मोदी साहब केवल देश ही नहीं बेच रहे, बल्कि उसे बांट भी रहे
मोदी साहब केवल देश ही नहीं बेच रहे, बल्कि उसे बांट भी रहे
महेंद्र मिश्र
मोदी साहब केवल देश ही नहीं बेच रहे हैं बल्कि उसे बांटने की भी तैयारी कर चुके हैं।
नगालैंड पर केंद्र और नगा विद्रोहियों के बीच समझौता इसी तरफ इशारा करता है।
बताया जा रहा है कि समझौते में साझी संप्रभुता की बात की गई है। यह अपने आप में भारत के विभाजन की सैद्धांतिक स्वीकारोक्ति है। क्योंकि किसी भी मुल्क की संप्रभुता अक्षुण्ण होती है। उसे बांटा नहीं जा सकता है। और साझा होने का मतलब ही उसका बंटवारा है।
हालांकि केंद्र सरकार की ओर से गृह राज्य मंत्री किरन रिजुजु का बयान आया है, जिसमें उन्होंने अलग झंडे और पासपोर्ट का खंडन किया है, लेकिन साझी संप्रभुता पर कोई टिप्पणी नहीं की है। जबकि नगालैंड के गृहमंत्री ने इशारों में ही इसकी तस्दीक की है।
इसके साथ ही कई दूसरी ऐसी चीजें शामिल की गई हैं, जो किसी भी संप्रभु राष्ट्र के लिए आपत्तिजनक हो सकती हैं। शायद यही वजह है कि पीएमओ पूरे समझौते को बहुत गोपनीय रखे हुए है। यहां तक कि गृहमंत्री तक को इसकी भनक नहीं लग पायी थी। जबकि पूरा मामला उसके अधीन आता है।
बताया जा रहा है कि कुछ प्रावधानों पर संसद की मुहर लगनी बाकी है। जिसके चलते समझौते को अपने अंजाम तक पहुंचने में देरी लग रही है। भारत के मुख्य धारा के मीडिया के लिए भले ही ये खबर न हो, लेकिन उत्तर-पूर्व के प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में यह चर्चा का विषय बना हुआ है।
दो विधान, दो प्रधान और दो निशान का नारा देने वाले संघियों की यही असलियत है।
कश्मीर में संप्रभुता में साझीदारी जैसा कोई प्रावधान भी नहीं है। वह देश का अभिन्न हिस्सा है। यहां तो सैद्धांतिक तौर पर बाकायदा देश के एक और बंटवारे पर मुहर लगाई जा रही है। भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के पीछे भी यही ताकते थीं। दो राष्ट्र का सिद्धांत सबसे पहले किसी और ने नहीं बल्कि इनके पितामह वीर सावरकर ने दिया था। और एक बार फिर ये उसी राह पर अग्रसर हैं।
इसके पहले तमाम क्षेत्रों में 100 फीसदी एफडीआई की अनुमति देकर सरकार ने अपने देश विरोधी मंसूबे जाहिर कर दिए हैं। इसके तहत न केवल देश की धमनियों और शिराओं सरीखे रक्षा और मीडिया जैसे संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशियों के हवाले कर दिया गया है। बल्कि सरकार ने विदेशी पूंजी का तलवा चाटना स्वीकार कर लिया है। दरअसल साम्राज्यवादी ताकतों की गुलामी इनकी राजनीतिक विरासत का हिस्सा है। और समय-समय पर वह अपना रंग दिखाता रहता है।
1857 के बाद से अग्रेंजों के साथ गलबहियां का जो सिलसिला चला तो वह आज तक जारी है। अनायास ही नहीं अंग्रेजों के खिलाफ किसी भी लड़ाई का आरएसएस हिस्सा नहीं बना। और 1942 के भारत छोड़ो के दौरान जब पूरा मुल्क अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सड़क पर मोर्चे ले रहा था तो यह जमात अंग्रेजों के लिए हिंदू सैनिकों की भर्ती के काम में जुटी थी।
जिस संगठन की बुनियाद ही नफरत और घृणा की जमीन पर पड़ी हो उससे किसी प्रेम और सद्भाव की उम्मीद करना बेकार है।
जोड़ना नहीं बल्कि तोड़ना इसकी जेहन का हिस्सा हो चुका है। वह चाहे धर्म के आधार पर हो या कि जाति के। खंड-खंड ही उसका अखंड है। ऐसे में इन ताकतों का एक पल के लिए भी सत्ता में बने रहना न केवल देश के लिए घातक है। बल्कि समाज की बुनियादी एकता के लिए भी खतरनाक है। ऐसे में हर देशभक्त और समाज के पक्ष में सोचने वाले शख्स का यह बुनियादी कर्तव्य हो जाता है कि वह अंधकार की इन काली ताकतों को सत्ता से हटाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दे।


