‘‘ अपराधीकरण की राजनीति ’’
राजनीति में अपराधीकरण अब बहुत पुराना टॉपिक हो गया है इस टॉपिक पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अनवरत लिखा जा रहा है। आज मैं इस विषय से हटकर आगे की बात कह रहा हूँ। मैं अपराधीकरण की राजनीति की बात कह रहा हूँ। वैसे देखा जाये तो राजनीति में अपराधीकरण एवं अपराधीकरण की राजनीति एक ही बात है, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का एक-दूसरे से बहुत गहरा सम्बन्ध है, किन्तु अपराधीकरण की राजनीति एक भयावह परिदृश्य है। ऐसी स्थिति तब उत्पन्न होती है जब राजनैतिक दलों के पास सत्ता हथियाने के लिये अपराधियों की मेहरबानी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है चूँकि सत्ता पर काबिज होना जब राजनैतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य रह जाता है तब ही ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।

मैं बात सिलसिलेवार करूँगा। स्वतंत्रता से पहले गाँधी के नेतृत्व में जो जनान्दोलन खड़ा किया गया उसमें शुचिता का बहुत ध्यान रखा गया था। स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक पवित्र लक्ष्य उनके सामने था उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गाँधी ने फौज तैयार की थी जो कि निहत्थी थी जो कि अंग्रेजी बर्बरता का सामना सिर झुका कर करती थी। गाँधी अपने नियमों का पालन इस कठोरता तक करते थे कि जब-जब उनका आन्दोलन हिसंक हो जाता था तब-तब उस आन्दोलन को वह वगैर किसी समीक्षा के वापस ले लेते थे। उग्र स्वभाव के उनके साथी उनके आन्दोलन वापस लेने के निर्णय पर खुलकर उनकी आलोचना भी करते थे, किन्तु गाँधी इस मुद्दे पर टस-से-मस नहीं होते थे। चौरी-चौरा कांड में हिंसा के बाद उन्होंने असहयोग आन्दोलन वापस लिया और अदालत के सामने उन्होंने स्वीकार लिया कि चौरी-चौरा कांड में जो हिंसा हुई, उसके लिये वह स्वयं जिम्मेदार हैं। ब्रिटिश हुकूमत ने ट्राइल के बाद उन्हें सजा भी सुनाई। अदालत में उन्होंने हिंसा के लिये अपने को जिम्मेदार मानते हुये सजा के लिये अनुरोध किया, उनके इस आचरण से उनके अनुयाइयों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। सत्याग्रहियों ने समझ लिया था कि गाँधी जो कहते हैं वह करते हैं। इसलिये देखते-देखते ही उनके इर्द-गिर्द ऐसी फौज खड़ी हो गयी, जिसे हिंसा पर कतई विश्वास नहीं था। गाँधी की मौत के पश्चात उनके अनुयायी 80 के दशक तक काम आये। हिन्दुस्तान में अब अंग्रेज नहीं थे पहले सत्ता का सुख अंग्रेज लिया करते थे अब सत्ता हिन्दुस्तानियों के हाथ में आ चुकी थी। सत्ता पाते ही राजनैतिक दलों में जिन दुर्गुणों की प्रविष्टि होने लगती है वह अब देखने को मिलने लगी थी। राजनेता आराम तलब होने लगे। पर्याप्त संसाधन न होने की वजह से जब जनता का आर्थिक विकास करने में जब वे समक्ष नहीं रहे तो वे एकांतिक हो गये। संसाधनों का दुरूपयोग होने लगा, भाई- भतीजावाद मुखर हो गया, अपने पराये की राजनीति प्रारम्भ हो गयी। पहले नेता चुने जाने के बाद पूरे क्षेत्र की जनता को एक निगाह से देखता था, अब ऐसा नहीं रहा था अब वे उन्हीं लोगों को लाभान्वित कर रहे थे, जिन्होंने चुनावों में उनकी मदद की थी। यह सब संसाधनों की कमी की वजह से ही हुआ। लेकिन नेताओं ने यह भी देखा उनके पास इतने भी संसाधन नहीं हैं कि वे अपने समर्थकों को भी संतुष्ट रख सकें। यहीं से राजनीति में बाहुबलियों को प्रवेश मिला। बाहुवली और अपराधी तत्वों को नेताओं ने आश्वस्त कराया कि आप निश्चिंत होकर राजनीति करें, वोट की गारण्टी वे लेते हैं। नेता भी खुश बाहुबली अपराधी भी खुश। किन्तु यह स्थिति बहुत दिनों नहीं रही। कुछ ही दिनों में बाहुबलियों ने जान लिया कि नेता जी उनकी ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं, अब उन पर ही निर्भर हैं। जैसे ही उन्हें अपनी ताकत का अहसास हुआ, उन्होंने नेताओं को अपदस्थ कर सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली।

मैं अपराधीकरण की राजनीति की बात इसीलिये कर रहा हूँ कि प्रत्येक राजनैतिक दल ने अब इस व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिये हैं। जो भी राजनैतिक दल अपराधीकरण के खिलाफ बोलता है तो वह झूठ बोलता है। नेताओं का अपराधियों के खिलाफ बोलना उनकी मजबूरी है, क्योंकि आज भी देश की जनता अपराधियों को पचा नहीं पाती है, इसलिये राजनैतिक दल चुनावों के समय अपराधियों के खिलाफ बोलते हैं, कसमें खाते हैं कि राजनीति को अपराधियों से मुक्त करायेंगे, लेकिन वे मजबूर हैं, हताश हैं। सत्ता शिखर पर बैठे कई नेता इन अपराधियों से आजिज आ चुके हैं किन्तु उनकी मजबूरी है, वे अपनी अस्मिता को कालान्तर में इन अपराधियों के हाथों में गिरवी रख चुके हैं। अब यह अपराधीकरण की राजनीति का दौर है। राजनैतिक दलों को पहुँचे हुये अपराधियों की तलाश रहती है। इन अपराधियों के सहयोग से वे सत्ता हथिया तो लेते हैं किन्तु इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। संसाधनों की कमी के चलते जब चुनावी वायदे पूरे नहीं होते और सत्ता को बरकरार रखने की लालसा जोर मारती है, तब राजनीति इन बाहुबलियों एवं अपराधियों के सामने घुटने टेकने के लिये विवश होती है।

अनामदास