रवींद्र का दलित विमर्श-11

जैसे भारतवर्ष है ही नहीं , जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं, सिर्फ वे ही हैं।

पलाश विश्वास

रवींद्र नाथ टैगोर ने भारतवर्षेर इतिहास में लिखा था कि मारकाट खूनखराबा के इतिहास के नजरिये से देखें तो जैसे भारतवर्ष है ही नहीं, जो मारकाट खूनखराबा करते हैं, सिर्फ वे ही हैं। नस्ली दृष्टि से हम जिस भारतवर्ष को देखते हैं, वह रवींद्रनाथ का भारत तीर्थ नहीं है और न वह जनगणमन का भारतवर्ष है।

समय और समाज का यथार्थ यही है कि भारतवर्ष कहीं है ही नहीं, जो हैं वे मारकाट खूनखराबा करने वाले हैं।

युद्ध अपराधियों के सत्ता संघर्ष में भारतवर्ष लापता।

परसों से सोशल मीडिया के जरिये यह संवाद फेसबुक अपडेट न कर पाने से बाधित है। राम रहीम प्रसंग पर आगे कुछ भी कहना शायद विशेषाधिकार है।

जैसे गोरक्षकों के तांडव के खिलाफ प्रधान सेवक ने चेतावनी दी थी, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट द्वारा देश के प्रधानमंत्री या भाजपा के प्रधानमंत्री की हैसियत पर सवालिया निशान टांग दिये जाने के बाद आज फिर बहुलता विविधता और लोकंतंत्र की वाणी और साथ में आस्था के नाम हिंसा के खिलाफ कानून और व्यवस्था की दुहाई की गूंज अनुगूंज मीडिया में वसंत विहार है।

हमारे लिए यह संवाद जारी रखना अब मुश्किल लग रहा है क्योंकि बातें शायद कहीं पहुंच नहीं रही हैं। कोई प्रश्न प्रतिप्रश्न नहीं है, जिससे संवाद का क्रम बन सकें। संदर्भ सामग्री शेयर करने में भी अब बाधा पड़ रही है।

रवींद्र विमर्श की जो बची हुई पांडुलिपि है, उसे जस का तस पेश करना संभव नहीं है क्योंकि वह अकादमिक ज्यादा है। जो शायद सोशल मीडिया के लायक नहीं है।

रवींद्र का दलित विमर्श भारत के बहुजन आंदोलन के मुताबिक नहीं है और न इसकी भाषा बहुजन आंदोलन के मुताबिक है।

यह सीधे भारत की संत परंपरा के मुताबिक आध्यात्म और तात्विक विमर्श है, जो सामाजिक यथार्थ के मुताबिक बिना किसी की आस्था भावना को चोट पहुंचाए समानता और न्याय के पक्ष में संवाद है, जो बेहद जटिल है और सामाजिक यथार्थ की परत दर परत गहरी पैठी यह जीवनदृष्टि सीधे तौर पर वैदिकी सभ्यता के खिलाफ भी नहीं है तो बहुजन राजनीति के लिए यह काम की चीज नहीं है।

गांधी फिर भी अपने को हिंदू कहते रहे हैं और उनका यह हिंदुत्व उनकी राजनीति भी है। उनकी यह हिंदुत्व की राजनीति हिंदू समाज की एकता के पक्ष में है जो ब्राह्मणधर्म या ब्राह्मण वर्चस्व का विरोध नहीं करती।

ब्रह्मसमाजी पीराली ब्राह्मण रवींद्र हिंदुत्व के बजाय भारतीयता की बात करते रहे हैं लेकिन उनकी भारतीयता में हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमान और दूसरे गैर हिंदू, आर्यों के साथ साथ अनार्य, द्रविड़, शक, हुण, कुषाण, मुगल, पठान, अंग्रेज समेत मनुष्यता की समस्त धाराओं का एकीकरण और विलय है।

भारतीय इतिहास, संस्कृति और साझा विरासत का यह रसायन बेहद जटिल है। इसलिए वैदिकी साहित्य और बौद्ध साहित्य में अबाध विचरण करने वाले प्राच्य और पाश्चात्य के मेलबंधन से रवींद्र जिस मनुष्यता के धर्म की बात करते हैं, उसमें अस्पृश्यता के खिलाफ खुला विद्रोह होने के बावजूद वैदिकी संस्कृति और ब्राह्मण धर्म का विरोध नहीं है लेकिन वे मनुस्मृति अनुशासन के पक्ष में कहीं खड़े नहीं होते।

मेहनतकशों और किसानों के पक्ष में उनकी रचना संदर्भ रूस की चिट्ठी।

इसी तरह विषमता के खिलाफ सामाजिक न्याय के बारे में उनका दलित विमर्श बहुजन आंदोलन के खांचे में कहीं फिट नहीं बैठता।

रवींद्र नाथ राष्ट्रवाद के विरुद्ध थे तो अस्मिताओं के विलय से उनका भारत तीर्थ का निर्माण होता है जबकि समता और सामाजिक न्याय का बहुजन आंदोलन ब्राह्मणधर्म की विशुद्धता की रंगभेदी जातिव्यवस्था के तहत बनी अस्मिताओं का आंदोलन है।

राहुल सांकृत्यायन साम्यवादी थे और बौद्ध साहित्य और इतिहास के विद्वान भी थे। इसलिए भारतीय इतिहास के बारे में उनके अध्ययन में वैदिकी संस्कृति का वह महिमामंडन नहीं है जो रवींद्र के इतिहास बोध में है।

रवींद्र की गीतांजलि, उनके उपन्यासों, उनकी कविताओं और खासतौर पर दो हजार के करीब उनके गीतों में न्याय और समता, लोक और जनपद के जो सामाजिक यथार्थ हैं, उनके मुकाबले उनके निबंधों में वैदिकी संस्कृति का महिमामंडन कुछ ज्यादा ही है। वे हमेशा वैदिकी सभ्यता का महिमामंडन करते नजर आते हैं जिससे बौद्धमय भारत की उनकी रचनाधर्मिता लोगों को साफ साफ नजर नहीं आती।

इस बिंदू पर गांधी और रवींद्रनाथ दोनों ने समकालीन यथार्थ और भारत के भविष्य के मद्देनजर बहुसंख्य जनता की आस्था और भावनाओं के मुताबिक बहुलता और विविधता के लोकतंत्र पर फोकस किया है और बौद्धमय भारत के मूल्यों और आदर्शों के मुताबिक मनुष्यता के धर्म को अपने दर्शन का प्रस्थानबिंदू बनाया है।

अतीत के युद्धों के हिसाब किताब के मुताबिक गांधी और रवींद्र का भारत नहीं है।

हमने कल और परसो रवींद्रनाथ के लिखे निबंध भारतवर्षेर इतिहास का मूल पाठ शेयर करने की कोशिश की थी क्योंकि यह उनकी मशहूर कविता भारत तीर्थ और भारतवर्ष के उनके विमर्श का सामाजिक यथार्थ है।

इस निबंध में रवींद्र नाथ ने शुरुआत में ही लिखा हैः

ভারতবর্ষের যে ইতিহাস আমরা পড়ি এবং মুখস্থ করিয়া পরীক্ষা দিই, তাহা ভারতবর্ষের নিশীথকালের একটা দুঃস্বপ্নকাহিনীমাত্র। কোথা হইতে কাহারা আসিল, কাটাকাটি মারামারি পড়িয়া গেল, বাপে-ছেলেয় ভাইয়ে-ভাইয়ে সিংহাসন লইয়া টানাটানি চলিতে লাগিল, একদল যদি বা যায় কোথা হইতে আর-একদল উঠিয়া পড়ে–পাঠান-মোগল পর্তুগীজ-ফরাসী-ইংরাজ সকলে মিলিয়া এই স্বপ্নকে উত্তরোত্তর জটিল করিয়া তুলিয়াছে।

भारतवर्ष का जो इतिहास हम पढ़ते हैं और जिसे रटकर हम परीक्षाओं में बैठते हैं, वह भारत वर्ष के निशीथकाल की एक दुःस्वप्नमय कहानी मात्र है। कहां से कौन आया, मारकाट शुरु हो गयी, खूनखराबा हो गया, राजगद्दी लेकर बाप बेटे, भाई भाई में रस्साकशी होने लगी, एक समूह कहीं चला जाता है तो कहीं और से किसी और समूह का उत्थान हो जाता-पठान-मुगल पुर्तगीज फ्रांसीसी सभी मिलकर इस बुरे सपने को लगातार जटिल बनाते चले गये।

কিন্তু এই রক্তবর্ণে রঞ্জিত পরিবর্তমান স্বপ্নদৃশ্যপটের দ্বারা ভারতবর্ষকে আচ্ছন্ন করিয়া দেখিলে যথার্থ ভারতবর্ষকে দেখা হয় না। ভারতবাসী কোথায়, এ-সকল ইতিহাস তাহার কোনো উত্তর দেয় না। যেন ভারতবাসী নাই, কেবল যাহারা কাটাকাটি খুনাখুনি করিয়াছে তাহারাই আছে।

लेकिन इस रक्तरंग रंजित परिवर्तनमान स्वप्नदृश्यपट द्वारा भारतवर्ष को आच्छन्न करके देखने पर यथार्थ के भारतवर्ष का दर्शन नहीं होता। भारतवर्ष कहां है, इस तरह का इतिहास इसका कोई जवाब नहीं देता। इससे लगता है कि भारतवर्ष है ही नहीं, जो मारकाट खूनखराबा करते रहे हैं, वे ही हैं।

তখনকার দুর্দিনেও এই কাটাকাটি-খুনাখুনিই যে ভারতবর্ষের প্রধানতম ব্যাপার তাহা নহে। ঝড়ের দিনে যে ঝড়ই সর্বপ্রধান ঘটনা, তাহা তাহার গর্জনসত্ত্বেও স্বীকার করা যায় না–সেদিনও সেই ধূলিসমাচ্ছন্ন আকাশের মধ্যে পল্লীর গৃহে গৃহে যে জন্মমৃত্যু-সুখদুঃখের প্রবাহ চলিতে থাকে, তাহা ঢাকা পড়িলেও, মানুষের পক্ষে তাহাই প্রধান। কিন্তু বিদেশী পথিকের কাছে এই ঝড়টাই প্রধান, এই ধূলিজালই তাহার চক্ষে আর-সমস্তই গ্রাস করে; কারণ, সে ঘরের ভিতরে নাই, সে ঘরের বাহিরে। সেইজন্য বিদেশীর ইতিহাসে এই ধূলির কথা ঝড়ের কথাই পাই, ঘরের কথা কিছুমাত্র পাই না। সেই ইতিহাস পড়িলে মনে হয়, ভারতবর্ষ তখন ছিল না, কেবল মোগল-পাঠানের গর্জনমুখর বাত্যাবর্ত শুষ্কপত্রের ধ্বজা তুলিয়া উত্তর হইতে দক্ষিণে এবং পশ্চিম হইতে পূর্বে ঘুরিয়া ঘুরিয়া বেড়াইতেছিল।

तत्कालीन दुःसमय के दौरान भी यह मारकाट, खूनखराबा भारतवर्ष का मुख्य मसला रहा हो, ऐसा भी नहीं है। आंधी के दिन आंधी सबसे बड़ी घटना है, वह उसके गर्जन के बावजूद माना नहीं जा सकता-उसदिन भी उस धूल में ओझल आसमान के नीचे गांव देहात के घर घर में जो जन्म मृत्यु-सुख दुःख का प्रवाह जारी रहता है, वह छुप जाने के बावजूद मनुष्यों के लिए वही मुख्य है। लेकिन किसी विदेशी पर्यटक के लिए वह आंधी ही मुख्य है, यह धूल से बना जाल ही उसकी आंखों में सबकुछ है क्योंकि वह घर के भीतर नहीं है, वह घर के बाहर है। इसलिए विदेशी इतिहास में हम इस धूल, इस आंधी की कहानी पाते हैं, घर की कोई बात वहां एकदम होती नहीं है। वह इतिहास पढ़ने पर लगता है कि तब भारतवर्ष कहीं था नहीं, सिर्फ मुगल पठान के वर्चस्व का गर्जनमुखर सूखे पत्तों का ध्वज की आंधियां उत्तर से दक्षिण एवं पश्चिम से पूरब तक चल रही थीं।

কিন্তু বিদেশ যখন ছিল দেশ তখনো ছিল, নহিলে এই-সমস্ত উপদ্রবের মধ্যে কবীর নানক চৈতন্য তুকারাম ইঁহাদিগকে জন্ম দিল কে? তখন যে কেবল দিল্লি এবং আগ্রা ছিল তাহা নহে, কাশী এবং নবদ্বীপও ছিল। তখন প্রকৃত ভারতবর্ষের মধ্যে যে জীবনস্রোত বহিতেছিল, যে চেষ্টার তরঙ্গ উঠিতেছিল, যে সামাজিক পরিবর্তন ঘটিতেছিল, তাহার বিবরণ ইতিহাসে পাওয়া যায় না।

किंतु विदेश जब रहा है तब स्वदेश भी था। वरना इसी उपद्रव के मध्य कबीर नानक चैतन्य तुकाराम जैसे मनीषियों को किसने जन्म दिया? उस वक्त सिर्फ दिल्ली और आगरा ही नहीं, काशी और नवद्वीप भी मौजूद थे। तभी असल भारतवर्ष के भीतर जो जीवनस्रोत बह रहा था, जो चेष्टाओं की तरंगें उठ रही थीं, जो सामाजिक परिवर्तन हो रहे थे, उसका विवरण इतिहास में नहीं है।

इस पूरे निबंध में अनेकता में एकता और सत्ता संघर्ष के विपरीत जनपदों की लोकजमीन पर संस्कृतियों की साझा विरासत में मौजूद भारतवर्ष की बात रवींद्रनाथ ने की है। इसी आलेख में भारतवर्ष की संस्कृति को मनुष्यता के धर्म के रुप में देखते हुए रवींद्र नाथ ने सामाजिक और लोक जीवन को धार्मिक मानते हुए लोक आस्था की सार्वजनिक साझा विरासत की बातें की हैं जो राजनीति और सत्ता संघर्ष के इतिहास के दायरे से बाहर है।