नई दिल्ली। बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा गठजोड़ को नकार दिया है। बिहार चुनाव के नतीजे क्या संदेश देते हैं, विश्लेषणकर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ...
आखिरकार, बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा गठजोड़ को नकार दिया। और सिर्फ नकारा ही नहीं है, इतने जबर्दस्त तरीके से नकार दिया है, जिसकी उम्मीद इस महत्वपूर्ण चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले ‘महागठबंधन’ की जीत की भविष्यवाणी करने वाले राजनीतिक प्रेक्षकों को भी नहीं थी। रही भाजपा की उम्मीद की बात तो भाजपा के बड़बोले अध्यक्ष, अमित शाह ने चुनाव नतीजों के संबंध में जो दो भविष्यवाणियां की थीं, उनमें से एक जरूर सही हो गयी है। बिहार की राजनीतिक रूप से जागरूक जनता ने शाह के अनुमान को सच करते हुए, इस चुनाव में बेशक जीतने वाले को दो-तिहाई बहुमत देकर ही जिताया है। बस उनका दूसरा अनुमान गलत हो गया है और दो-तिहाई बहुमत के साथ जीत, शाह के विरोधियों के हिस्से में आयी है, जबकि भाजपा के नेतृत्व वाला गठजोड़ एक-तिहाई सीटों से भी कम में सिमट गया है।
इस अर्थ में बिहार की जनता ने, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के वादों और दावों को निर्णायक रूप से नकारने के उस रुझान की ही पुष्टि की है, जिसकी शुरूआत इसी साल के शुरू में हुए दिल्ली के विधानसभाई चुनाव से हुई थी। लेकिन, भाजपा की बिहार की हार, इस माने में दिल्ली की उसकी हार से बहुत बड़ी है कि ‘शहर-राज्य’ दिल्ली के विपरीत, ग्रामीण आबादी के प्रबल बहुमत वाला बिहार, भारत की जनता का कहीं पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए, यह कहने में भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 2014 के आम चुनाव से छूटे नरेंद्र मोदी के विजय रथ के पहिए, बिहार में बाकायदा जमीन में फंसकर रह गए हैं। एक के बाद एक, विधानसभाई चुनावों में हार से नरेंद्र मोदी की ‘अजेयता’ का मिथक निश्चित रूप से चूर-चूर हो जाने वाला है।
बिहार की जनता के इस फैसले के सिर्फ बिहार के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए जो परिणाम होंगे उनकी चर्चा करने से पहले, इस चुनाव की पृष्ठभूमि की कुछ खास बातों की याद दिलाना जरूरी है। पहली खास बात, आने वाले दिनों में हम भाजपा के प्रवक्ताओं को जिसकी बार-बार दुहाई देते भी देखेंगे, यही है कि इस चुनाव में भाजपा के सामने चुनौती सिर्फ 2014 के चुनाव के मुकाबले अपना वोट बचाने की नहीं, बल्कि बढ़ाने की थी। बेशक, 2014 के आम चुनाव में शेष उत्तरी भारत की ही तरह, भाजपा के गठजोड़ ने बिहार में भी झाडूमार सफलता हासिल की थी। लेकिन, जब इसी चुनाव नतीजे ने चुनाव के फौरन बाद से बिहार में उसके दो मुख्य विरोधियों, नीतीश कुमार और लालू यादव को एकजुट कर दिया और कांग्रेस उनके साथ जुड़ गयी, तो बिहार में वोटों का गणित, भाजपायी गठजोड़ के खिलाफ हो गया।
शुरूआत से ही ‘महागठबंधन’ की चार फीसद से ज्यादा वोट की जो बढ़त दिखाई दे रही थी, उसकी काट करने के लिए भाजपा ने तीन चीजों का सहारा लेने की कोशिश की। पहला, भाजपा के मुख्यत: सवर्ण आधार और उसके सहयोगियों के आंशिक रूप से दलित तथा आंशिक रूप से पिछड़ा आधार के साथ, मुख्यत: पिछड़ी जातियों के नेताओं को जोड़ऩे की ‘सोशल इंजीनियरिंग’। दूसरे, इसी रणनीति के कहीं महत्वाकांक्षी विस्तार के रूप में, योजनाबद्ध तरीके से काम करते हुए जीतन राम मांझी को, जिन्हें नीतीश कुमार ने अपने दलित आधार का विस्तार करने की उम्मीद में आम चुनाव में हार के बाद मुख्यमंत्री बनाया था, फोड़क़र भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले अपने पाले में खींच लिया।
तीसरा तत्व, जिस पर भाजपा सबसे ज्यादा निर्भर थी, जाहिर है कि प्रधामनंत्री नरेंद्र मोदी का ‘करिश्मा’ ही था। पिछले साल आम चुनाव के बाद हुए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड तथा जम्मू कश्मीर के चुनाव के फार्मूले को ही आजमाते हुए, मोदी की भाजपा ने बिहार का चुनाव मोदी के ही नेतृत्व में लड़ऩे का फैसला लिया था। हालांकि, इसी साल हुए दिल्ली के विधानसभाई चुनाव में आखिरकार भाजपा को चुनाव से पहले किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित करना पड़ा था, दिल्ली के चुनाव में यह पैंतरा भी मददगार नहीं रहा था। हालांकि, पिछले आम चुनाव से जिस तरह चुनावों को व्यक्ति-केंद्रित मुकाबलों में तब्दील कर दिया गया है, जिसमें मोदी के आम चुनाव के प्रचार अभियान का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा था, उसे देखते हुए बिहार में नितीश कुमार के सामने, भाजपा का अपना उम्मीदवार घोषित न कर पाना, उसके लिए एक तरह की पगबाधा थी। बहरहाल, इससे एक ओर तो भाजपा के नरेंद्र मोदी के ही नाम पर वोट मांगने का रास्ता खुलता था और दूसरे, विरोधी जाति-समूहों को इसका भरोसा दिलाने का मौका मिलता था कि भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री के पद पर उनके ही नेता को बैठाया जाएगा। बिहार को जीतने के लिए संघ-भाजपा द्वारा आजमायी जा रही ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के जरिए, भाजपा के सवर्ण आधार के साथ, पिछड़ों को जोडऩे के लिए यह पैंतरा खासतौर पर जरूरी था।
दूसरी ओर, बिहार का चुनाव तब हो रहा था, जब जनता केंद्र में मोदी सरकार का डेढ़ साल का राज देख चुकी थी। डेढ़ साल के भाजपा के राज के इस रिकार्ड ने मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा से आम चुनाव के विपरीत, जनता को प्रगति तथा हालात में सुधार के सपने दिखाने के मौके से वंचित कर दिया। ठीक इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के खुद अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाने और उनके एक पिछड़ी जाति से होने को खुलकर भुनाए जाने के बावजूद, जब भाजपा के नेतृत्व वाला विस्तारित गठजोड़ पिछड़ता नजर आया, पांच चरण के चुनाव में दो चरण के मतदान के बाद, भाजपा ने अपनी कार्यनीति में महत्वपूर्ण बदलाव किए। एक ओर, नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ऩे से पीछे हटते हुए, भाजपा के बिहार के पांच अलग-अलग जाति-समूहों के नेताओं के चेहरे पोस्टरों पर लाए गए। इसके साथ ही, विकास के सपने दिखाने पर जोर को छोड़कर, खुद मोदी ने आरक्षण के मुद्दे पर भागवत के बयान से फैला भ्रम दूर करने से आगे बढ़क़र पिछड़ों की चिंता के अपने प्रदर्शन को, बहुसंख्यकों को संबोधित सांप्रदायिक अपील से जोड़ दिया।
अब खुद प्रधानमंत्री पिछड़ों के आरक्षण में से एक हिस्सा छीनकर ‘मुसलमानों को देने के षडयंत्र’ के खिलाफ ‘जान की बाजी’ लगा देने के दावे करने लगे और बिहार में चुनाव को ‘गोभक्तों’ और ‘गोमांस खाने के समर्थकों’ के बीच मुकाबले में तब्दील करने में जुट गए। चुनाव जैसे-जैसे आगे बढ़ा, भाजपा के प्रचार में सांप्रदायिक स्वर ज्यादा से ज्यादा प्रखर होता गया। अंतिम चरण तक आते-आते बिहार के चुनाव को भाजपा की ओर से एक ओर पाकिस्तानपरस्तों या मुस्लिमपरस्तों और दूसरी ओर हिंदूहितैषियों के बीच चुनाव में तब्दील किया जा चुका था। अचरज नहीं कि अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले भाजपा द्वारा अखबारों में छापे गए ‘गाय की पुकार’ वाले विज्ञापन पर चुनाव आयोग ने नाराजगी जतायी थी जबकि इससे पहले भाजपा के ही दो विज्ञापनों पर आयोग रोक लगा चुका था, जिनमें महागठंधन को मुसलमानों को आरक्षण देने का समर्थक और मुसलमान आतंकवादियों पर ‘नरम’ बताया गया था!

विडंबना यह है कि चुनाव प्रचार में ‘विकास’ के नारे को हटाकर उसकी जगह पर बहुसंख्यकवादी दुहाई को बैठाने का यह नुस्खा मोदी की भाजपा ठीक उस समय आजमा रही थी, जब देश के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में लेखक, कलाकार, अकादमिके आदि, आदि, सभी क्षेत्रों की जानी-मानी प्रतिभाओं द्वारा भाजपा के राज में देश में बढ़ती असहिष्णुता पर और धर्मनिरपेक्षता व जनतंत्र पर बढ़ते हमलों पर, अपने पुरस्कार वापस करने समेत विभिन्न तरीकों से अपनी गहरी चिंता जतायी जा रही थी। याद रहे कि बौद्धकों-सर्जकों की इन चिंताओं को बिहार के चुनाव को भाजपा के खिलाफ प्रभावित करने की कोशिश करार देने के बावजूद, मोदी की भाजपा को लगभग खुल्लमखुल्ला सांप्रदायिक दुहाई का सहारा लेने में कोई संकोच नहीं हुआ। वास्तव में आने वाले दिनों के लिए सबसे बड़ा इशारा इसी में छुपा हुआ है। यहां से आगे, जनता को विकास के नारों से प्रभावित करने में ज्यादा से ज्यादा असमर्थ होने जा रही मोदी की और आरएसएस की भी भाजपा, सांप्रदायिकता का ही ज्यादा से ज्यादा सहारा ले रही होगी। बिहार की हार के बाद, भाजपा में और आरएसएस-भाजपा के बीच के समीकरणों में आए बदलाव भी, उसे ठीक इसी दिशा में धकेलने जा रहे हैं। यह आने वाले दिनों को देश और जनता के लिए और ज्यादा चुनौतीपूर्ण भी बना देगा, हालांकि सांप्रदायिकता तथा असहिष्णुता का विरोध करने वाली ताकतों में नया उत्साह भी पैदा करेगा।