मोदीजी और किसी से न हो लेकिन पंडित और मुल्ले से कबीर की घोषित दुश्मनी है
मोदीजी और किसी से न हो लेकिन पंडित और मुल्ले से कबीर की घोषित दुश्मनी है
मोदीजी और किसी से न हो लेकिन पंडित और मुल्ले से कबीर की घोषित दुश्मनी है
'कबिरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी ख़ैर/
ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर'
क्या पीएम द्वारा उद्धृत यह दोहा कबीर साहेब का है?
कबीर की सब रचनाएं लोक स्मृति से संकलित की गई हैं। इसलिए प्रामाणिकता का दावा किसी के लिए नहीं किया जा सकता। कबीर कौन थे, इसकी भी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है।
लेकिन कबीर के नाम से प्रसिद्ध अधिकांश साखियों और पदों में एक अद्भुत विचार-संवेदनात्मक संगति मिलती है। यह विचार-संवेदना ही उनकी कसौटी है। जो इसके अनुकूल न हो, वह उनकी रचना नहीं हो सकती।
कबीर ख़ैर तो सबकी मांग सकते हैं, लेकिन क्या वे ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर भी कह सकते हैं? यह सिद्धांत तो किसी बेहद आत्मकेंद्रित व्यक्ति का ही हो सकता है, जो न तो किसी से झगड़ा मोल लेना चाहता है, न किसी के लिए अपनी नींद ख़राब करना चाहता है।
कबीर तो खाने सोने वाली दुनिया के लिए भी जाग कर रोने वाले ठहरे। और किसी से न हो लेकिन पंडित और मुल्ले से उनकी घोषित दुश्मनी है। वैष्णव के प्रति वे उदार हैं,जबकि शाक्त के लिए प्रचंड क्रोधी ।
सबको नाराज़ कर बैठना ही कबीर का शेवा था
कबीर सबको खुश रख कर अपना काम चलाने वाले न थे। उल्टे, सबको नाराज़ कर बैठना ही उनका शेवा था। खास तौर पर उनको, जिनके लिए धर्म जन्नत या स्वर्ग का टिकट मात्र था!
क़बीर के हाथ में लुकाठी थी, कोई फूल न था।
यह लुकाठी कबीर (के निहित स्वार्थों) का घर फूंक कर अब दूसरों को ललकार रही थी।
कबीर खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर जारै अपना सो चले हमारे साथ'


