंने उनसे अफगानिस्तान में महिलाओं में व्याप्त अषिक्षा पर भी चर्चा की। उन्होंने इसके लिए उलेमा को दोषी ठहराया।
अगले दिन हम बदाकषां के लिए रवाना हुए। वहां 6 जुलाई को “इस्लाम और नशीले पदार्थ“ विषय पर सम्मेलन आयोजित था। बदाकषां, अफगानिस्तान का सुदूर उत्तरी राज्य है जहां अफीम की खेती बड़े पैमाने पर होती है। बदाकषां, काबुल से 600 किलोमीटर दूर है और काबुल से वहां के रास्ते में पांच राज्य पड़ते हैं। पूरा मार्ग अत्यन्त मनमोहक प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। यह रास्ता ऊंची-ऊंची, सुन्दर पहाडि़यों के बीच से गुजरता है। हम लोग दो गाडि़यों में काबुल से बदाकषां के लिए रवाना हुए। मौलवी अत्ताउर रहमान के नेतृत्व में पांच-छःह उलेमा हमारे साथ थे।
हमारी यात्रा 4 बजे सुबह षुरू हुई। अफगानिस्तान में सूरज बहुत जल्दी उग आता है। प्रातः 4 बजे तक अच्छा-खासा उजाला हो जाता है। सुबह 5 बजे तक तो पूरा काबुल जाग जाता है और लोग अपने काम-धन्धों पर निकल पड़ते हंै। हम लोग रास्ते में पहाडियों की गोद के बीच, नदी के किनारे नाश्ता करने के लिए रूके। वह स्थान बहुत सुन्दर था। नाश्ते में हमें गर्मागर्म सीक कबाब, मछली और ग्रीन टी परोसी गई। अफगानिस्तान में नाश्ते में अण्डे खाने का रिवाज नहीं है। हाँ, चीज़ और शहद नाश्ते में आवश्य शामिल रहते हैं। मुझे यह देखकर आष्चर्य हुआ कि अफगानिस्तान जैसे परंपरावादी देश में कोकाकोला, सेवनअप आदि जैसे पेय पदार्थ बहुत लोकप्रिय हैं। मुझे यह बताया गया कि यह अमरीकी संस्कृति का प्रभाव है। यह सचमुच विडंबनापूर्ण है कि हम पहनने-ओढने और खाने-पीने के मामले में पश्चिमी संस्कृति को अपनाने में ज़रा देर नहीं करते परंतु जब बात महिलाओं की स्थिति की आती है तो हम अपनी सड़ी-गली परंपराओं से चिपके रहना चाहते हैं।
बदाकषां के रास्ते में हम एक जिला मुख्यालय पर रूके। वहां हमें उलेमा के बीच “इस्लाम में महिला अधिकार“ विषय पर बोलना था और दोपहर का भोजन भी लेना था। हमें सुनने के लिए जिले के विभिन्न हिस्सों से आए लगभग 70-80 उलेमा उपस्थित थे। भोजन के बाद मैंने अपना भाषण दिया। पहले यह तय हुआ कि मैं अंग्रेजी में बोलूंगा। मेरे भाषण का अनुवाद करने के लिए एक अनुवादक भी ढूढ़ लिया गया परंतु बाद में मैंने उर्दू में बोलने का निर्णय लिया क्योंकि उलेमा थोड़ी-बहुत उर्दू जानते हैं। वहां मौजूद एक आलिम बहुत अच्छी उर्दू जानते थे और उन्होंने मेरे भाषण का फारसी अनुवाद करने की जिम्मेदारी ली।
मैंने अपने भाषण में कुरान की कई आयतों को उद्धत करते हुए यह बताया कि कुरान, मूलतः, लैंगिक समानता की हामी है। मैंने यह भी कहा कि कुरान में पुरूषों के कर्तव्यों और महिलाआंे के अधिकारों पर जोर दिया गया है। मैंने इस मान्यता को गलत ठहराया कि महिलाएं नक़ीज़-अल्-अक्ल व नक़ीज़-अल्-इमाम (तार्किकता व धार्मिक श्रद्धा से महरूम) हैं। मैंने कहा कि महिलाएं उतनी ही बुद्धिमान होती हैं जितने कि पुरूष बल्कि शायद वे पुरूषों से अधिक बुद्धिमान और श्रद्धालु होती हैं। महिलाओं की बौद्धिकता के बारे में इन मान्यताओं का कुरान से कोई लेना-देना नहीं है।
मेरा भाषण सुनकर वहां उपस्थित उलेमा नाराज हो उठे और मुझे गलत ठहराने लगे। एक आलिम मंच पर आ धमके और एक लंबे भावुकतापूर्ण आख्यान के बाद उन्होंने मुझ पर यह आरोप लगाया कि मैं कुरान और हदीस के बारे में कुछ नहीं जानता। मुझे यह सलाह दी गई कि मैं उनके उत्तेजक भाषण का उत्तर न दूं। मेरे स्थान पर मौलवी अत्ताउर रहमान ने एक छोटा सा भाषण दिया और उस आलिम से कहा कि उन्हांेने मेरी बातों का गलत अर्थ लगाया है। कार्यक्रम के बाद कई युवा उलेमा मेरे पास आए और उन्होंने मुझसे कहा कि वे मेरे तर्कों से सहमत हैं और लैंगिक समानता में विष्वास रखते हैं। मुझे यह जानकर बहुत संतोष का अनुभव हुआ कि अफगानिस्तान में कम से कम कुछ उलेमा तो ऐसे हैं जो यह मानते हैं कि महिलाएं और पुरूष बराबर हैं।
एक लंबी और थका देने वाली सड़क यात्रा के बाद हम लोग शाम 6 बजे बदाकषां पहुंचे। हम लोग सीधे बदाकषां के गर्वनर के सरकारी आवास पर गए जहां हमें चाय पर निमंत्रित किया गया था। गर्वनर का बंगला एक पहाड़ी पर बना हुआ है और अत्यंत हरे-भरे सुंदर बगीचे से घिरा है। गवर्नर का नाम षाह वलीउल्लाह है। वे जब हमारा स्वागत करने बंगले के पोर्च पर आए तो मैंने उन्हें बताया कि भारत में अठारहवीं सदी में शाह वलीउल्लाह नाम के एक महान इस्लामिक चिंतक हुए थे। वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए। गवर्नर साहब ने सूडान के खार्तूम विश्व विद्यालय से एमबीए की डिग्री हासिल की है और वे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते हैं।
उन्होंने हम से बदाकषां में नशीले पदार्थों के व्यापार की समस्या पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार दुतरफा नीति अपना रही है। पहले तो किसानों को यह समझाइश दी जाती है कि वे अफीम की खेती न करें। इस पर भी जो लोग अफीम उगाते हैं उनकी पूरी फसल जला दी जाती है। उन्होंने मुझे बताया कि अफगानिस्तान में लगभग 60 लाख लोग ड्रग्स लेने के आदी हैं और इनमें से 25 प्रतिशत महिलाएं हैं। यह जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि अफगानिस्तान जैसे अति परंपरावादी देश में, जहां महिलाआंे पर बहुत सी पाबंदियां हैं, महिलाएं इतनी बड़ी संख्या में नशे की आदी हैं।
मुझे इस समस्या का गहराई से अध्ययन करने का समय तो नहीं मिला परंतु मुझे ऐसा लगता है कि शायद महिलाएं उन पर लगी कड़ी पाबंदियों के कारण अवसाद का शिकार हो जाती होंगी और इस कारण ड्रग्स का सहारा लेती होंगी। मैंने कुछ महिलाओं से बात की और वे मुझे काफी बुद्धिमान व प्रतिभाशाली लगीं। ऐसी महिलाओं पर यदि अमानवीय पाबंदियां लगाई जाएंगी तो इससे उनका अवसादग्रस्त हो जाना स्वाभाविक है। गवर्नर ने मुझे बताया कि नशीले पदार्थों के व्यापार से तालिबान अरबों डालर कमाते हैं। इस कमाई का एक हिस्सा आतंकी कार्यवाहियों पर खर्च किया जाता है और बाकी पैसा वे हजम कर जाते हैं।
अगले दिन लगभग सुबह दस बजे “इस्लाम और नशीले पदार्थ“ विषय पर सम्मेलन प्रारभ हुआ। बदाकषां और आसपास के इलाकों से आए लगभग 300 उलेमा सम्मेलन में उपस्थित थे। मैं मुख्य अतिथि था। पहले कुछ उलेमा ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए। इनमें से दो शोधपत्र अत्यंत तार्किक व विद्वतापूर्ण थे। यह तय हुआ कि इन्हें प्रकाशित किया जाएगा। मैंने सुझाव दिया कि फारसी में लिखे इन शोधपत्र का उर्दू, अंगे्रजी और पष्तो में अनुवाद किया जाना चाहिए।
समय की कमी के चलते मैंने बिना किसी पूर्व तैयारी के अपना भाषण दिया। सबसे पहले मैंने इस भ्रम को दूर करने का प्रयास किया कि कुरान केवल शराब पीने पर प्रतिबंध लगाती है। मैंने कहा कि कुरान में ड्रग्स सहित सभी नशीले पदार्थों को हराम बताया गया है। अरबी में शराब को खम्र कहा जाता है। खम्र का अर्थ है ढ़ाकने वाली। शराब को खम्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह हमारी सोचने-समझने की शक्ति को ढ़ाक देती है। अरबी में कपड़े के लिए खिमार शब्द का इस्तेमाल किया गया है क्योंकि कपड़ा हमारे षरीर को ढ़ाकता है।
चूंकि ड्रग्स से भी नशा होता है इसलिए वे भी खम्र हैं। शराब को कुरान में उम्मः-अल्-खबाइस (सभी बुराईयों की मां) कहा गया है और कुरान, शराब पीने पर पाबंदी लगाती है। जिस समय कुरान अवतरित हुई थी उस समय ड्रग्स की समस्या नही थी परंतु यदि हम गहराई से सोचें और विष्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि ड्रग्स उतनी ही हराम हैं जितनी कि शराब। कुरान की आयतों के विष्लेषण पर ही शरियत कानून आधारित है और ऐसा ही विष्लेषण ड्रग्स के मामले में भी किया जाना चाहिए।
कुछ इस्लामिक देशो को छोड़कर, पूरी दुनिया के सभी देशो में शराब की खरीद-बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं है। परंतु लगभग सभी देशो में ड्रग्स पर कड़े प्रतिबंध हैं और यहां तक कि मलेशिया , सिंगापुर और कुछ अन्य देशो में ड्रग्स के साथ पकड़े जाने पर मृत्युदंड का प्रावधान है। शराब पीने पर किसी देश में सजा का प्रावधान नहीं है। इससे ही यह साफ हो जाता है कि शराब की तुलना में ड्रग्स कहीं अधिक नुकसानदेह व खतरनाक हैं।
कुछ इस्लामिक धर्मशास्त्री यह बेतुका तर्क देते हैं कि इस्लाम में ड्रग्स लेना तो हराम है परंतु ड्रग्स के उत्पादन या व्यापार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है? सभी इस्लामिक विद्वान और न्यायशास्त्री एकमत से यह कहते हैं कि मुसलमानों को शराब के उत्पादन व खरीद-फरोख्त से दूर रहना चाहिए। यही बात ड्रग्स के मामले में भी लागू होती है। अगर ड्रग्स का सेवन करना हराम है तो उनका उत्पादन या व्यापार भी उतना ही हराम है। मैंने जोर देकर यह भी कहा कि हमें नशीले पदार्थों की समस्या की जड़ तक जाना चाहिए। हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि आखिर लोग-खासतौर पर युवा-ड्रग्स के सेवन के आदी क्यों हो जाते हैं? यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अफगानिस्तान में बड़ी संख्या में महिलाएं भी ड्रग्स का सेवन करती हैं।
सामाजिक-आर्थिक समस्याएं, बेतुकी पाबंदियों और परंपराओं को जरूरत से ज्यादा कड़ाई से लागू किए जाने से जनित कुंठा भी कभी-कभी लोगों को ड्रग्स की ओर आकर्षित करती है। इस विषय पर गंभीर चिंतन और बहस की आवश्यकता है। अंत में मैंने कहा कि अफगानिस्तान में ड्रग्स के सेवन की बढ़ती प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने के काम में उलेमा, सरकार की सहायता कर सकते हैं। इस पवित्र कार्य में उनकी रचनात्मक भूमिका हो सकती हैै। अफगानिस्तान में उलेमा का समाज पर गहरा प्रभाव है और मस्जिदों में लोग उनकी बातें ध्यान से सुनते हैं और उन पर अमल भी करते हैं। मैंने उलेमा का आव्हान किया कि वे जुमे पर अपने खुतबः व अन्य धार्मिक मंचों से युवाओं को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे ड्रग्स से दूर रहें।
मेरे विचारों से उपस्थित उलेमा ने सहमति दर्शाए और मुझसे यह अनुरोध किया कि मैं अफगानिस्तान आता रहूं और इस मिशन में उनकी मदद करूं। मुझे इस अवसर पर प्रशस्ति पत्र भी भेंट किया गया जो कि सम्मानित अतिथियों और आलिमों को दिया जाता है।