#modi, #Rahul, #Rally, #Media, #BJP, # Congress, #event

राष्ट्रीय फलक पर मोदी के लिये चुनौती तो राहुल ही हैं
अंबरीश कुमार
लखनऊ 10 फरवरी। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को अब कुछ राज्यों में कांग्रेस से चुनौती मिलने लगी है। देर से ही सही पर अब राहुल गांधी ने भी अपना तेवर दिखाना शुरू कर दिया है और यह शुरुआत मोदी के गढ़ से ही हुयी है। गुजरात की रैली में राहुल गाँधी अपने कील काँटों के साथ उतरे और किसी मंजे हुये नेता की तरह ही बोले। अभी तक जो लोग मोदी की भाषण शैली से बहुत प्रभावित थे उन्होंने भी माना कि राहुल मुकाबला शुरू कर रहे हैं। बाद में ओड़िसा की रैली में राहुल गाँधी ने फिर यह दोहराया। यह चुनाव कारपोरेट घरानों और बड़ी विज्ञापन एजेन्सियों, इवेंट कम्पनियों, पीआर एजेन्सियों और मीडिया के जरिए भी लड़ा जा रहा है जिसमें पीछे चल रही कांग्रेस अब उठ रही है।
चुनाव की घोषणा से पहले का दौर मोदी के नाम रहा, जिसमें मीडिया की और इवेंट कम्पनियों की बड़ी भूमिका थी। कैसे चालीस-पचास हजार की भीड़ को लाखों की भीड़ बताया जाये और मोदी उसे देखते ही बोले ' देश ने तो फैसला कर लिया है।' यह भ्रम दिल्ली से से लेकर कोलकोता तक चला और शायद ही किसी ने मोदी की रैलियों में जुटाने वाली भीड़ का सही आकलन किया हो।
पिछले दिनों जब वाराणसी में मोदी की रैली हुयी तो एक छोटे से अखबार 'जनमुख' ने इसका पर्दाफाश किया। यह अखबार समाजवादी नेता राजनारायण के परिजनों का है। इसने बताया कि रैली में पचास हजार से कम लोगों के आने पर अमित शाह प्रदेश नेताओं पर कैसे भड़क गये थे। इसके बाद दूसरा उदाहरण कोलकोता है जिसकी पोल इंडियन एक्सप्रेस ने फोटो छाप कर खोल दी और भीड़ वही पचास हजार से नीचे की, जिसे देख मोदी बोले थे अब देश ने फैसला कर लिया है।
रविवार को वाम दलों की रैली ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी जिसमें तीन लाख से भी ज्यादा लोग आए थे। यह तो रहा भीड़ का मीडिया मैनेजमेंट का खेल। हमने कभी नहीं सुना कि राहुल गाँधी या सोनिया गाँधी ने भीड़ की संख्या पर कोई अहंकार दिखाया हो। दिल्ली में बोट क्लब पर टिकैत की रैली की जो खबर लिखी थी उसमें पाँच लाख किसानों के आने का जिक्र किया था, पर न्यूज़ रूम में बहस हुयी और मैदान का आकर और उसके हिसाब से आने वालों की संख्या का अनुमान लगाकर जनसत्ता में साढ़े तीन लाख लिखा गया था।
वर्ष 2000 -2001 के दौर में इन्डियन एक्सप्रेस के लिये छतीसगढ़ में सोनिया गाँधी की रैलियों की कवरेज करते हुये जो भीड़ देखी थी वह भीड़ आज भी मोदी की सभाओं में कम दिखती है। अपवाद गोरखपुर की रैली थी जिसमे करीब दो लाख लोग आए थे। ऐसे ही वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में पूर्वांचल में सोनिया गाँधी की चुनावी रैलियों की कवरेज की तो सभी जगह भारी भीड़ दिखी, यह बात अलग है वह चुनाव में सीटों में तब्दील नहीं हो पाई। इसलिये भीड़ से नतीजों का आँकलन बहुत सही हो यह जरूरी नहीं। पर भीड़ को लेकर भाजपा खासकर मोदी में अजीब किस्म का अहंकार दिख रहा है।
राहुल सिर्फ इस मामले में ही नहीं, कई मामलों में मोदी पर भारी पड़ते है। कांग्रेस के विज्ञापन बनाने वालों ने इसे पकड़ा और प्रचार शुरू हो गया 'कट्टर सोच नहीं युवा जोश।' अब वरिष्ठ नागरिकों के जमावड़े वाली भाजपा जिसके नेतृत्व की अगली कतार में ज्यादातर सत्तर पार हों, मसलन मोदी समेत कल्याण सिंह, मुरली मनोहर जोशी, आडवाणी, कलराज मिश्र टंडन आदि तो 'युवा जोश' वाला जुमला तीखा हमला करता नजर आता है। फिर राहुल गाँधी आज की कांग्रेस के अकेले नेता हैं जो गाँव किसान तक पहुँचे और उनकी थाली में ही खाना खाया और खेत खलिहान में सोए। इसका मजाक भले उड़ा लें पर किसी भी दल में गाँव तक जाने वाले राष्ट्रीय नेता अब नहीं मिलते हैं।
आदिवासी दलित परिवारों के बीच राहुल गाँधी ज्यादा ईमानदारी से पहुँचे। यह सब संगठनात्मक कमजोरी से भले ही वोट में ना बदले पर असर तो देर सबेर पड़ेगा ही। वैसे भी मोदी को राष्ट्रीय फलक पर चुनौती राहुल गाँधी ही दे रहे हैं, क्षेत्रीय क्षत्रप तो अपने राज्यों से बाहर कोई ताकत नहीं बना पाए हैं, यह भी वास्तविकता है।
जनादेश न्यूज़ नेटवर्क
अंबरीश कुमार, लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। छात्र राजनीति के दौर से ही जनसरोकारों के पक्षधर रहे हैं। मीडिया संस्थानों में पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे हैं।