युवा पीढ़ियों के साथ गद्दारी, छीन लिया रोजगार!
युवा पीढ़ियों के साथ गद्दारी, छीन लिया रोजगार!
बदबू का अहसास मर जाना ख्वाबों के मर जाने से भी ज्यादा खतरनाक है।
पलाश विश्वास
मित्रों मुझे इस निर्मम, अमोघ भविष्यवाणी के लिए माफ करना कि चाय बागानों, कारखानों, खनन परियोजनाओं, खुदरा कारोबार, खेतों खलिहानों के साथ साथ अबकी दफा मृत्यु जुलूस का सिलसिला आईटी सेक्टर में भी शुरु होने ही वाला है। यही है दूसरे चरण का आर्थिक सुधार।
युवाजनों का कोई वर्गहित नहीं होता। सत्ता और सत्तावर्ग के विरुद्ध सबसे तेजी से लामबंद होते हैं युवाजन।
इस देश में किसानों और मजदूरों के साथ युवाजनों के मोर्चाबंद हो जाने का इतिहास भी है। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ जनविद्रोह में युवाजनों के बलिदान की गौरवगाथाओं का शायद कोई अंत नहीं है।
आजादी के बाद सत्ता की राजनीति से सबसे पहले मोहभंग हुआ तो युवाजनों का ही। सत्तर के दशक में युवा चेतना के विविध आयाम खुले। लेकिन हर हाल में युवापीढ़ियों के साथ विश्वासघात की परंपरा है।
इस बार में हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं।
ताजा विश्वासघात केसरिया समनामी की उपज हैं।
युवा हाथों को रोजगार बना देने के वायदे के साथ विकास का कामसूत्र थमा दिया है सत्तावर्ग ने और उपभोक्ता संस्कृति में निष्णात करने के हर इंतजाम कर दिये।
तो धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद की पैदल सेना में भी हरावल दस्ता वही युवा पीढ़ियां हैं, जिन्हें लामबंद करने के लिए रोजगार कार्ड का हर कदम पर इस्तेमाल होता रहा।
जैसा कि हमने पहले ही लिखा है और साठ के दशक से अब तक अपने प्रत्यक्षदर्शी ब्यौरा पेश किया है, तकनीक ने रोजगार छीन लिए हैं। क्योंकि तकनीक के जादू ताबूत में कैद है उत्पादन और उत्पादन प्रणाली तकनीकी क्रांति ने खत्म कर दी है। विकास के कामसूत्र में तकनीकी दक्षता के बदले युवा पीढ़ियों को ज्ञान से वंचित कर दिया गया है।
नॉलेज इकोनामी ने रोजगार दफ्तरों का सफाया कर दिया है।
कैंपस रिक्रूटिंग से आम युवाजनों की नियुक्ति असंभव है जबकि ग्लोबल मुक्त बाजार में नियुक्ति दरअसल होती नही है।जो है फायर हायर है।
भोग के दुश्चक्र में सांढ़ संस्कृति की पैदल सेनाओं में तब्दील है युवा पीढ़ियां।
आज हमारी लंबे अरसे बाद प्रेमचंद के बाद हमारे नजरिये से सबसे बड़े भारतीय कहानीकार शेखर जोशी से बात हुई।
उनकी विख्यात कहानी बदबू है।
बदबू का अहसास मर जाना ख्वाबों के मर जाने से भी ज्यादा खतरनाक है।
इंद्रियों से मुक्त युवापीढ़ियों के लिए शेखर जोशी को पढ़ना इसलिए अनिवार्य है कि वे पचास के दशक से अविराम कहानी विधा में भारतीय उत्पादन प्रणाली की समग्र तस्वीर आंकते रहे हैं।
उनकी कहानी दाज्यू नवधनाढ्य वर्ग की सांढ़ संसकृति की पदचाप है भयंकर तो उनकी प्रेम कहानी समझी जाने वाली कोसी के घटवार का विशुद्ध देशी उत्पादन अब सिरे से ब्रांडेड है और पहाड़ों में भी पनचक्कियों का दर्शन मिलना मुश्किल है।
ज्ञान कभी फेल नहीं होता।
ज्ञान तकनीकी दक्षता में बाधक नहीं है। लेकिन तकनीकी दक्षता ने मुक्तबाजार भारत में निषिद्ध कर दिया है ज्ञान की खोज, उच्च शिक्षा और शोध।
निषिद्ध हो गया है मूल्यबोध और विवेक।
जोड़ घटाव की अनिवार्यशिक्षा।
डिग्रियां इफरात बंट रही है आब्जेक्टिव, बिना डिटेल, बिना समग्रता, बिना टेक्स्ट, बिना गहराई की सतही भ्रामक सूचनाओं के साथ तकनीकी दक्षता के साथ बंद गली में कैद हैं युवा पीढ़ियां।
जिन्हें भारतीय उत्पादन प्रणाली के बारे में कुछ भी नहीं मलूम और इसके महाविनाश का कोई अंदाजा उन्हें न हो, इसका पूरा इंतजाम है।
शेखर जी बहुत मितव्ययी कथाकार हैं और भारतीय लेखकों में बांग्ला के नवारुण भट्टाचार्य के अलावा मितव्ययी शब्दशिल्पी उनकी टक्कर का कोई है ही नहीं।
हमें सत्तर के दशक से उनका अभिभावकत्व मिला, लेकिन शब्दों को बांधने की उनकी विरासत में मैं कहीं नहीं हूं। मेरा वृत्तांत लंबा से बेहद लंबा है और शायद इसलिए भी मुझे उनके किफायती लेखन का अमोल मोल मालूम है।
गौरतलब है कि यह लेख कतई शेखर जोशी के कृत्त्व व्यक्तित्व पर नहीं है। रोजगार के सिलसिले में उत्पादन प्रणाली में आये बदलाव को चिन्हित करने के लिए उनकी कहानियां मददगार हैं, विनम्र निवेदन यही है।
तकनीक हर दस साल में बदलती है।
कंप्यूटर को रोजगार का पर्याय बना देने का नतीजा यह है कि आईआईटी में गणित से लेकर इंजीनियरंग के छात्र भी हर दूसरी कैंपस रिक्रूटिंग के बाद आईटी में घुसे चले जाते हैं।
आर्थिक सुधारों के पहले चरण में कृषि की हत्या करके विकास कामसूत्र के तहत विनियंत्रित विनियमित सेवाक्षेत्र और नॉलेज इकोनॉमी का विस्तार हुआ।
आउटसोर्सिंग और ब्रेन ड्रेन को युवा पीढ़ी के अंतिम हश्र में तब्दील कर दिया गया।
आईटी क्रांति के डिजिटल देश में अब सेल्स एजेंट, शेयर दलाल, मार्केटिंग और कॉल सेंटर को छोड़ कहीं रोजगार के अवसर नहीं हैं।
केसरिया कारपोरेट राज जो युवा पीढ़ियों की पीठ पर सवार होकर सत्ता में आयी, वह इन सीमाबद्ध बाड़ाबंदी में भी रोजगार खत्म करने का पुख्ता इंतजाम कर रही है।
कंप्यूटर आटोमेशन के जरिये उत्पादन प्रणाली से फालतू श्रमशक्ति के सफाये का पर्याय रहा है अब तक के ग्लोबीकरण में।
लेकिन कंप्यूटर के लिए भी मानव संसाधन जरुरी है और आवारा पूंजी मानव संसाधनों का उसी तरह कत्लेआम कर रही है, जैसे प्राकृतिक संसाधनों का।
आईटी भी अब रोबोटिक हुई जा रही है, जहां मनुष्य गैर जरूरी है।
ममता बनर्जी ने एक करोड़ रोजगार सृजन के अवसरों के वायदे के साथ वामासुर वध किया तो नमोमहाराज ने हर चुनावी सभा में समस्त युवा पीढ़ियों को रोजगार देने का सब्जबाग दिखाकर वोट लूटे हैं।
ममता भी पीपीपी मॉडल है और गुजरात का मॉडल भी पीपीपी है।
पीपीपी में रोजगार नहीं होते, हायर फायर से चलता है पीपीपी मॉडल।
एफडीआई में भारत को हीरक चतुर्भुज बनाया जा रहा है।
हर सेक्टर में एफडीआई और हर क्षेत्र में विनिवेश।
औद्योगीकरण के नाम पर शहरीकरण।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां और देशी विदेशी कंपनियां रोजगार बांटने के लिए पूंजी लगायेंगी और निवेशकों की अटल आस्था रोजगार के धर्मस्थल बनायेंगे, केसरिया कारपोरेट कायाकल्प का बुनियादी सिद्धांत यही है।
विकास का कामसूत्र भी यही।
यह बिना रक्तपात गुजरात नरसंहार है, जिसके खिलाफ मानवाधिकार का कोई मामला बनता नहीं है।
इस मामले में आगे खुलासा के लिए आज के इकानामिक टाइम्स की लीड खबर पहले पढ़ लें, जिसमें साफ लिखा है कि बाकी सेक्टरों की तरह आईटी में भी आटोमेशन हो रहा है। आउटसोर्सिंग आधारित आईटी उद्योग में भी आटोमेशन।
डॉलर कमाने की अंधी दौड़ में महज अति दक्ष आईटी विशेषज्ञों की प्रासंगिकता है।
गली मोहल्लों में नॉलेज इकोनॉमी के निजी विश्वविद्यालयों, कोचिंग के विनियमित विनियमित मशरूम उद्योग से नेकलने वाली आईटी फौज की फिर वही हालत है जो अदक्ष, अपढ़, अर्धपढ़, देशी गैरअंग्रेजी जनता की नैसर्गिक आजीविका का हश्र हुआ है।
बूम बूम आईटी से लाखों कमाने, अमेरिका सिंगापुर हांगकांग दुबई में डॉलरों की कमाई आम युवाजनों के साथ आम कंप्यूटर आपरेटरों और आईटी इंजीनियरों के लिए भी अब मृगमरीचिका है।
मनुष्य का हर काम करने के लिए रोबोटिक्स पेश है जो इंडिया के डिजिटल होते न होते कंप्यूटरों के इलेक्ट्रानिक वेस्ट महामारी में तब्दील कर देगी।
डिजिटल इंडिया ईकामर्स के लिए हैं। बिना एफडीआई, एफडीआई डायरेक्च टू होम।
जो नौकरियों के साथ साथ कारोबार और खेतों में भी रोजगार खत्म करेगा।
नियोक्ताओं की नीति है हायर स्किल्ड मिनिमम जैसे गवर्नेंस मिनिमम है।
इकनामिक टाइम्से ने खोलकर आईटी महाविस्फोट के कामसूत्र का खुलासा किया है कि कैसे कम से कम मानवसंसाधन से अधिक से अधिक डॉलर कमाये जा सकें और इस खातिर अधिक से अधिक प्रोत्साहन और रियायतें हासिल की जा सकें।
इस सिलसिले में शेखर जोशी प्रसंग महज संजोग है जो संजोग से बेहद प्रासंगिक भी है।
कल रात राजीव के यहां ठहरे। राजीव वैसे बहुत कम बोलते हैं।
कल उसने कोई ज्यादा बातें की नहीं।
बाते नहीं हुईं तो हमने अनहद का शेखर जोशी अंक पढ़ लिया। शेखर जी के समकालीन लोगों में से ज्यादातर अब नहीं हैं और जिन्हें मैं भी जानता रहा हूं सिर्फ शेखर जी के परिवार में शामिल होने की वजह से। सतीश जमाली जी का लेख है और बाकी युवा लोग हैं। प्रणयकृष्ण ने उनकी कविताओं पर लिखा है।
लेकिन इसमें प्रतुल ने जो 100 लूकर गंज का भूगोल इतिहास रच दिया, वह मुझे 1979 में ले गया जब मैं ईजा के संसार में शामिल था और पूरा इलाहाबाद हमारा था।
बाकी राजीव का लेख कोसी का जोशी, जयपुर का कौल अद्भुत आख्यान है जिसमें सिनेमा और साहित्य एकाकार है।
देर रात तक हम डीएसबी जमाने की तरह शेखर जी की कहानियों पर बातें करते रहें तो सुबह ही संजू से फोन नंबर लेकर शेखर जी से बात की। उन्होंने छूटते ही कहा कि प्रतुल तुम्हारे बेहद पास है,शिलांग होकर आओ। वह अकेला है।
वे बोले कि ईजा के निधन के बाद साल भर उन्होंने कुछ लिखा पढ़ा नहीं है और अब फिर कुमांऊनी में लिख रहे हैं। उन्हीं से पता चला कि प्रयाग जोशी अब हल्दवानी बस गये हैं।
राजीव और मीना भाभी आज ही समान समेटकर दिल्ली भेजने की कवायद में लगे हैं और बच्चे दिल्ली जाने से पहले अपने स्कूल गये हैं तो जल्दी-जल्दी घर लौट आया। सीधे लौट नहीं पाया बायपास पर विकास कारनामे की वजह से। घूमकर ट्रेन से आया और आते ही इकानामिक टाइम्स लेकर बैठा।
लीडखबर पढ़ते ही सबसे पहले सेखर जी की कहानियां याद आ गयी और अकस्मात महसूस हुआ कि किसी भारतीय रचनाकार ने पचास के दशक से अब तक लगातार उत्पादन प्रणाली, रोजगार और श्रम पर अविराम लिखा ही नहीं है।
रुक रुक कर जरूर लिखा होगा।
अलग अलग विधाओं में लिखा होगा। लेकिन एक ही विधा में उत्पादन प्रणाली की मुकम्मल तस्वीर शेखर जी की कहानियों में ही है।
हमारे तमाम मित्र मोदी के मुकाबले उतरे अरविंद केजरीवाल के खिलाफ लिख रहे थे तो मेरी नजर में अरविंद कहीं थे ही नहीं। हम उनके साथ खड़े युवाजनों को देख रहे थे, जिन्हें हम संबोधित नहीं कर पाये और अंततः ग्लोबीकरण के केसरिया ईश्वर ने उन्हें रोजगार और उज्जवल भविष्य के सब्जबाग दिखाकर धर्मोन्मादी पैदल सेनाओं में तब्दील कर दिया।
विडंबना यह है कि मोदी और केजरीवाल की युद्धक सेनाओं मे आईटी विशेषज्ञों का ही वर्चस्व रहा। पद्मसुनामी के लिए केसरिया ब्रिगेड ने इस आईटी वाहिनियों के जरिये केजरीवाल आईटी सेना को जंगेमैदान में ध्वस्त कर दिया। और अब उसी आईटी में रोजगार के बजाय बेरोजगारी का महाविस्फोट तय है।
मित्रों मुझे माफ करना कि हमने अपने बच्चों को सबकुछ छोड़कर आईटी विशेषज्ञ बनाकर अब तक मौत का सामान जुटाया है।
सुरसम्राज्ञी लता जी की बहन आशाजी ने पहले ही चेताया है कि अब युवा पीढ़िया वर्चुअल पीढ़ियां हैं और वे कुछ भी करने लायक नहीं है।
मित्रों मुझे इस निर्मम, अमोघ भविष्यवाणी के लिए माफ करना कि चाय बागानों, कारखानों, खनन परियोजनाओं, खुदरा कारोबार, खेतों खलिहानों के साथ साथ अबकी दफा मृत्यु जुलूस का सिलसिला आईटी सेक्टर में भी शुरु होने ही वाला है। यही है दूसरे चरण का आर्थिक सुधार।
अभी बहुत लिखना बाकी है। सिलसिलेवार लिखना बाकी है। मेरे पिता दिवंगत हैं लेकिन मेरे अभिभावक शेखर जोशी अब भी लिख रहे हैं।
आज इतना ही।


