यह योगा हमसे नहीं होगा!
यह योगा हमसे नहीं होगा!
हमने योग नहीं किया। विश्व योगा दिवस आया और निकल गया, पर हमने योग नहीं किया।
बेशक, राजपथ पर योग करने का विशेष आमंत्रण हमारे पास नहीं था, न वीआईपी श्रेणी का, न आला अफसर श्रेणी का, न चुनिंदा स्कूलों के छात्रों की श्रेणी का और न रामदेव सेना-संघ स्वयंसेवक श्रेणी का। हमारे पास वैसी चीनी चटाई भी नहीं थी, जो राजपथ पर डाले गए कालीन के ऊपर डाले जाने के बाद, योग की क्रियाओं को आसान बना रही थी। भीमकाय जर्मन खेल-सामग्री निर्माण बहुराष्ट्रीय कंपनी, एडिडास ने प्रधानमंत्री के लिए जैसी विशेष योग पोशाक बनायी थी, वैसी निजीकृत पोशाक तो क्या हमारे पास तो कोई थोक में उत्पादित योग लाइक पोशाक भी नहीं थी। यानी गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड्स में दर्ज होने लायक योग प्रदर्शन में शामिल तीस हजार से ज्यादा लोगों में से एक बनने का बेशक हमारे पास मौका ही नहीं था। हमारे पास तो इस आयोजन की सुरक्षा के योग में लगाए गए पंद्रह हजार पुलिस व अन्य बलों के लोगों में से एक होने का भी मौका नहीं था। लेकिन, गिनीज बुक में दर्ज होने के अलावा भी तो योग हो रहा था। देश भर में सैकड़ों दूसरी जगहों पर ही नहीं, सुना है कि दुनिया भर में पौने दो सौ से ज्यादा देशों, भारतीय मिशनों समेत ढाई से ज्यादा शहरों में 21 जून को ही योग हुआ। संयुक्त राष्ट्र संघ तक में हमारी विदेश मंत्री, सुषमाजी के नेतृत्व योग किया गया।
यानी चाहते तो हमारे लिए पूरा मौका था। पर हमने योग नहीं किया।
बेशक, जितने जोर-शोर से योग दिवस का प्रचार हो रहा था, इस रोज योग न करना आसान नहीं था। चुपचाप न करना शायद उतना मुश्किल नहीं भी हो, ऐलान कर के नहीं करना हर्गिज आसान नहीं था। सोशल मीडियानुमा गाली-गलौज को अगर अनदेखा भी कर दिया जाए तब भी, तर्कपूर्ण लगने वाले सवालों के जवाब देना भी आसान नहीं था।
हजार सवालों का एक सवाल यही कि आखिरकार, योग में आपत्ति क्या है? आखिरकार, यह हमारी प्राचीन थाती है। सारी दुनिया इससे परिचित होगी, तो उससे दुनिया भर में हमारा मान, हमारा प्रभाव कुछ न कुछ बढ़ेगा ही। प्रभाव ही नहीं कारोबार भी, कुछ न कुछ बढ़ेगा ही। हम पेटेंट न भी कराएं तब भी, दुनिया भर में योग प्रशिक्षण की मांग बढ़ेगी, तो हमारी योग प्रशिक्षण संस्थाओं को काम मिलेगा। हमारे युवाओं के लिए देश में और उससे बढ़कर परदेश में, रोजगार के नये मौके खुलेंगे। पब्लिक के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य में भी कुछ न कुछ सुधार ही होगा। जो योग करने में हर तरह से देश और पब्लिक का भला ही भला है और नुकसान कुछ भी नहीं, उसका विरोध क्या सिर्फ इसलिए किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी की सरकार यह आयोजन कर रही है?
फिर अब तो अल्पसंख्यकों की चिंताओं को भी दूर कर दिया गया है। सूर्य नमस्कार पर आपत्ति थी, उसे सरकार द्वारा अनुमोदित पैकेज से निकाल दिया गया है। योग से मंत्रों को भी हटा दिया गया है। यहां तक कि आयुष मंत्रालय के प्रकाशन में यह भी साबित किया जा चुका है कि नमाज पढऩे के दौरान की जाने वाली शारीरिक क्रियाएं तो हूबहू यौगिक क्रियाएं ही हैं। कयाम, वज्रासन है, रुकू को अर्द्धशीर्षासन ही कहेंगे और सज़दा, शशांक आसन है, आदि।
अंतत: मुसलमानों को ‘ओम्’ की जगह अल्लाह का नाम लेने की भी छूट दे दी गयी। इसके बाद भी अगर कोई विरोध है, तो उसे ओछी राजनीति का ही मामला कहा जाएगा। या फिर उससे भी बदतर, पश्चिम की गुलामी का। भारतीय अपनी गौरवपूर्ण विरासत पर गर्व करें, इसका विरोध कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? यहां से आगे मामला आसानी से सोशल मीडियानुमा गाली-गलौज की दिशा में बढ़ सकता है।
लेकिन, ऐसे सारे दबाव के बावजूद, हमने योग दिवस पर योग नहीं किया? आखिर, क्यों?
इस क्यों का जवाब जिस तरह मोदी सरकार ने योग दिवस का पालन किया है, उसमें ही छुपा हुआ है।
एक संकेत से शुरू करते हैं। योग दिवस के कार्यक्रम के संबंध में और खासतौर पर राजधानी में राजपथ पर हुए आयोजन के संबंध में, बार-बार यह बाकायदा कहा गया कि इसके लिए गणतंत्र दिवस से बढ़कर व्यवस्था की जा रही है। एक ओर आयोजन स्थल की सुरक्षा के प्रबंधों से लेकर, उसके रिहर्सलों व इस सिलसिले में यातायात व्यवस्था में किए गए बदलावों तक और दूसरी ओर, मीडिया द्वारा कवरेज के उद्यम में, 'गणतंत्र दिवस से बढ़कर’ का दावा बार-बार सामने आया। और यह सिर्फ प्रबंधों के पैमाने का मामला नहीं था। यह संयोग ही नहीं था कि ........जारी.....आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.....
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जिस तरह 'योगा डे’ के आयोजन के कवरेज से भी बढ़कर, इसकी तैयारी के लिए प्रचार में 'हिस्सा बंटाने’ के लिए, खासतौर पर इलैक्ट्रोनिक मीडिया पर सरकार की ओर से जोर डाला गया था, इससे पहले कभी गणतंत्र दिवस से जुड़े कवरेज के लिए नहीं डाला गया।
बेशक, अगर गणतंत्र दिवस के विपरीत, 'योगा डे’ के लिए ऐसे प्रचार-उद्यम की जरूरत समझी जा रही थी, तो इसलिए भी कि मीडिया स्वत: उसे गणतंत्र दिवस जैसा महत्व कदापि नहीं देता। लेकिन, सोच-समझकर मीडिया का ऐसे उद्यम में जोता जाना भी तो, गणतंत्र दिवस के मुकाबले में एक नया प्रतीक गढ़ऩे की कोशिश का ही तो सबूत है। इस जगह से देखने पर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हुए आयोजन के लिए राजपथ का चुनाव, संयोग न रहकर एक सुचिंतित चुनाव बन जाता है।
भारतीय गणतंत्र के उत्सव, गणतंत्र दिवस के स्थानापन्न के रूप योग दिवस को स्थापित करने का सचेत प्रयास नही भी हो, तब भी योग को 'राष्ट्रीय गौरव’ की पहचान के रूप में स्थापित करने पर इतना जोर, इसी दिशा में जाता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि राष्ट्रीय गौरव की पहचान या निशानी के रूप में गणतंत्र दिवस या गणतंत्र की महत्ता उसके समावेशी होने में है। यह ऐसा प्रतीक है, जो देश के हरेक भरतीय के लिए है, हरेक भारतीय का अपना है। इस प्रतीक की जान, हरेक भारतीय के इस गणतंत्र की नजरों में समान होने के बुनियादी मूल्य में है। हम सभी जानते हैं कि यही वह चीज है जो भारतीय गणमंत्र को, मिसाल के तौर पर पाकिस्तान के इस्लामी राज्य से अलग करती है।
बहरहाल, इसकी ओर कम ही ध्यान दिया जाता है कि भारतीय गणतंत्र का यह 'समावेशीपन’ धर्म, जाति, नस्ल, भाषा आदि से राज्य की निरपेक्षता तक ही सीमित नहीं है। यह 'समावेशीपन’, सर्वभेद समभाव से आगे 'लौकिकता’ के अर्थ में सेकुलरिज्म तक भी जाता है। हमारे संविधान में धर्म से राज्य से अलगाव से लेकर, समता के विभिन्न सूत्रों और वैज्ञानिक मानस या साइंटिफिक टेंपर को बढ़ावा देने के निर्देश तक, ऐसे तत्वों की भरमार है, जो शासन से 'लौकिकता’ के दायरे में काम करने का तकाजा करते हैं क्योंकि इसी रास्ते पर चलकर राज्य, कानूनी समानताओं को सकारात्मक रूप से वास्तविक समानताओं का रूप देने की ओर बढ़ सकता है।
राजेंद्र शर्मा


