मोदी जी, बिहार की खिल्ली मत उड़ाईये। क्यों हुआ शाह और बादशाह की गुजराती केमेस्ट्री का यह हश्र
मोदी जी, बिहार की खिल्ली मत उड़ाईये। क्यों हुआ शाह और बादशाह की गुजराती केमेस्ट्री का यह हश्र

Modi ji, don't ridicule Bihar. Why did this fate of Gujarati chemistry of Shah and Badshah happen?
नई दिल्ली, 10 नवंबर 2015। बिहार विधानसभा चुनाव में शर्मनाक पराजय के बाद हुयी भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक (BJP parliamentary board meeting held after shameful defeat in Bihar assembly elections) में आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट दे दी गयी है, वे हार की वजह नहीं हैं, उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। हार का मुख्य कारण महागठबंधन के समर्थक वोटों का एक दूसरे को ट्रांसफर हो जाना माना गया और राज्य की बिहार इकाई से रिपोर्ट तलब की गई, जिसके बाद हार की वजहों को ठीक किया जायेगा। मौजूदा घटनाक्रम का विश्लेषण कर रहे हैं स्वतंत्र पत्रकार भंवर मेघवंशी
बिहार तुझे सलाम !
लोकसभा चुनाव में चली मोदी लहर में भी बुरी तरह हार जाने वाले अरुण जेटली बिहार की बड़ी हार के कारणों का पता लगायेंगे।
एक तरफ हार के बाद ऐसा ठंडा रवैया अपनाया गया है, तो दूसरी तरफ पार्टी और उसके सहयोगियों के मध्य घमासान मचा हुआ है। हारते ही भाजपा की दुश्मन किस्म की दोस्त पार्टी शिवसेना ने इसके लिए नरेन्द्र मोदी को दोषी बता दिया।
पूर्व गृह सचिव रहे पार्टी सांसद आर के सिंह ने भी कई गंभीर आरोप पार्टी नेतृत्व पर लगाये, उन्होंने तो चुनाव पूर्व टिकट बेचे जाने और अपराधियों को ज्यादा मौके देने तक की बातें उठाई थी। फिल्म अभिनेता और वरिष्ठ भाजपा नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने कहा कि अगर जीत की ताली कैप्टेन को तो हार की गाली भी कैप्टेन को ही मिलेगी।
सिन्हा ने साफ-साफ कहा कि गैर बिहारी पार्टी नेताओं ने आकर बिहार का चुनाव संभाला, जिन्हें यहाँ का भूगोल तक नहीं मालूम वो चुनाव संचालन कर रहे थे। हम जैसे स्थानीय लोगों को जानबूझ कर दूर रखा गया। हुकुमदेव नारायण सिंह और जीतन राम मांझी मोहन भागवत को दोषी ठहरा रहे हैं। उमा भारती का सारा आक्रोश शत्रुघ्न सिन्हा पर है कि उनकी साजिशों ने बिहार में बड़ी हार करवा दी है। कुल मिलाकर भाजपा के अन्दर और एनडीए गठबंधन के बाहर महासंग्राम मचा हुआ है।
राजनीति के शोधार्थी, चुनाव विशेषज्ञ और नेता तथा मीडियाजन तरह-तरह के तर्क दे कर इस हार जीत के पक्ष-विपक्ष को समझाने की कवायद में जुटे हुए हैं। बधाईयाँ दी और ली जा रही हैं। कहा जा रहा है कि बिहार ने मोदी के रथ को ठीक उसी प्रकार रोक लिया है, जिस प्रकार मोदी के एक वक़्त के राजनितिक गुरु लाल कृष्ण अडवानी का रथ इसी बिहार के समस्तीपुर में लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया था। बहुत सारे लोगों ने इसे कट्टरपंथी ताकतों पर उदारवाद की जीत भी निरुपित किया है, बहुतों को लगता है कि यह ध्रुवीकरण की हिंसक राजनीति को नकारने का जनादेश है, कुछेक लोग इन बातों से इतर सोचते है और उन्हें इन चुनाव परिणामों में कुछ भी नया, क्रन्तिकारी और आशावादिता से भरा हुआ नजर नहीं आता है, उनके मुताबिक यह परिणाम भी वैसे ही है, जैसे कि अन्य चुनाव होते हैं।
अपनी-अपनी जगह हर बात ठीक बैठती है, फिर तर्क तो वैसे भी किसी के वफादार नहीं होते है, वे सबके लिए सब जगह काम आते रहते हैं और फिर राजनीति किन्हीं तर्कों पर टिकी ही कहाँ है, वह कब तार्किक रही है।
जो लोग राजनीति को गणित समझ रहे थे, उन्हें भी बिहार परिणामों के बाद लगने लगा कि यह एक और एक दो होने का मामला नहीं है। यहाँ एक और एक चार भी हो सकते है और शून्य भी। जिन्हें चुनाव सिर्फ प्रबंधन का मामला लगता था, वे भी विभ्रम के शिकार है, उनका सारा प्रबंधन कौशल धराशायी नजर आ रहा है। बिहार चुनावों ने राजनीति को विज्ञान, गणित, तर्क और प्रबंधन से परे की वस्तु बनाने का काम कर दिया लगता है। राजनीति के विद्वतजन फिर से परिभाषाएं गढ़ने का प्रयास करेंगे, मगर विश्व की सबसे बड़ी मिस्ड कॉल पार्टी की चूलें जरुर हिली हुयी है। अन्दरखाने हाहाकार मचा हुआ है कि महामानव मोदी का तिलिस्म इतना जल्दी कैसे टूट गया है ?
शाह और बादशाह की गुजराती केमेस्ट्री का यह हश्र क्यों कर हुआ है। कारणों की खोज जारी है।
भाजपा- संघ ने बिहार जीतने के लिए क्या-क्या नहीं किया ? जीतन राम मांझी को पटाया ताकि नितीश कुमार के किले में सेंध लगा कर उन्हें उन्हीं के घर में धराशायी किया जा सके। बेचारे से अलग पार्टी बनवाई। खानदानी राजनीति के आधुनिक प्रतीक रामविलास पासवान को साथ लिया और जातिवादी राजनीति में निष्णात उपेन्द्र कुशवाह से हाथ मिलाया गया, मुलायम पर सीबीआई का डंडा चलाकर उनको अलग किया गया। कई सारे वोटकटवा कबाड़े गए। इस तरह भाजपा का गठबंधन मैदान में उतरा।
अपनी पूर्व स्थापित छवि को पुनः स्मरण करते हुए भाजपा ने अधिकांश उम्मीदवार सवर्ण समुदाय से चुने, वह अगड़ों तथा दलितों की गोलबंदी की कोशिश में लगी ताकि पिछड़ों को पछाड़ा जा सके। मुखौटा भले ही विकास का था मगर असली मुख जाति और धर्म का ही था। ले दे कर वही अगड़ा- पिछड़ा, गाय -बछडा की बयानबाज़ी चलती रही। प्रधानमंत्री ने अपने स्वाभाविक दंभ में बिहार के डीएनए पर प्रश्न चिन्ह लगाने की भूल कर ही दी, उनका बिहार को दिया गया पैकेज भी उल्टा ही पड़ा, उसे बिहार की बोली लगाना समझा गया तथा उससे भी ज्यादा यह माना गया कि यह वोट खरीदने का घटिया प्रयास है।
मोदीजी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी, प्रधानमंत्री ने 30 के लगभग रैलियां कीं तो अमित शाह ने 80 रैलियों को संबोधित किया। भाजपा गठबंधन के दर्जनों हेलीकाप्टर आसमान में मंडराते रहे, लाखों की भीड़ भरी रैलियों के ज़रिये भाजपा ने यह भ्रम फैलाया कि उसकी एकतरफा जीत को कोई ‘माई का लाल’ नहीं रोक सकता है, पर हुआ उल्टा ‘ मायी के लालू‘ ने इन रैलियो की हवा निकाल दी।
जहां-जहां चरण पड़े मोदी के
बताया जा रहा है कि जिन क्षेत्रों में मोदी की रैलियां हुयी, वहां अधिकतर जगहों पर उनका गठबंधन हार गया। सबसे मज़ेदार तथ्य तो यह है कि समस्तीपुर, जहाँ प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी सभा हुयी, उस जिले में एक भी सीट पर भाजपा के उम्मीदवार नहीं जीत पाए।
मतलब यह था कि लोग गाड़ियों में भर-भर कर लाये जा रहे थे, उनको मोदी-मोदी करना था। स्थानीय वोटर से किसी को कोई लेना देना ही नहीं था। एक हवा बनायीं जा रही थी, जैसी लोकसभा चुनाव के दौरान बनायीं गयी थी ठीक वैसी ही। इसमें मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी शामिल रहा, उसने भी तरह तरह के सर्वे, रायशुमारियां और एक्जिट एवं ओपिनियन पोल कर कर के उसी पूर्व निर्मित हवा को हवा दी, मगर बिहार की जनता ने सारे अनुमान, पोल, सर्वे और अंदाजों को हवा में उड़ा दिया। वे मोदी को देखने तो पहुंचे मगर उनके मन में कहीं नितीश कुमार बसे हुए थे। जब वोट देने का मौका आया तो वो बाहरी मोदी को भूल गए। उन्हें अपना बिहारी बाबु याद रहा और उन्होंने एक ही झटके में बाहरी बनाम बिहारी का मुद्दा सुलझा लिया।
भाजपा की जननी संघ के पितृपुरुष अतिमानव मोहन भागवत द्वारा आरक्षित वर्गों के विरुद्ध शुरू की गयी मुहिम का भी बिहार की जनता ने भ्रूण नाश कर दिया। भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने का राग छेड़ा, क्योंकि बिहार में आरक्षण विरोधी तबका पूरी तरह से उनके साथ खड़ा था, उसे मैसेज देने की कौशिश आर एस एस प्रमुख ने की, उनके समर्थक उसका फायदा लेते इससे पहले ही लालू ने इसे लपक लिया और उसका ऐसा करारा जवाब दिया कि भाजपा बैकफुट पर आ गयी, उसके लिए ना उगलते बना और ना ही निगलते। प्रधानमंत्री तक को कहना पड़ा कि आरक्षण के लिए मैं जान की बाज़ी तक लगा सकता हूँ। पर बिहार की समझदार जनता ने इनकी जान ही निकाल दी और जो बाज़ी बची रही वह परिणामों में हार गए।
यह सही है कि मोदी का तिलिस्म टूट रहा है और यह पहली बार नहीं है। दिल्ली के विधानसभा चुनावों को इसका प्रारम्भ बिंदु माना जा सकता है। उसके बाद उतरप्रदेश में हाल ही में हुए पंचायती राज के चुनाव भी एक संकेत देते हैं, वहां पर तमाम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बावजूद बसपा ने 80 % जगहों पर कब्ज़ा कर लिया। मोदीजी के गृह क्षेत्र बनारस में भाजपा बुरी तरह से हारी, यहाँ तक कि जिस गाँव को मोदीजी ने आदर्श गाँव के तहत गोद लिया, उसका पंचायत प्रधान भी बसपा का बन गया, गोद लिए गाँव ने भी मोदी को नकार दिया। केरल में वामपंथी गठबंधन ने पंचायत एवं निगम चुनावों में सर्वाधिक स्थान हासिल किये और अब बिहार ने 56 इंच के सीने को सिर्फ 58 सीट पर ला पटका। उनके सहयोगी जीतन राम मांझी की पार्टी से वे ही जीत पाए इस तरह ‘हम’ सिर्फ ‘मैं’ में बदल गयी, वैसे तो मांझी की नाव उनके पुराने क्षेत्र मखदुमपुर में ही डूब गयी थी, मगर इमामगंज ने उनकी लाज बचा ली, वरना हम पार्टी का राजनितिक पटल पर पटाक्षेप ही हो जाता। भाजपा गठबंधन में शामिल सबसे बड़ी वंशवादी पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी की खानदानी राजनीति का सूरज डूबता नजर आया। खुद पार्टी अध्यक्ष और बेटा संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष फिर भी अपने भाई, भतीजे और दामादों को नहीं जीता पाये पासवान।
गजब तो यह भी हुआ कि कट्टरपंथी और बेलगाम भाषा के संघी मुस्लिम संस्करण ओवैसी की पार्टी एमआईएम मुस्लिम बहुल इलाके में भी अपना खाता नहीं खोल पाई। बिहार के हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर दोनों तरफ के कट्टरपंथी तत्वों को सरेआम नकार दिया।
बिहार का सन्देश
बिहार का सन्देश साफ है कि वह सामाजिक न्याय पर आधारित विकास का समर्थन करता है, उसे विकास का नितीश कुमार मॉडल पसंद है, वह विकास के गुजराती संस्करण को नकारता है, उसे दंभ की राजनीति नहीं चाहिए, उसे गौमांस, पाकिस्तान और जंगलराज के नाम पर भ्रमित नहीं किया जा सकता है, वह एक सहिष्णु और सेकुलर भारत का तरफदार है, उसे हवा हवाई नारेबाजी और कथित विकास की शोशेबाजी प्रभावित नहीं कर सकती है।
मोदी की साईबर सेना ऑनलाइन गुंडागर्दी पर उतर आई है
बिहार की जनता का निर्णय एक परिपक्व राजनीतिक फैसला है, जिसके लिए पूरे देश के सोचने समझने वाले लोग बिहार का आभार प्रकट कर रहे है, जबकि दूसरी ओर मोदी की साईबर सेना ऑनलाइन गुंडागर्दी पर उतर आई है। चुनाव परिणाम के बाद से ही बिहार और बिहारियों की अस्मिता और स्वाभिमान को जमकर चोट पंहुचायी जा रही है। कोई कह रहा है कि तकदीर बनाते वक़्त खुदा बिहार को भूल गया था, किसी को लगता है कि जब बुद्धि बंट रही थी तब बिहारी कहीं सोये हुए थे। कोई भक्त कोशी नदी माई से विनती कर रहा है कि इस बार बाढ़ से बिहारियों के घर संपत्ति नष्ट कर देना। किसी कि भगवान से इल्तजा है कि लालू को वोट देने वाले दुर्घटनाग्रस्त हो कर लूले लंगड़े हो जाये। किसी को बिहार के लोग अब लुंगी छाप लगने लगे है, तो कैलाश विजयवर्गीय टायप के भाजपा नेताओं को शत्रुघ्न जैसे बिहारी कुत्ते जैसे लग रहे है। अधिकांश नमो भक्तों ने चुनाव परिणाम के बाद यह लिख कर अपने कलेजे को ठंडक पंहुचायी है कि चलो अच्छा ही हुआ अन्य राज्यों को सस्ती लेबर आगे भी मिलती रहेगी।
बिहार और बिहारियों को कितनी गालियाँ और देंगे मोदी भक्त ?
पता नहीं बिहार और बिहारियों को कितनी गालियाँ और देंगे मोदी भक्त ? कहीं बिहार को ललकारना और अधिक भारी ना पड़ जायें उन्हें ? बिहारियों की मेहनत और जिजीविषा का जवाब नहीं है, वे जहाँ चाहे वहां राहें निकाल लेते है। उनकी राजनितिक समझ भी पूरे देश की राजनितिक चेतना से अलग और परिपक्व है, यह वे साबित कर रहे है। नमो भक्त शायद भूल रहे है कि बिहार सिर्फ सस्ते श्रमिक ही नहीं देता बल्कि सबसे ज्यादा भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी भी देता है। यह वही बिहार है जिसने आडवानी की साम्प्रदायिकता का रथ जाम कर दिया था। इसी बिहार के एक सपूत जयप्रकाश नारायण ने लोकतंत्र पर हुए आघात का जमकर प्रतिकार करने के लिए आपातकाल के खिलाफ जनआन्दोलन चलाया और लोकनायक बन कर देश को दिशा दी थी। इसी बिहार ने तथागत बुद्ध और महावीर से देश को परिचित कराया था। नालंदा का विश्वविद्यालय क्या सिर्फ कल्पना है ? ये वो ही बिहार है जहाँ के हजारों मुसलमानों ने भारत के बंटवारें के विरुद्ध दिल्ली पंहुच कर प्रदर्शन किया था।
बिहार सिर्फ वो ही नहीं है जो आज मीडिया हमें परोसता है, बिहार एक सांस्कृतिक राजनितिक विचार है, जो विश्व के जिस भी कोने में जाता है अपने झंडे गाड़ता है। मोदी जी, उसकी खिल्ली मत उड़ाईये। बिहार कोई खमण ढोकला नहीं है, जिसे हर कोई खा जाये। बिहार का एहतराम कीजिये, बिहारियों के फैसले को सिर माथे से लगाईये ताकि आपकी आगे की राजनीति का रास्ता सुगम हो सके।
बिहार के निर्णय ने साम्प्रदायिकता की अनुदार विचारसरणी को नकारने का रास्ता दिखाया है, उसने सर्वनाशी विकास की अवधारणा और मजहब आधारित राजनीति की संभावनाओं को नकारा है और देश को एक दिशा दी है। इसीलिए आज बिहार को सलाम करने का दिल करता है। बिहार से सीखने का मन होता है और बिहार के सन्देश को देशव्यापी बनाने की इच्छा होती है।
- भंवर मेघवंशी, स्वतंत्र पत्रकार


