तानाशाही तामझाम है, देशभक्ति का नारा!
इस हमले को वामपंथ बनाम देशभक्ति का झगड़ा बनाकर, इसे किसी हद तक स्वीकृति दिलाने का संघ परिवार का खेल कामयाब नहीं होने वाला है
राजेंद्र शर्मा
संयोग ही नहीं है कि देश के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय इस समय मोदी सरकार का हमला झेल रहा है। और यह भी संयोग नहीं है कि इस हमले ने सबसे बढ़क़र अपनी छात्र राजनीति के लिए, वामपंथ का गढ़ माने जाने वाले इस विश्वविद्यालय पर ही, देश में इमर्जेंसी लगने के साथ हुए हमले की याद दिला दी है। जैसे इमर्जेंसी में हुए हमले से समानता को पूरा करने के लिए ही, दिन-दहाड़े विश्वविद्यालय परिसर ने सदी वर्दी में पुलिसवालों ने, बिना कोई गिरफ्तारी वारंट दिखाए, छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को उठा लिया। इससे पहले इमर्जेंसी में ही ऐसा हुआ था, हालांकि तब भी संजय गांधी की पुलिस छात्र संघ के अध्यक्ष की जगह, एक और

एसएफआइ नेता को उठा ले गयी थी। भूमिगत रहकर काम कर रहे एसएफआइ के छात्रसंघ अध्यक्ष को इसके भी कई महीने बाद ही गिरफ्तार किया जा सका था।
इमर्जेंसी प्रकरण की ही तरह इस बार भी छात्र नेताओं की तलाश में पुलिस ने सूचियां लेकर होस्टलों में छापामारी की है। यहां तक कि छात्राओं के होस्टलों में भी मर्द पुलिसवालों ने छापामारी की है। खुद दिल्ली के पुलिस आयुक्त, बस्सी के बयान के अनुसार पुलिस अभी तक पकड़ में न आए छात्रों के परिवारवालों पर दबाव डाल रही है, ताकि और गिरफ्तारियां कर सके।
बेशक, सरकार के दबाव में और मोदी सरकार द्वारा हाल में ही नियुक्त किए गए, आरएसएस से जुड़े विज्ञान संगठन से संबद्ध नये वाइसचांसलर के नेतृत्व में, विश्वविद्यालय प्रशासन एक बार फिर, विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के तकाजों को ताक पर रखकर, केंद्र सरकार का मनचाहा करने में जुटा है।
बहरहाल, इमर्जेंसी प्रकरण से समानता की इस कहानी का दूसरा पहलू भी इतना ही महत्वपूर्ण है। आरएसएस के छात्र संगठन एबीवीपी के अपवाद को छोडक़र, जो खुल्लमखुल्ला इस हमले में शासन के बाजू के तौर पर ही काम कर रहा है, जेएनयू का समूचा शिक्षा परिवार, जिसमें शिक्षक समुदाय भी छात्रों जितना ही मुखर है, केंद्र सरकार के इस हमले के खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। छात्रसंघ अघ्यक्ष की गिरफ्तारी के बाद से विश्वविद्यालय में शैक्षणिक काम-काज तो पहले ही लगभग बंद था, 15 फरवरी से बाकायदा विश्वविद्यालय में हड़ताल हो रही है। पुन: अपवादस्वरूप एबीवीपी को छोडक़र, देश के समूचे छात्र आंदोलन ने और कार्पोरेट मीडिया को छोडक़र, आमतौर पर समूचे बौद्धिक समुदाय ने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय पर इस दमनचक्र पर अपना विरोध दर्ज कराया है। इतना ही महत्वपूर्ण यह कि इस हमले के लिए, देशभक्ति के पाखंड की आड़ लेने की मोदी सरकार और आमतौर पर संघ परिवार की कोशिशों की काट करते हुए, एक ओर वामपंथी पार्टियों तथा जनता दल यूनाइटेड जैसी जनतांत्रिक पाॢटयों ने ही नहीं, कांग्रेस ने भी जोरदार तरीके से विरोध की आवाज उठायी है। जेएनयू में हुई विशाल विरोध सभा में सी पी आइ (एम) महासचिव तथा अन्य वामपंथी व जनतांत्रिक नेताओं के साथ शामिल होकर, राहुल गांधी ने साफ कर दिया कि इस हमले को वामपंथ बनाम देशभक्ति का झगड़ा बनाकर, इसे किसी हद तक स्वीकृति दिलाने का संघ परिवार का खेल कामयाब नहीं होने वाला है। उल्टे जनमत का बड़ा हिस्सा इसे तानाशाही के बढ़ते कदमों के संकेत के रूप में ही देख रहा है। सीताराम येचुरी का इस हमले के प्रसंग में इमर्जेंसी की याद दिलाना, वाकई जनमानस को छू गया है।
जेएनयू हमेशा से संघ परिवार की आंखों में खटकता रहा है।
जैसाकि हमने शुरू में ही कहा, इसमें रत्तीभर संयोग नहीं है कि जेएनयू मोदी के संघ राज के निशाने पर है। सिर्फ अपनी वामपंथी छात्र राजनीति के लिए ही नहीं बल्कि आमतौर पर वामपंथी विचारों की मुखरता के लिए, जिसमें समानता के साथ ही, धर्मनिरपेक्षता तथा जनतंत्र के मूल्यों का मुखर आग्रह भी सन्निहित है, जेएनयू हमेशा से संघ परिवार की आंखों में खटकता रहा है। इन बुनियादी मूल्यों पर टिके अपने खुलेपन तथा प्रबल जनतांत्रिकता व बहुलता में, जहां जेएनयू विचारों के मुक्त आदान-प्रदान के केंद्र के रूप में विश्वविद्यालय के आदर्श को बहुत हद तक पूरा करता है, संघ के हमी-हमवादी विचार से उसका मेल बैठ ही नहीं सकता था। इसलिए, जेएनयू की परिकल्पना ही हमेशा से संघ परिवार के निशाने पर थी। सिर्फ वामपंथी विचारों ही नहीं आम तौर पर जेएनयू के उन्मुक्त वातावरण के खिलाफ दुष्प्रचार हमेशा से संघ के रोजमर्रा के काम का हिस्सा बना रहा है। इस प्रचार की प्रकृति का एक और उदाहरण इसी बीच हरियाणा के मुख्यमंत्री के पूर्व-ओएसडी ने जेएनयू की प्रदर्शनकारी छात्राओं को ‘वेश्या’ कहकर हाथ के हाथ पेश भी कर दिया है। इसमें नया यह है कि जब छात्र संघ के पिछले चुनाव से यह साफ हो गया कि मोदी राज के माध्यम से, सबसे प्रत्यक्ष रूप से केंद्र में सत्ता में पहुुंचकर भी संघ, चुनाव के जरिए छात्र संघ पर और आम तौर पर जेएनयू पर कब्जा नहीं कर सकता है, तो उसे केंद्र के दमनतंत्र का सहारा लेना ही था। संघ का सर्वसत्तावादी विचार यह स्वीकार ही नहीं कर सकता है कि कहीं भी, कोई भी ‘अन्य’ विचार बना रहे।
यह हमला जेएनयू तक ही सीमित नहीं है।
बेशक, यह हमला जेएनयू तक ही सीमित नहीं है। उल्टे मोदी सरकार ने करीब पौने दो साल के कार्यकाल में उच्च शिक्षा संस्थाओं में जितनी अस्थिरता पैदा की है, अपने आप में एक रिकार्ड है। यह अस्थिरता, इन संस्थाओं पर कब्जे की संघ की कोशिशों से पैदा हुई है। शोध तथा संस्कृति की संस्थाओं में संघ-अनुमोदितों को भरने की मुहिम का ही पूरक होते हुए भी, उच्च शिक्षा संस्थाओं पर संघ का कब्जा आसान साबित नहीं हो रहा है। इस मुहिम में संघ परिवार को छात्र आंदोलन के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। पहले पुणे स्थित फिल्म और टेलीविजन संस्थान में सवा सौ दिन से ज्यादा चला आंदोलन, फिर मद्रास आइआइटी में आंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल के दमन की कोशिश तथा उसका प्रतिरोध, फिर हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में दलित स्टूडेंट्स एसोसिएशन पर हमला, जिसकी परिणिति रोहित वेमुला को आत्महत्या करने पर मजबूर किए जाने में हुई और अब जेएनयू पर हमला, इसी सिलसिले की कुछ महत्वपूर्ण कडिय़ां हैं। इन सभी मामलों में एक चीज समान है। वह है संघ के रास्ते में आने वाले सभी के खिलाफ और खासतौर पर वामपंथियों तथा रैडीकल आंबेडकरवादियों के खिलाफ, ‘राष्टï्रविरोधी’ या ‘आतंकवादी समर्थक’ के ठप्पे का इस्तेमाल। इसका सिर्फ एक ठप्पा या बहाना होना इसी बात से साफ हो जाता है कि जेएनयू में छात्रसंघ से स्वतंत्र रूप से हुए एक छुटपुट आयोजन में, जिसे एबीवीपी की प्रशासन से पाबंदी लगवाने के जरिए रोकने की कोशिशों से ही ज्यादा प्रचार मिला था, जिस तरह के नारे लगने को ‘‘राष्टï्रद्रोह’’ का सबूत बनाकर, आमतौर पर जेएनयू को तथा खासतौर पर वामपंथ को वैचारिक के साथ-साथ शासन के हमले का भी निशाना बनाया गया है, उन नारों की परिसर के मुख्य वामपंथी संगठनों में से किसी की भी राजनीति में गुंजाइश नहीं है-न एसएफआइ, न एआइएसएफ और न आइसा! यह अच्छी तरह जानते हुए भी संघ और उसके द्वारा नियंत्रित शासन द्वारा यह खेल, वामपंथ को राष्टï्रविरोधी कहकर बदनाम करने के लिए ही खेला जा रहा है। इसका न राष्टï्र से कुछ लेना-देना है, न राष्टï्रवाद से।
यह संयोग ही नहीं है कि हमने मद्रास आइआइटी से लेकर, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के होकर अब जेएनयू तक, अफजल गुरु की फांसी से लेकर मुजफ्फरनगर के दंगों तथा मोदी सरकार के कदमों के विरोध तक को ‘‘राष्ट्रविरोध’’ या ‘‘देशद्रोह’’ का अपराध बनाए जाने का खेल देखा है। वास्तव में ये तो सिर्फ ऐसे उदाहरण हैं जिनमें सीधे-सीधे मोदी सरकार ने अपनी ताकत इस्तेमाल किया है। वर्ना ऐसा लगता है कि देश भर में उच्च शिक्षा संस्थाओं में एबीवीपी-संघ ने खुद को ‘सत्ताधारी पार्टी’ घोषित कर दिया है और विभिन्न स्तरों पर प्रशासन, उनके विरोधियों को दबाकर, उनके लिए जगह बनाने में लगा है। यही चीज है जो इस हमले को इमर्जेंसी से भिन्न और कहीं ज्यादा खतरनाक बना देती है। जेएनयू की ही बात करें तो इमर्जेंसी निजाम ने अपने सारे जनतंत्रविरोधी हमले के बावजूद, एनएसयूआइ का तथा आम तौर पर तत्कालीन शासन के विचारों का दखल कराने की कोशिश नहीं की थी। संघ परिवार की तानाशाही के खतरे और देश ने अब तक तानाशाही के जितने भी रूप देखे हैं उनमें, यही तात्विक अंतर है। यहां ‘हिंदू राष्ट्र’ के निर्माण का एजेंडा है। फिर भी जब इमर्जेंसी में शासन की बंदूक कामयाब नहीं हुई तो अब कैसे कामयाब होगी! जेएनयू पर हमले पर हुई व्यापक प्रतिक्रिया से ऐसा ही लगता है। बाबा नागार्जुन की वाणी में जबर्दस्त भविष्यवाणी भी है-जली डाल पर बैठकर गई कोकिला कूक, बाल न बांका कर सकी शासन की बंदूक! 0