प्रोजेक्टेड ईमानदार जनांदोलन में न लाल कहीं है और नीला कहीं है।
प्रोजेक्टेड ईमानदार जनांदोलन में तमाम मुद्दों पर खामोशी है और ईमानदारी से विदेशी वित्त पोषित आंदोलन के जरिए केसरिया कारपोरेट राष्ट्रवाद कमल-कमल है।
अब यह बताना मुश्किल है कि कौन सा आंदोलन प्रोजेक्ट है और कौन सा आंदोलन सचमुच जनांदोलन है। हमारे ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ता विदेशी वित्त पोषित एनजीओ से जुड़े हैं । उनमें काफी लोग हैं जो बेहद प्रतिबद्ध हैं, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन उनका आंदोलन किसी प्रोजेक्ट का हिस्सा है, जिसके लिए विदेशी वित्तीय संस्थानों से अनुदान वगैरह मिलता है। एनजीओ के अलावा जो जनसंगठन हैं, वे दरअसल राजनीतिक संगठन हैं और कारपोरेट फंडिंग से चलने वाली राजनीति के एजेंडा मुताबिक वे आंदोलन चलाते हैं।
बीबीसी ने निर्भया ह्त्याकांड पर जो फिल्म बनायी है, वह हमने अभी देखी नहीं है। कहा जा रहा है कि इसमें पुरुष वर्चस्व का असली चेहरा बेनकाब किया गया है। हम भी इस पुरुष वर्चस्व के खिलाफ हैं और बलात्कार से लेकर हर तरह के रंग बिरंगे स्त्री उत्पीड़न के मूल में इसी पुरुष वर्चस्व को जिम्मेदार मानते हैं जो मुक्तबाजार में स्त्री को उपभोक्ता सामग्री बना दिये जाने के तंत्र से अब निरंकुश है।
पूरी फिल्म के संदर्भ से काटकर जैसे बलात्कारी हत्यारे मुकेश सिंह के इंटरव्यू को सनसनीखेज ढंग से प्रसारित कर दिया गया, वह बैहद अश्लील है और इससे पुरुष वर्चस्व का घिनौना चेहरा जरूर बेनकाब हुआ हो, लेकिन यह कुल मामला स्त्री उत्पीड़न का ही बनता है। इसलिए बीबीसी के इस कामर्शियल करतब का जितना विरोध हो कम है।
विडंबना है कि यह विरोध केसरिया राष्ट्रवाद के हिंदुत्ववादी ज्वालामुखी साबित हो रहा है, जिसके तहत भारत सरकार ने इस फिल्म के प्रसारण पर रोक लगा दी है। जबकि यह फिल्म अमेरिका और ब्रिटेन समेत बाकी दुनिया में धड़ल्ले से दिखायी जा रही है।
भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था पर बलात्कार संस्कृति के पुरुष वर्चस्व पर कोई बहस नहीं हो रही है। मनुस्मृति के तहत हर स्त्री के दासी और शूद्र होने की सनातन विरासत के खिलाफ भी आवाज उठ नहीं रही है।
हमने पहले ही लिखा है कि कंडोम लगी साड़ी पहनवाकर स्त्री को बाजार में खड़ा कर दिया जाये और तमाम सांढ़ छुट्टा हो, कामयाबी की शर्त नस्लभेदी गोरापन हो और स्त्री सौदर्य के प्रतिमान अंग प्रत्यंगो की नाप हो तो मुकेश सिंह जैसे चेहरे किसके नहीं हैं, यह पता लगाना मुश्किल होगा।
आज भोर पांच बजे हमारे एक अति घनिष्ठ मित्र ने फोन करके हमें जगाया और कहा कि निर्भया हत्याकांड के बारे में पुरुष वर्चस्व की भूमिका के खिलाफ हमें अपना पक्ष रखना चाहिए।
हमने निवेदन किया कि हम अपना पक्ष स्पष्ट कर चुके हैं और यह विवाद राष्ट्रवादी रंग ले चुका है तो इस सिलसिले में आगे चर्चा करना ठीक नहीं होगा।
मित्र ने तब हैरत में डालते हुए कहा कि हमें तुरंत एक प्रेस कांफ्रेस करना चाहिए। मैं दरअसल ऐसे मीडिया प्रचार मार्फत अपनी बात कहने का अभह्यस्त नहीं हूं जो मुझे कहना लिखना होता है सीधे जनता को संबोधित करके कहता लिखता हूं। मेरे लिए संवाद का दूसरा बाईपास नहीं है।
इस पर अत्यंत समझदार और प्रतिबद्ध हमारे सक्रिय साथी ने जो कहा, उससे मैं दंग हो गया। उनने कहा कि हमारे अमेरिकी मित्र चाहते हैं कि हम यह बहस चलायें।
मुक्त बाजार में संवाद की यह दशा और दिशा है।
दोपहर को असम से एक फोन आया और वहां सक्रिय एक सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि वे अगले हफ्ते कोलकाता आ रहे हैं और मुझसे हर हाल में मिलना चाहते हैं।
मैंने निवेदन किया कि आप पहले आइये, उस वक्त अगर मुझे फुरसत हुई तो अवश्य मिलूंगा।
इस पर उन महाशय ने कहा कि वे असम के दंगो में मारे गये लोगों का शहीद स्मारक बनाना चाहते हैं और कोलकाता में आकर शहीद स्मारक समिति बनानी चाहिए और मुझे उनकी मदद करनी चाहिए।
मैंने असम के दूसरे सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम लेकर उनसे पूछा कि बाकी लोगों से आपने बात की है तो उनने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है। आप हमारी मदद करें।
मैंने कहा कि दंगों को मैं इस तरह नहीं देखता कि किसी समुदाय के मारे गये लोगों के शहीद स्मारक बनाकर हम दंगे रोक लेंगे।
उनने कहा कि मारे गये लोगो को इतिहास में दर्ज कराना बेहद जरूरी है।
इस पर मैंने कहा कि इस तरह के इतिहास निर्माण की मेरी कोई विशेषज्ञता नहीं है और न ही किसी स्मारक समिति के गठन के लिए मेरे पास वक्त है।
ऐसे में यह समझ पाना बहुत उलझी पहेली है कि किस-किस जनांदोलन का हम साथ दें और कैसे हम उनके असली एजेंडे को समझें।
स्त्री पक्ष हमारा पक्ष है।
इस सिलसिले में हम शरत चंद्र के उपन्यासों और कहानियों को नये सिरे से पढ़ने की जरूरत महसूस कर रहे हैं इन दिनों।
जिस देवदास के आत्मध्वंस के लिए शरतचंद्र इतने पॉपुलर हैं आज भी, उसकी पारो ने लेकिन आत्मध्वंस का रास्ता नहीं चुना।
जिस श्रीकांत के किस्से और उसकी बोहेमियन जिंदगी की वजह से शरत बाबू, आवारा मसीहा बन गये, वहां भी राजलक्ष्मी यौनकर्मी होने के बावजूद सामजिक यथार्थ के मुखातिब पूरी संवेदनाओं के साथ युद्धरत है।
जो अभया अपने पति की तलाश में बर्मा मुलुक में चली गयी, वह भी अंततः पति के दूसरी स्त्री से विवाह के यथार्थ से मुखातिब होकर टूटती नहीं है और दूसरे पुरुष के साथ नये सिरे से जिंदगी शुरु करती है।
ताराशंकर की राईकमल और शरतबाबू की कमललता में फर्क लेकिन सामंतीवादी पुरुष वर्चस्व के नजरिये का है।
गृहदाह में स्त्री अपने पति को छोड़कर पुरातन मित्र के साथ निकल जाती है तो चरित्रहीन में अंततः चरित्रहीन पुरुष ही है।
शरत की किसी नायिका ने आत्मध्वंस नहीं चुना और न ही पुरुष वर्चस्व के आगे आत्मसमर्पण किया। स्त्री पक्ष के इसी अभिव्यक्ति के लिए शरत आज भी स्त्रियों के दिलों में धड़कन बने हुए हैं।
निर्भया हत्याकांड में प्रोजेक्ट मुताबिक जनांदोलन हमारे लिए बेमतलब है जबकि हम सोनी सोरी के मामले में, इरोम शर्मिला के मामले में सिरे से खामोश हैं।
हम गुवाहाटी के राजमार्ग पर नंगी दौड़ायी जाती आदिवासी स्त्री की क्लिपिंग से बेचैन नहीं होते और सलवा जुड़ुम और विशेष सैन्य अधिकार कानून के तहत निरंतर जारी स्त्री उत्पीड़न के खिलाफ खड़े नहीं होते।
हम इंफाल की उन माताओं के नंगे परेड से शर्मिंदा होकर अपने हिंदुत्व राष्ट्रवाद के आइने में अपना चेहरा नहीं देख पाते।
हम देश के हर गांव में, हर बस्ती में दलित आदिवासी स्त्रियों के खिलाफ बेलगाम हिंसा के खिलाफ मोर्चाबंद हो नहीं सकते और कोई मोमबत्ती प्रतिवाद में जलाते नहीं हैं उनके लिए।
इसी सिलसिले में कालाधन और ईमानदारी को लेकर जनांदोलन और सत्याग्रह का फंडा है जो केसरिया कारपोरेट राज का अचूक रामवाण है।
मीडिया प्रायोजित इस आयोजन के जरिये तमाम दूसरे जनांदोलन और प्रतिरोध हाशिये पर हैं।
तमाम मुद्दों पर खामोशी है और ईमानदारी से विदेशी वित्त पोषित आंदोलन के जरिए केसरिया कारपोरेट राष्ट्रवाद कमल कमल है।
कालाधन जेहादी और ईमानदारी के स्वयंभू मसीहा सत्ता की राजनीति में विकल्प का दावा भी पेश कर चुके हैं और कामयाबी उनकी यह है कि बदलाव की सारी ताकतें हाशिये पर हैं। वाम आवाम उन्हीं में क्रांतिदर्शन कर रहा है और समाजवादी अंबेडकरी खेमा किंकर्तव्यविमूढ़ है।
आंदोलन में न लाल कहीं है और नीला कहीं है।
ऐसे प्रोजेक्टेड जनांदोलनों में मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था, अश्वमेधी नरमेध अभियान, निरंकुश बेदखली अभियान, जनसंहारी नीतियों के खिलाफ कोई आवाज लेकिन नहीं है और न ही केसरिया कारपोरेट राज के खिलाफ वे हैं।
जबकि हकीकत यह है कि अबाध विदेशी पूंजी प्रवाह के नाम पर कालाधन सफेद बनाने का खेल है और इसी कालेधन से फल फूल रहा है यह प्रोमोटर बिल्डर माफिया राज का पीपीपी विकास, जो गुजरात माडल भी है।
जबकि हकीकत यह है कि अहमदाबाद और मुंबई में फाइनेंशियल बहब बनाकर जो दुबई, मारीशस और हांगकांग जैसे एक्सचेंज बनाये जा रहे हैं, वह दरअसल काले धन के जखीरे को सफेद बनाने का चाकचौबंद इंतजाम है। विदेशी खाते में नहीं होगा कालाधन और कालाधन के खिलाफ जिहाद के मध्य फाइनेंसियल हब के जरिये भारतमें ही कालाधन विदेशी पूंजी बतौर भारत की अर्थव्यवस्था की सेहत ठीक करें या न करें बुलरन पचास हजार पार ले जायेगा।
जबकि हकीकत यह है कि आर्थिक सुधारों के खिलाफ इस तबके को कोई ऐतराज नहीं है और जिन विदेशी संस्थाओं से इन्हें अनुदान मिलता है, वे ही भारत में केसरिया कारपोरेट राजकाज के अश्वमेधी राजसूय राजकाज के नियंत्रक हैं।
हालत यह है कि किराये की कोख अब प्रचलन में है और नई तकनीक के साथ डिजाइनर बेबी बूमं की तैयारी में हैं नवउदारवाद की संतानें। इंग्लैंड में स्त्री डीएनए से ऐसे डिजाइनर बेबी बूम की तैयारी हो गयी है और बायोमेट्रिक डिजिटल क्लोन देश में यह तकनीक भी जल्दी आने वाली है।
जनपक्षधर मोर्चा बनाने की राह में लेकिन यह प्रोजेक्टेड ईमानदार जनांदोलन सबसे बड़ा अवरोध है।
राज्यतंत्र में बदलाव, जाति उन्मूलन के एजेंडा और समता और सामाजिक न्या के लक्ष्य के बिना, अस्मिताओं को तोड़े बिना, देश को जोड़े बिना और पुरुष वर्चस्व के विरुद्ध स्त्री का नेतृत्व स्वीकार किये बिना कोई सचमुच का जनांदोलन फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।
पलाश विश्वास