अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले कुछ दिनों की घटनाएं, उनकी मीडिया कवरेज, जनधारणा का निर्माण और "लहर" का आकलन करने पर समझ आता है कि मामला अब नरेंदरभाई के प्रधानमंत्री बनने का नहीं रह गया है। उनका प्रधानमंत्री बनना देश के लिए एक रस्‍म अदायगी ही होगा, न बने तो उनके लिए निजी तौर पर आत्‍मघाती।
असल मसला यह है कि जो प्रक्रिया उन्‍हें प्रधानमंत्री बनाने के लिए पिछले दिनों इस समाज में कई स्‍तरों पर चलाई गई है, उसने एक इकाई के रूप में नागरिक समाज का विवेकहरण कर के उसे अंधकूप में धकेल दिया है। तकरीबन पूरा मध्‍यवर्गीय शहरी समाज फिलहाल "मॉब साइकोलॉजी" यानी भीड़-चेतना से संचालित होता दिख रहा है। पिछले दिनों मेरे पास और कई मित्रों के पास आए धमकी भरे फोन कॉल/ चैट इनबॉक्‍स में मिली गालियां/ आलोक धन्‍वा से लेकर प्रो. उमेश राय और केजरीवाल के साथ हुई बदसलूकी/ सीएसडीएस जैसे संस्‍थानों में सत्‍ता परिवर्तन/ सिद्धार्थ वरदराजन जैसे बड़े अंग्रेज़ी पत्रकारों की बेरोजगारी/ पड़ोस के पनवाड़ी से लेकर अपने-अपने हनुमानों के बदले हुए तल्‍खी भरे सुर- सब बताते हैं कि यह समाज बिना नरेंदरभाई के भी फासीवाद (अपनी पसंद का पर्याय ढूंढ लें) के लिए तैयार है।
ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस देश की सत्‍ता पर काबिज कोई नेता फासीवाद नहीं ला रहा, बल्कि फासिस्‍ट हो चुका समाज फासिज्‍म को राजकीय वैधता दिलवाने के लिए एक नेता चुनने का अभियान चला रहा है। इसे क्‍लासिकल शब्‍दावली में counter-bonapartism कह सकते हैं। यह खेल बड़ा दिलचस्‍प है क्‍योंकि जैसा समाज पिछले एक साल में झूठ, फ़रेब, हत्‍याओं, बलात्‍कारों, धमकियों, साजिशों और बेईमानियों से मिलकर बना है, वह कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और भाजपा तीनों के लिए बराबर काम का है। ऐसे में हमारे जैसे अल्‍पसंख्‍यकों को 16 मई तक और उसके बाद खतरा नरेंदरभाई या उनके गुर्गों से उतना नहीं है, जितना अपने पड़ोसियों/सहयात्रियों/परिजनों से है।
मोहल्‍ले में, गली में, बस में, कभी भी कोई भी आपसे लपट सकता है। अपने सामान की सुरक्षा स्‍वयं करें...।
अभिषेक श्रीवास्तव, जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।