मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक ज़रूरत है ‘आप’ का उभार
मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक ज़रूरत है ‘आप’ का उभार
‘आप’ के उभार के मायने-1
अभिनव सिन्हा
अन्ततः आम आदमी पार्टी दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण पिछले करीब 16 दिनों से जारी अनिश्चितता ख़त्म हुयी जब अन्ततः आम आदमी पार्टी ने काँग्रेस का समर्थन स्वीकार किया और सरकार बनाने का फैसला किया।
इनमें से पहले दो वायदे ऐसे हैं जिनका पूरा होने का दिल्ली की आम जनता बेसब्री से इन्तज़ार कर रही है और केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे अपने चुनावी वायदों में आधे एक माह में पूरे कर देंगे और बाकी छह महीनों में। अब ‘आप’ के लोग काँग्रेस को कुछ नहीं कह सकते थे (मसलन, कि काँग्रेस की तो आदत ही सरकार गिराने की है, वगैरह) क्योंकि छह महीने से पहले संवैधानिक तौर पर काँग्रेस सरकार गिरा नहीं सकती और केजरीवाल ने अपने वायदे पूरे करने के लिये इतने ही महीने माँगे हैं!
लुब्बोलुआब यह कि सरकार बनाने के अलावा केजरीवाल के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था और अब समस्या यह है कि जो वायदे केजरीवाल ने किये हैं, उन्हें पूरे कर पाना मुमकिन नहीं है। केजरीवाल अब इस उम्मीद में हैं कि अगर वे वायदों के 10 प्रतिशत को भी पूरा कर पाते हैं तो जनता के बीच में कुछ वाहवाही हो जायेगी और काँग्रेस इसी बात से थोड़ा डरी हुयी है। लेकिन दिक्कत यह है कि केजरीवाल जिस आदर्शवादी, श्रीमान सुथरा की छवि बनाकर और काँग्रेस और भाजपा को जिस भाषा में कोसते हुये सत्ता में पहुँचे हैं वह सब कुछ बड़े बारीक सन्तुलन पर खड़ा है, और एक हल्के धक्के से वह ज़मींदोज़ हो सकता है। यही कारण था कि सरकार बनाने के फैसले की घोषणा करने के लिये ‘आप’ ने जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें केजरीवाल समेत सारे ‘आम आदमियों’ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।
बहरहाल, एक बात तो तय है कि भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में ‘आप’ की विजय एक परिघटना है। ‘आप’ की विजय के क्या मायने हैं? ‘आप’ का राजनीतिक चरित्र क्या है? ‘आप’ की पूँजीवादी राजनीति में क्या प्रासंगिकता है? ‘आप’ क्या कोई लघुजीवी परिघटना है या फिर यह भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालिक परिघटना के रूप में आयी है, यह भी एक चर्चा का विषय हो सकता है। इस लेख में हम इन्हीं मुद्दों पर चर्चा करेंगे।
‘आप’ को पहले भी कहीं देखा है…
कई राजनीतिक विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि ‘आप’ का उभार भारतीय राजनीति में एक नयी परिघटना है। उनका मानना है कि इससे भारत में पूँजीवादी चुनावी राजनीति ज़्यादा साफ़-सुथरी बनेगी, ज़्यादा भागीदारीपूर्ण बनेगी, अन्य चुनावी पार्टियों को भी ‘साफ़’ राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा, वगैरह। लेकिन हमें इस पूरे विश्लेषण पर गहरा सन्देह है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य इस विश्लेषण को ग़लत ठहराते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट के दौरों में हमेशा ही निम्न मध्यमवर्गीय आदर्शवाद और उच्च मध्यमवर्गीय प्रतिक्रियावाद का इस्तेमाल करती है। ‘आप’ के मौजूदा उभार के सन्दर्भ में हम पाठकों को सत्तर के दशक के जेपी आन्दोलन और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जुमले और उसके बाद जनसंघ के उभार और जनता पार्टी और उसके बाद भाजपा के उदय की याद दिलाना चाहते हैं।
इस उभार के पीछे एक ओर धुर दक्षिणपंथी ताक़तें खड़ी थीं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के समाजवादी भी खड़े थे। यहाँ पर सामाजिक-जनवाद और फासीवाद के बीच के जैविक सम्बन्ध शायद इतिहास में सबसे खुले तौर पर उजागर हुये थे।
इस समय पूँजीवादी संकट को विद्रोहों और क्रान्तियों की ओर जाने से रोकने के लिये ‘आप’ जैसी पार्टियों की ज़रूरत पूँजीवादी शासक वर्ग को है, और यही बात जेपी आन्दोलन और उसके नतीजे के तौर पर पैदा हुये राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है।
ज़ाहिर है, इतिहास कभी अपने आपको हूबहू दोहराता नहीं है। लिहाज़ा, ‘आप’ का जेपी आन्दोलन, जनसंघ और जनता पार्टी के साथ कोई सादृश्य निरूपण नहीं किया जा सकता है। न ही आज के पूँजीवादी संकट का सादृश्य निरूपण सत्तर के दशक के पूँजीवादी संकट के साथ किया जा सकता है। यहाँ तथ्यों, घटनाओं और दलों में समानता देखने की बजाय, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली पर निगाह डालने की आवश्यकता है। इस रूप में ‘आप’ का उभार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक ज़रूरत के रूप में समझा जा सकता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के विभ्रमों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन्हें बनाये रखने और दीर्घजीवी बनाने का काम करता है। आगे ‘आप’ की पूरी राजनीति को अनावृत्त करते हुये हम इस बात को पुष्ट करेंगे।
आगे भी जारी....
आव्हान के सितम्बर-दिसम्बर 2013 अंक से साभार


