यहां से देखो भक्ति आंदोलन को

जगदीश्वर चतुर्वेदी

भक्ति आंदोलन को प्रचलित आलोचना और साहित्य विमर्श से बाहर लाने की जरूरत है।

अब तक हमने 'प्रेम','भक्ति' और 'ज्ञान' के आधार पर ही सोचा है, लेकिन लेखक की पहचान को नहीं बदला।

भक्ति आंदोलन में लेखक 'संत' था, लेकिन वह तो लेखक था, हमने उसे 'संत' भाव या अवधारणा से मुक्त नहीं किया।

लेखक को लेखक के रूप में देखें, 'संत 'के रूप में न देखें। 'संत' रूप में देखने से भक्ति साहित्य का विवेचन विभ्रम पैदा करता है।

आज हम उनको 'संत 'नहीं लेखक के रूप में सम्बोधित करें।

'संत' की बजाय 'लेखक' पदबंध का उनके नाम के साथ विशेषण के तौर पर इस्तेमाल करें।

भक्ति आंदोलन 'लेखक की सत्ता' प्रतिष्ठित करने वाला साहित्यांदोलन था।

'लेखक समाज' और 'संत समाज' दो भिन्न अवधारणाएं हैं।

जिस तरह हम उस दौर के साहित्य को भक्ति के आवरण से बाहर निकालकर बातें करते हैं ठीक वैसे ही हमें 'संत' के आवरण से लेखक को बाहर निकालने की जरूरत है।

लेखक को ' व्यक्ति' के रूप में देखने की जरूरत है।

हम संत को देखते हैं, उसमें निहित लेखक को देखते हैं और प्रमुखता के साथ जाति को देख रहे हैं।

मध्यकाल में 'संत' पदबंध ने 'जाति' के बंधनों से मुक्त करने में मदद की।

सवाल यह है क्या आज भी हमें जाति की पहचान के आधार पर देखना चाहिए?

मध्यकाल में 'संत' के बहाने 'जाति' से मुक्ति का मार्ग खोजा, इससे उसे कुछ समय तक मदद मिली लेकिन उसने इसे स्थायी पहचान बना लिया, जबकि 'संत' की पहचान 17वीं शताब्दी के बाद मददगार नहीं हो सकती थी।

कायदे से लेखक संत भाव से बाहर निकल आते या निकाल लिए जाते तो बेहतर होता!

'संत' रूप में देखते हैं तो 'संत समाज' जुड़ा चला आता है।'गुरू' और 'धर्म' जुड़ा चला आता है। संत संस्कृति जुड़ी चली आती है। वे तमाम केटेगरी भी चली आती हैं जिनमें इस दौर के लेखक सोच रहे थे। मसलन्, वे 'राजा' और 'प्रजा' की केटेगरी में वर्गीकृत करके देखते हैं। इसके कारण मूल्यांकन और सृजन दोनों में ही उलझनें हैं। आज उन केटेगरी से बाहर निकलने की जरूरत है।

अनंतदास, नाभादास, प्रिया दास, महीपती, राघवदास आदि ने मध्यकालीन लेखकों के चरित आख्यान संत के रूप में लिखे हैं। यह सिलसिला 16वीं शताब्दी में शुरू होता है। इन लोगों ने सगुण-निर्गुण की केटेगरी में रखकर विवेचन नहीं किया है।

सगुण-निर्गुण की केटेगरी हिन्दी आलोचकों ने बनायी है।

सगुण-निर्गुण की केटेगरी आज एकदम अप्रासंगिक हो चुकी है।

अनंतदास आदि ने संत परिचय लिखते समय संत और राजनीति के अंतर्विरोधों को रेखांकित किया, बाजार, धर्म और तीर्थ के राजनीतिक,सामाजिक अंतर्विरोधों का जिक्र किया।

इन अंतर्विरोधों पर आलोचना का विस्तार करने की जरूरत है।

भक्ति आंदोलन में सबसे महत्वपूर्ण कवि हैं नानक और सिख सम्प्रदाय, लेकिन हिन्दी आलोचकों ने इसे आधार बनाकर मूल्यांकन नहीं किया है।

नानक और सिख सम्प्रदाय पर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जरूर विस्तार से लिखा है, बाकी ने चलताऊ ढंग से जिक्र भर किया है।

नानक और सिख सम्प्रदाय की कई चीजें हैं जो हमें नए रास्ते बताती हैं। मसलन् भारतीय परंपरा में नानक पहले लेखक हैं जो 'प्रस्थानत्रयी' ( उपनिषद, भगवत गीता और बादरायण के वेदान्त सूत्र) का निषेध करते हैं और 'स्वाधीन चिन्तन' पर जोर देते हैं।

तकरीबन यही प्रवृत्ति आम्बेडकर के यहां मिलती है।

दोनों के यहां प्रज्ञा यानी शुभबुद्धि पर जोर है।

यह सवाल भी उठा कि ' भक्त' कौन है ?

भक्त वह है जो मरण की चिन्ता से उद्विग्न नहीं होता और जो प्रलोभनों से विचलित नहीं होता। उसका लक्ष्य है 'सत्य' प्राप्त करना। 'सत्य' ही गुरू है और 'सत्य' ही भगवान है। सत्य प्राणिमात्र की हित चिंता का मूलाधार है।

इस क्रम में नानक ने सत्य को लोककल्याण से जोड़कर देखा। सत्य को जानना जितना महत्वपूर्ण है उसके अनुरूप आचरण करना उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। भक्ति आंदोलन में गुरू परंपरा थी, इसकी जगह पहलीबार 'गुरू ग्रंथ साहिब' को प्रतिष्ठित करने का काम गुरू गोविन्द सिंह ने किया।

पहली बार 'वाणी' को प्रमुख स्थान मिला।

पहली बार किताब केन्द्र में आई। इस किताब में सिख गुरूओं की रचनाएं तो हैं ,अन्य कवियों की रचनाएं भी हैं।

समूचे भक्ति आंदोलन में नानक की तरह गुरू गोविन्द सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका है।

पहली बार विचारधारा और साहित्य के संबंध की रक्षा के लिए तत्कालीन शासकों के साथ बड़े संघर्ष सिख सम्प्रदाय ने लड़े। यह स्वतंत्र विचारों की रक्षा के लिए लड़े संघर्ष भी हैं।

साहित्य, विचारधारा और राजनीति की सीधी मुठभेड़ यहां सहज ही देख सकते हैं।

भक्ति आंदोलन पर विचार करते समय हमें 'आंदोलन' और 'साहित्य' के अन्तस्संबंध के बारे में भी सोचना चाहिए।

'आंदोलन ' नाम हम जरूर लेते हैं लेकिन उसका प्रवृत्ति की तरह विवेचन करते हैं।

'आंदोलन' और 'साहित्य'के अन्तस्संबंध के सवालों को हमने कभी नए नजरिए से उठाने की कोशिश ही नहीं की।

धर्म का साहित्य में रूपान्तरण, साहित्य का धर्म में रूपान्तरण यह प्रक्रिया चलती है, साहित्य जब धर्म में रूपान्तरित जब करता है तब जाति भी आती है, लेकिन जब धर्म जब साहित्य रूपान्तरित करता है तो पुनर्सृजन होता है, धर्म नष्ट हो जाता है,जाति भी नष्ट हो जाती है।

रूपान्तरण के इस रूप में ही जाति और धर्म के रैनेसां के तत्व छिपे हैं। कबीर जादू आदि के पंथ बने और फैले तो जातिभेद भी फैला, धर्म में जातिभेद खत्म करने की क्षमता नहीं है।

संयोग की बात है भक्ति सम्प्रदाय के विभिन्न पंथ उत्तर भारत में फैले और यहां पर जाति भी फैली।

सवाल यह है संस्कृति को बदलने की शक्ति लेखक में है या संतों में है ?

संत परंपरा किस तरह पंथ में तब्दील हुई ?

पंथ में तब्दील होते ही जाति ध्रुवीकरण का आधार बनी, इसके अलावा राजनीति के करीब आते ही ये सभी पंथ संकीर्णतावाद और अनुदारवादी रूझानों की ओर मुड गए।

अट्ठारहवीं सदी में मराठाओं और राजस्थान के राजाओं ने ब्राह्मणवाद को जाति वर्चस्व के नियमों के तहत लागू किया, निम्न जातियों को नियम मानने को मजबूर किया, यही वह टर्निंग पॉइण्ट है जहां से जाति का उभार, जाति भेद, जाति के पंगे सामने आते हैं।
यह सवाल भी उठा है कि भारत में इतना विशाल भक्तिकालीन साहित्य होने के बावजूद कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई ?
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'मध्यकालीन बोध का स्वरूप' ग्रंथ में इसके तीन प्रमुख कारणों का जिक्र किया है,ये हैं- १. अंधविश्वास, २. पुनर्जन्म की धारणा, और ३. कर्मफल का सिद्धान्त। हम इसमें चौथा कारण जोड़ना चाहते हैं वह है पितृसत्तात्मक विचारधारा।

ये चारों चीजें गहरे तक लेखक और समाज को प्रभावित किए हुए थीं, जिनके कारण भारत में विगत दो हजार सालों में कोई सामाजिक क्रांति नहीं हो पायी।

आज भी ये ही चारों कारण हैं जिनकी वजह से कोई भी सामाजिक क्रांति नहीं हो पा रही है।

इन चारों कारणों के खिलाफ संघर्ष का किसी भी संगठन के पास कोई कार्यक्रम नहीं है।

एक अन्य चीज है जिसे समझने की जरूरत है।

साहित्य और कलाओं में जाति,धर्म या कामुकता नहीं होती। जाति आदि का वहां जीवन मूल्यों में रूपान्तरण हो जाता है। साहित्य में जीवन मूल्य होते हैं। साहित्य पढ़ते समय जीवन मूल्यों की खोज की जानी चाहिए। इन दिनों गलत परंपरा चल निकली है कि हम जाति, लिंग और धर्म की कलाओं में खोज कर रहे हैं।