क्या न्याय व्यवस्था ‘मेनस्ट्रीम पोलिटिक्स’ और ‘स्टेट रिप्रेशन’ की गुलाम है?
यह घिनौनी राष्ट्रवादी और साम्प्रदायिक राजनीति है

आतंकवादी हमलों का सिलसिला
यह लेख लिखे जाने तक २७ जुलाई २०१५ पंजाब के गुरदासपुर इलाके में ताजा आतंकी हमले की बात सामने आ चुकी है. यहाँ भी घटना पर राजनीति जारी है. लश्कर पर इस हमले की आशंका जताई गई है. बताया जा रहा है कि १९९५ के बाद यह पंजाब में बड़ा आतंकी हमला हुआ है. इस घटना में पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहराया गया है. हर बड़े अदालती फैसले के बाद इस तरह के आतंकी हमले होना कोई बड़ी बात नहीं. यही सियासी करतूतें हैं. जिन्हें जनता को निष्पक्षता से देखने की आदत डालनी पड़ेगी. यह घटना भी नीचे जिस वाकये पर बहस की जा रही है, उससे जुडी हुई है. इस हमले में भी संसद पर हुए हमले की तरह सभी आतंकी मुठभेड़ में मारे गये. सवाल बने रहे कि बख्तरबंद गाड़ियां और मूलभूत हथियार पुलिस के पास नहीं थे. यह एक अलग तरह की राजनीति है.
इन तमाम हमलों और आतंकवादी घटनाओं के पीछे मुख्यतः दो वजहों पर विचार किया जा रहा है. जिनमें एक है- हथियारों की खरीदफरोख्त और दूसरा कारण है हिंदुत्व की अस्मितावादी राजनीति को बनाए रखने लिए इस्लामिक आतंकवादी संगठनों के बहाने मुसलमानों की हत्या.
जनविरोधी राज्य या जनसंघर्ष हैं राष्ट्रविरोधी
जिस तरह पाकिस्तान की साम्प्रदायिक राजनीतिक ताकतों ने आइएसआई जैसे संगठनों को बनाया. इसे हिन्दुस्तान जैसे तमाम मुल्क इस्लामिक आतंकवादी संगठन कह रहे हैं. ठीक इसी प्रकार से हिन्दुस्तान की साम्प्रदायिक राजनीतिक (सेकुलर और कम्युनल) ताकतों ने मिलकर इस मुल्क में आइएम, अलकायदा, १९९२ में पहली घटना, बब्बर खालसा इंटरनेशनल, खालिस्तान कमांडो फोर्स, खालिस्तान लिबरेशन फोर्स और खालिस्तान जिंदाबाद फोर्स, २००५ के बाद लश्कर-ए-तैय्यबा , हरकत-उल-जिहाद अल इस्लामी आदि को साम्प्रदायिक और उग्र राजनीतिक गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया. खालिस्तान के इतिहास के बारे में इस बावत जानना बेहद जरूरी है.
खालिस्तान संघर्ष की शुरुआत क्यों कैसे हुई?
खालिस्तान बनाने की मांग दरअसल अगल राज्य बनाने की मांग है. जिसमें उग्र-जनवादी ताकतें इस बात की जरूरत महसूस करती हैं कि अलग राज्य बनने से जिन लोगों को मौलिक अधिकार से अलग-थलग क्र दिया गया. और बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं की जा सकी हैं.
मुल्क में बंटवारे की राजनीति ने सिक्ख समुदाय के तमाम लोगों पर जबरन राज्य की गलत नीतियाँ थोपी दी. जिनके कारण ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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वे मुल्क में एक अरसे से (रिफ्यूजी) शरणार्थी के बतौर बद से बदतर जिन्दगी गुजार रहे हैं. उन्हें राज्य द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं और संरक्षण नहीं मिला. इसलिए इन अलगावावादी संघटनों की मांग है कि ऐसे लोगों को मुल्क में पूर्ण सुरक्षा और मौलिक अधिकार मिल सके. इन अलगाववादियों को जरूरी और बुनियादी हक़ न मिलने से जन-आक्रोश १९४७ से ही ख़ास समुदाय के भीतर बना हुआ है.
हालांकि राज्य की नैतिक और संवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह सभी लोगों को संरक्षण और जरूरत की चीजें मुहैया करे. यही वंचित और अभावग्रस्त तबका खालिस्तान की मुख्यतः मांग कर रहा है. यह वंचित लोग जीने के हक़ और राजनीतिक-सांस्कृतिक आज़ादी के लिए राज्य के भेदभावपूर्ण रवैये के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं.
ये वो तबका है जो सिक्ख होकर भी सिक्ख समुदाय के संवैधानिक दायरे में नहीं आता.
आज़ादी के पूर्व तीन मांगें प्रमुख थीं- खालिस्तान, पाकिस्तान और अछूतिस्तान. अगर हिन्दुस्तान राष्ट्र का राजनीतिक बंटवारा होना है तो इसी तरह हो. जनसंघर्षों में लगे जनता की जरूरतों के लिए लड़ाई लड़ने वाले लीडर यही चाहते थे. मगर सत्ता में जो राजनीतिक ताकतें अधिक मजबूती से खड़ी थीं उनहोंने अपने सियासी फायदे और निजी अस्मिता को बनाने के लिए भारत पकिस्तान का बंटवारे पर साझा मंजूरी दी. अछूतिस्तान की मांग करने वाले अम्बेडकर को गांधी की जिद के आगे घुटने टेकने पड़े. और मांग वापस ले ली गई.
अब बची थी सिर्फ खालिस्तान की मांग.
जनसंघर्षों के पूरे इतिहास को देखें तो ज्यादातर मामलों में इन मांगों के लिए समर्पित जननायकों और कार्यकर्ताओं को आतंकवादी और आपराधिक मसलों में फंसाकर राज्य ने आज़ाद हिन्दुस्तान में अपनी जड़ें मजबूती से जमाए रखी. राज्य के फैसलों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले लोगों को उत्पीडन, यातनाएं और तमाम राज्य विरोधी गतिविधियों में जेलों में ठूंस दिया गया.
जन-उत्पीडन के खिलाफ राज्य का क्रूर और बर्बर आतंक अब भी जारी रहा है. यह सब कुछ सिर्फ इसलिए किया गया कि राज्य के उत्पीडन के खिलाफ जो जन संगठन बन रहे थे मसलन यदि इस्लामिक संगठनों की बात करें तो उल्फा, (सशस्त्र संघर्ष के द्वारा असम को एक स्वतंत्र राज्य बनाना इसका लक्ष्य है। भारत सरकार ने इसे सन् १९९० में प्रतिबन्धित कर दिया और इसे एक 'आतंकवादी संगठन' के रूप में वर्गीकृत किया है।), सिमी, (जिसे अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के छात्रों ने अल्पसंख्यकों पर हो रहे राज्य के हमलों का खुलासा करने के लिए बनाया था. जिसे स्टेट मशीनरी ने राष्ट्रविरोधी संगठन कहकर प्रतिबंधित कर दिया),) जैश ए मोहम्मद, (ध्येय भारत से कश्मीर को अलग करना है बी रामन ने इसे एक 'मुख्य आतंकवादी संगठन' बताया है और यह भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा जारी आतंकवादी संगठनों की सूची में शामिल है), हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी, जैसे तमाम अंतर्राष्ट्रीय स्टेट-रिप्रेशन का मुकाबला करने वाले उग्र संगठनों के समक्ष राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठनों के साथ संघर्षपूर्ण रहते हुए राजनीतिक—आर्थिक मसलों पर इनका इस्तेमाल समय समय पर राज्य की कूटनीति और जनपक्षधर राजनीति का स्वांग रचने की खातिर किया जा सके. और राजनीतिक जरूरतें जैसे जैसे पूरी होती चलें गैरजरूरी उग्र संगठनों को राज्य खत्म करता चले.

राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा के एवज में इन्हें स्वाहा करना राज्य के हित में है. इन्हें इस्लामिक आतंकवादी संगठन बताया जा रहा है. ताकि जनता में उग्र या सशस्त्र संघर्ष करने वाले जनपक्षधर लिबरेशन फ्रंट या संगठन को उग्र जनवादी संगठन कहकर ध्वस्त किया जा सके.
ऐसे तमाम संगठनों को पैदा करने और खत्म करने के पीछे इस्लाम के नाम पर अवसरवाद और मजहब की राजनीति को हवा देने वाली राजनीतिक ताकतों को राज्य की कई गुप्त एजेंसियों का सहयोग मिला. इन सबने मिलकर इस्लामिक संगठनों के बनने में अहम भूमिका निभाई. जिसके चलते इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की मुखालफत ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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के जरिये हिन्दुस्तान के पढ़े लिखे मुस्लिम युवाओं को इसका शिकार बनाया गया, इसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के साथ गठजोड़ करने वाली ताकतें और मजहबी खूनी षड्यंत्र रचने वालों ने मिलकर इसमें हिस्सेदारी निभाई.
आतंकवाद क्या है. कौन हैं आतंकी?
आतंकवाद क्या है?
क्या हज़ारों बेगुनाह आदिवासियों को सेना और सत्ता की रजामंदी से उद्योगपतियों को जमीन देने के लिए कत्ल कर देना आतंकवाद है?
बाबरी मस्जिद को आरएसएस के कार्यकर्ताओं द्वारा ढहाया जाना आतंकवाद है?
हाशिमपुरा जनसंहार में मुसलमानों को सरेआम कत्ल करना आतंकवाद क्यों नहीं है? साम्प्रदायिक दंगों को प्रायोजित तरीके से किया जाना आतंकवाद अगर नहीं है तो आतंकवाद और क्या है?

राष्ट्रवाद के नाम पर जिसे आतंकवाद कहा जा रहा है दरअसल वो केवल हिन्दू मिलीशिया का एक सियासी साम्प्रदायिक विचार है.
क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष मुल्क में हिन्दू राष्ट्रवाद के नाम पर शस्त्र प्रशिक्षण और हिंदूवादी सेनायें तैयार करना आतंकवाद नहीं है? अगर यही काम इस्लाम को मानने वाले करें तो इसे आतंकवाद कहा जाय यह कैसी व्यवस्था है?
दलितों, मुसलमानों और महिलाओं को नौकरियों में बराबरी का दर्जा न देना क्या राष्ट्रीय आतंकवाद नहीं है? न्यायपालिका में ८५ फीसदी ब्राह्मण जज हैं और हिंदुत्व की राजनीति के चलते क्या ये न माना जाय कि यही वजह है याकूब और अफजल को फांसी देने की?
अगर साहित्य में ब्राह्मणवादी मूल्य हावी हैं, समाज में ब्राह्मणवादी संस्कार रीति-रिवाज और परम्परा मजबूती से खड़ी है. जिसके कारण अल्पसंख्यकों और दलितों का उत्पीड़न हो रहा है. अल्पसंख्यक और दलित अपराधों में जबरन फंसाए जा रहे हैं.
राष्ट्रवाद और आतंकवाद की राजनीति का दुष्प्रचार करके हर आदमी के भीतर जहर बोया जा रहा है. आदिवासियों को नक्सली और माओवादी कहकर उनकी हत्या राज्य कर रहा है.
राष्ट्रवादी हिन्दू राजनीति के कारण अल्पसंख्यकों को फांसी दी जा रही है. दलितों की आबादी के एक बड़े हिस्से को तमाम अपराधो में लिप्त बताकर राज्य उन्हें जेलों में डाल रहा है. राज्य ने इस तरह के मूल्य समाज में बोये हैं जिससे महिलाओं को बराबरी का दर्जा न मिल सके. संस्कार, मूल्य, परम्परा और उग्र हिंदुत्व की मान्यताओं को पालने पोसने के कारण अपराधी मानसिकता के लोग महिलाओं का सरेआम बलात्कार कर रहे हैं.
बलात्कार की शिकार महिलाओं के आंकड़े देखें तो पता चलेगा कि बहुसंख्यक महिलायें निचले तबकों और निम्न जातियों से आती हैं. क्या यह राज्य द्वारा पोषित राष्ट्रीय आतंकवाद नहीं है.
इतना सब कुछ करके राज्य किस तरह सुरक्षित घेरों में अपना लोकतांत्रिक ढांचा बनाये हुए है. इस पर सोचने की जरूरत है.
जनसंघर्ष और राज्य की बर्बरता की टकराहट
एक तरफ दलित और आदिवासी जनजातियाँ अपनी बुनियादी लड़ाई जमीन बचाने की और सामाजिक सुरक्षा से सम्बंधित लड़ाई को जब भी मजबूत करते हैं आदिवासी लोग गाँवों में रह रहे अपने परिवारों को राज्य और सेना की क्रूरता और हमलों से बचाने के लिए जब लड़ते हैं, उन्हें देशद्रोही और माओवादी कहकर मार दिया जाता है. आदिवासी औरतों का उत्पीडन किया जाता है. बच्चियों का शारीरिक शोषण किया जाता है. गाँव के गाँव जला दिए जाते हैं.
अगर अल्पसंख्यक हक़ पाने के लिए सामाजिक लड़ाई छेड़े और अपने पक्ष में लोगों को तैयार करे तो ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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उसे अफजल की तरह आतंकवादी कहकर फांसी पर लटका दिया जाता है.
अगर एक सेलीब्रिटी सलमान खान हिंदुत्व की राजनीति के समर्थन में बजरंगी भाईजान बनाए तो यही राज्य उसकी फिल्म के लिए टैक्स फ्री और उसकी वाहवाही में मीडिया हाउस को लगा देगा. मीडिया उसे बढ़ा-चढाकर हिन्दू जनमानस के लिए पक्ष में पेश करेगा . अगर यही सलमान सत्ताधारी हिंदुत्व को खुश रखने के लिए मोदी के प्रचार अभियान में साथ दे, यहाँ तक कि दबंग के पांडे जी बने रहें तब तक तो सब कुछ ठीक ठीक चलेगा. जय श्री राम का नारा बजरंगी भाईजान बनकर बुलंद करे तो हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाले उसे जनता का हीरो साबित करें, मीडिया घराने उसे नायक बना दें और अगर वही नायक सलमान खान न्यायालय और राज्य द्वारा घोषित आतंकवादी याकूब के मामले में बोले तो उस नायक को मीडिया दाउद के साथ जोडकर देखने से भी बाज नहीं आता. उसे दाउद के साथ बातचीत और कई आतंकवादियों के साथ टेलीफोनिक वार्ता के लिए मीडिया उसे धमकी भरे शब्दों में उसकी पोल खोलने, बेल रद्द करने और जेल भेजने पर बहसें आयोजित करता है. इस तरह मीडिया सीधे हिंदुत्व की राजनीति के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है. ये कैसा राष्ट्रवाद है?
आतंकवाद का मजहब से नाता क्या है ?
हमें जानना चाहिए कि किसी भी राजनीतिक पार्टी में औरतें, अल्पसंख्यक और दलित कितने फीसदी राज्यसभा और लोकसभा में हैं. कौन सी कौम, किस मजहब के लोग आतंकवाद की राजनीति कर रहे हैं. अगर अबू आजमी (सपा सांसद), याकूब मेनन की न्यायप्रक्रिया पर सवाल उठायें तो उन्हें मीडिया ट्रायल में ही देशद्रोही करार दे दिया जाता है और यही काम अगर भाजपा के सांसद शत्रुघ्न या अन्य लोग करें तो उसकी चर्चा तक मीडिया में नहीं होती.
हिंदुत्व की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टियों और राजनीतिक सांस्कृतिक संगठनों में अनपढ़ और हिन्दू फंडामेंटलिस्ट तत्व भरे पड़े हैं. साध्वियां अगर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले संतों के खिलाफ बयान दें तो वही साध्वी संगठन की निगाह में बागी और हिंदूवादी महापुरुषों का अपमान करने वाली कुसंस्कारी और मूर्ख षड्यंत्रकारी घोषित की जाती हैं.
यही साध्वी अगर हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोगों के पक्ष में बोले और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान दें तो उन्हें राष्ट्रवादी कहा जाय.

आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता अगर ये मान भी लिया जाय तो मजहब के नाम पर आतंकवादी घटनाएँ करने वाले रथयात्रा निकलने से लेकर गुजरात दंगे कराने वाले लोग किस आतंवादी संगठन से आते हैं यह भी स्पष्ट करना होगा.
मतलब साफ़ है मजहब की राजनीति करने वाले आतंकवादी हैं इसे मान लेना चाहिए. चाहे वो हिन्दू ब्रिगेड हो या राज्य द्वारा पोषित और संचालित आतंकवादी संगठन.
इस गलतफहमी की जरूरत नहीं है कि यह कार्रवाई भारत से इस्लाम को खत्म करने की साजिश के तहत हुई है, ऐसा बिलकुल भी नहीं हुआ.
इस भ्रम में रहने का कोई मतलब नहीं है. बजाय इसके यह समझना चाहिए कि यह सब कुछ जनता को सरकार के दमन से कमजोर करने के लिए जनता में फूट डालने का एक व्यवहारिक और नीतिगत तरीका है. और एक बहुसंख्यक समुदाय की भावना को ..........जारी.... आगे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.......

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तुष्टीकरण करने का सबसे सरल तरीका है.
इसके बरक्स आरएसएस की तमाम शाखाएं जोकि हिन्दू मिलिटेंट और हिन्दू मिलीशिया के भीतर लाखों दंगाइयों को ट्रेनिंग दे रही हैं. इन ट्रेनिंग कैंपों की तादाद लगातार बढ़ रही है. उन पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है.
भारत में “मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स” के अलावा भी क्या अब “मिनिस्ट्री ऑफ़ डिफेन्स फॉर कम्युनल फोर्सेज” नाम का कोई मंत्रालय भी खोलने का विचार नहीं करना चाहिए.
राजनीतिक नरसंहार के कनेक्शन और कनफ्लिकशन
आज तक १९९१ के काण्ड में राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी नहीं हुई, गुजरात दंगों के असली गुनहगारों को फांसी नहीं हुई. १९८७ हाशिमपुरा के कातिलों को फांसी की सजा नहीं हुई. १९६९ नक्सलबाड़ी किसान आन्दोलन में खुलेआम हजारों कत्ल करने राज्यपोषित सेना और प्रशासन को फांसी की सजा नहीं हुई. बाबरी मस्जिद ढहाने वाले और साम्प्रदायिक दंगा फैलाने वालों को फांसी की सजा नहीं हुई. मुज़फ्फरनगर के दंगाइयों को फांसी की सजा नहीं हुई. आदिवासियों को कत्ल करने वाले सलवा जुडूम में शामिल हत्यारों को फांसी की सजा नहीं हुई. लाखों महिलाओं का कत्ल करने वाले अपराधियों और हत्यारों को फांसी की सजा नहीं हुई.
सत्तातंत्र हर राष्ट्रीय और स्थानीय अपराधों में जोकि सामूहिक हत्याकांड के लिए जाने गये राजनीतिक और अपराधी प्रवृत्ति के लोग कई तरह से शामिल होते हैं. स्थानीय राजनीतिक अपराध स्थानीय प्रशासनिक और अपराधिक तन्त्र के साथ मिलकर किया जाता है. बड़े अपराध बड़े तंत्र और बड़े अपराधियों के साथ मिलकर किये जाते हैं. यहाँ जो तन्त्र ताकतवर है वो तय करता है कि अपराध के बाद अपराधी को कैसे जनता के सामने लाया जाय.
यही चीज तय करती है कि अपराध कितना बड़ा है या कितना छोटा. सत्तातंत्र कई तरह की राजनीति करता है - मसलन जाति की राजनीति, धर्म की