यूपी चुनाव-विकास और सांप्रदायिकता की भाजपाई कॉकटेल
यूपी चुनाव-विकास और सांप्रदायिकता की भाजपाई कॉकटेल
तो, जनता लात मारकर बाहर कर दे!
इलाहाबाद के कुंभ मेला मैदान से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाकायदा उत्तर प्रदेश के विधानसभाई चुनाव के लिए प्रचार का शंख फूंक दिया है। देश के इस सबसे बड़े राज्य में विधानसभाई चुनाव अगले साल के शुरू में होने वाले हैं। भाजपा की कार्यकारिणी की दो दिन की बैठक के समापन के मौके पर, सोमवार 13 जून को हुई सभा में बोलते हुए मोदी ने विकास के नाम पर सीधे उत्तर प्रदेश की जनता से पांच साल का ‘‘मौका’’ मांगा और कहा कि उनकी सरकार अगर अपने ‘विकास यज्ञ’ में कामयाब नहीं हो तो, जनता उसे लात मारकर बाहर कर दे!
लेकिन, ठीक इसी के लिए तो पांच राज्यों के विधानसभाई चुनाव और फिर राज्यसभा चुनाव के फौरन बाद, पूर्वी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक-बौद्धिक हृदय माने जाने वाले इलाहाबाद में, भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक का आयोजन किया गया था। फिर इसमें क्या खबर हो सकती है?
वैसे खबर इसमें भी नहीं है कि भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के ठीक पहले, केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को, जो एक मौके पर उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार के मुख्यमंत्री भी रहे थे तथा उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली ठाकुर नेताओं में गिने जाते हैं, उत्तर प्रदेश में भाजपा के चुनाव प्रचार में नेतृत्वकारी भूमिका दिए जाने के एलान के बावजूद, उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए भाजपा का चेहरा तय करने का सवाल भाजपा कार्यकारिणी की बैठक ने, ‘सर्वेक्षणों के बाद’ के लिए टाल दिया गया। इससे भी आगे बढक़र खासतौर पर चुनाव प्रचार का शंख फूंकने वाली सभा के जरिए स्पष्ट रूप से यह भी जताया गया कि भाजपा चेहरा घोषित करे या न करे, उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही लड़ा जाएगा।
भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की इलाहाबाद बैठक और उससे जुड़ी भाजपा की उत्तर प्रदेश के विधानसभाई चुनाव की पहली महत्वपूर्ण सभा के सिलसिले में अगर कोई खबर है, तो यही कि मोदी राज के दो साल बाद भी भाजपा रत्तीभर नहीं बदली है और उसने इसका खुला एलान कर दिया है कि वह बिहार के पिछले विधानसभाई चुनाव की तरह ही उत्तर प्रदेश के इस अति-महत्वपूर्ण चुनाव में भी, एक साथ दो अलग-अलग स्वरों में बोलने की उसी जानी-पहचानी कार्यनीति का सहारा लेने ला रही है, जिसे संघ परिवार ने मांज-मांज कर एक कला के दर्जे पर पहुंचा दिया है। इसीलिए, भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक के अपने समापन भाषण में और फिर बहुत जोर-शोर से कुंभ मेला मैदान की सभा में, प्रधानमंत्री मोदी ने विकास की बातें कीं, अपने दो साल के राज में शानदार विकास के दावे किए और उत्तर प्रदेश में ‘विकास यज्ञ’ का वादा किया। संक्षेप में विकास के हथियार से और भ्रष्टाचार व कानून के राज के तीरों से ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के अपने प्रमुख राजनीतिक विरोधियों, समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस को निशाने पर लिया।
इस चुनाव में भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा
लेकिन, इसके साथ-साथ और वास्तव में उनके पूरक के रूप में खुद भाजपा अध्यक्ष, अमितशाह ने भाजपा की कार्यकारिणी की बैठक के अपने अध्यक्षीय भाषण से, खासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले के कस्बे कैराना से ‘मुसलमानों के आतंक के चलते सैकड़ों हिंदू परिवारों के पलायन’ के, इस बैठक कीपूर्व-संध्या में ही संघ परिवार के अन्य बाजुओं द्वारा छेड़े गए दुष्प्रचार को उछालने के जरिए और बाद में आम सभा में अपने संबोधन में एक नहीं, दो-दो बार इस प्रसंग को उठाने के जरिए, उतने ही जोरों से यह साफ कर दिया कि भाजपा, इस चुनाव में भी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अपने जाने-पहचाने हथियारों को आजमाने में कोई कसर नहीं छोडऩे जा रही है। उल्टे कैराना को मुद्दा बनाने के जरिए, जिस पर हम जरा बाद में चर्चा करेंगे, भाजपा अध्यक्ष ने यही दिखाया है कि ध्रुवीकरण की अपनी कोशिश के लिए भाजपा को किसी वास्तविक बहाने की भी जरूरत नहीं है।
बहाना गढ़ने के मामले में संघ परिवार एकदम आत्मनिर्भर है और कोई भी सांप्रदायिक बहाना गढ़ सकता है।
और जैसा कि संघ परिवार के ‘श्रम विभाजन’ का स्वर्णिम नियम है, न प्रधानमंत्री को अपने विकास के नारे और अपने कृपापात्र भाजपा अध्यक्ष के इस सांप्रदायिक उकसावे में कोई टकराव दिखाई दिया और न भाजपा अध्यक्ष को। दोनों जनता को प्रभावित करने के संघ के नाटक में, जो 2014 के आम चुनाव में काफी कामयाब भी रहा था, ईमानदारी से अपनी-अपनी भूमिका अदा कर रहे थे।
हां! वैसे श्रम विभाजन का यह रूप उत्तर प्रदेश के चुनाव तक जैसे का तैसा बने रहे, यह भी कोई जरूरी नहीं है। याद रहे कि बिहार के चुनाव में तो मोदी ने ही विकास और खासतौर पर गोरक्षा के नाम पर बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, दोनों दुहाइयों का खुद अपने श्रीमुख से एक साथ उपयोग करने की कोशिश की थी। यह दूसरी बात है कि इस कोशिश को बिहार की जनता ने चुनाव में हिकारत के साथ ठुकरा दिया। उससे सबक लेकर यूपी में इस तरह के श्रम विभाजन का पर्दा बनाए भी रखा जा सकता है।
हां! अगर भाजपा मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा किए बिना बिहार की तरह मोदी के प्रत्यक्ष नेतृत्व में ही यूपी में चुनाव लडऩे को ज्यादा अनुकूल पाती है, तब जरूर नरेंद्र मोदी को बिहार की ही तरह, विकास पुरुष के मुखौटे के पीछे का हिंदुत्ववादी चेहरा भी बीच-बीच में दिखाते रहना होगा।
हां! अगर मुख्यमंत्री पद का घोषित उम्मीदवार इसी काम को अंजाम दे रहा हो, तब जरूर नरेंद्र मोदी आराम से विकास पुरुष बने रह सकते हैं, जैसा हाल में असम के विधानसभाई चुनाव में उन्हें किया था।
इस बार हिंदुत्ववादी गोलबंदी का बहाना क्या होगा?
2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में और उसमें भी विशेष रूप से समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने जिस तरह, 2013 के अगस्त-सितंबर के मुजफ्फरनगर के अब तक के सबसे भयावह मुस्लिमविरोधी दंगों को हिंदुत्ववादी संप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिए भुनाया था और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सारी की सारी सीटों पर कब्जा जमाया था, उसे देखते हुए यह तो आमतौर पर मानकर ही चला जा रहा था कि भाजपा समेत समूचे संघ परिवार द्वारा राजनीतिक रूप से अति-महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में विधानसभाई चुनाव जीतने के लिए, एक बार फिर विकास और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता के नारों की कॉकटेल का सहारा लिया जाएगा। लेकिन, इस बार हिंदुत्ववादी गोलबंदी का बहाना क्या होगा, यह अब जाकर स्पष्ट हुआ है।
वैसे इससे ठीक पहले, दादरी में बिसाहड़ा में गोमांस खाने के नाम पर अखलाक की हिंदुत्ववादी भीड़ के हाथों हत्या के प्रकरण को ही, मथुरा की फोरेंसिंक साइंस लैबोरेटरी की रिपोर्ट के बहाने से, पलटकर हमलावर हिंदुत्ववादी गोलबंदी के औजार में तब्दील करने की कोशिशें भी की गयी थीं।
इस क्रम में बिसाहड़ा में बाकायदा भाजपा-शिवसेना के नेतृत्व में, तथाकथित ‘महापंचायत’ कर अखलाक के परिवार पर गोहत्या का केस दर्ज करने के लिए प्रशासन को बाकायदा ‘बीस दिन का अल्टीेमेटम’ भी दे दिया गया और विहिप आदि संघ परिवार के अन्य बाजुओं के साथ ही, योगी आदित्यनाथ आदि से लेकर मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी केंद्रीय मंत्री संजीव बलियान तथा स्थानीय सांसद व केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा तक, सभी ‘गोहत्या का असली अपराध’ याद दिलाने के लिए मैदान में कूद भी पड़े थे।
फिर भी, ‘गोहत्या के लिए हत्या’ को उत्तर प्रदेश के हिंदुओं के बड़े हिस्से के गले उतरवाना आसान नहीं था। लिहाजा, जब 2013 के दंगों की आग में मुजफ्फरनगर के साथ ही झुलसे शामली जिले के, अस्सी फीसद से ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले कस्बे कैराना से ‘हिंदुओं के भारी पलायन’ से लेकर, ‘समाजवादी पार्टी के राज में उत्तर प्रदेश के दूसरा कश्मीर बनने’ तक के आरोप, भाजपा के स्थानीय सांसद और मुजफ्फरनगर के दंगों के आरोपी, हुकुम सिंह ने 30 मई को उछाले और भाजपा समेत संघ परिवार ने उन्हें हाथों-हाथ लपक लिया।
विधानसभाई चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार बनाए जाने के दावेदारों में अग्रणी, केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने फौरन अपने सांसद की गुहार सुनी और उनसे मुलाकात में समुचित कार्रवाई का आश्वासन दिया। इसके फौरन बाद, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिंदुओं के कथित ‘पलायन’ का संज्ञान लेते हुए, उत्तर प्रदेश सरकार से जवाब मांग लिया। उधर भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के मौके पर, हुकुम सिंह की ही अध्यक्षता में भाजपा ने एक साल सदस्यीय जांच दल के गठन का एलान कर दिया गया।
संघ परिवार को लग रहा है कि उसके हाथ तुरुप का इक्का लग गया
इसके साथ ही भाजपा अध्यक्ष ने पहले अपने अध्यक्षीय भाषण में और फिर आम सभा में इस मुद्दे को ‘हल्के में न लेने’ का आह्वान किया और संघ परिवार के अन्य बाजुओं के साथ गडकरी से लेकर गृहराज्य मंत्री किरण रिजजू तक, केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्री, इस मामले में गंभीरता दिखाने में जुट गए!
चूंकि अखलाक प्रकरण के विपरीत, इस कहानी में प्रमुख तत्व ‘हिंदुओं के विक्टिम होने’ की शिकायत का है, संघ परिवार को लग रहा है कि उसके हाथ तुरुप का इक्का लग गया है। इसीलिए, उसके इस खेल में इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पडऩे जा रहा है कि कैराना से मुसलमानों के आतंक के चलते हिंदुओं के पलायन की इस समूची कहानी की तरह, हुकुमसिंह की सूची भी झूठी है, जिसमें ऐसे परिवारों की खासी बड़ी संख्या शामिल है, जिन्होंने आय के बेहतर मौकों की तलाश में पिछले पांच से पंद्रह साल के बीच, इस अपेक्षाकृत कम विकसित कस्बे से पलायन किया है।
याद रहे कि ठीक इन्हीं कारणों से मुस्लिम परिवारों की भी कुछ ऐसी ही संख्या ने इस बीच इस कस्बे से पलायन किया है। इसके अलावा इस सूची में ऐसे लोगों की भी ठीक-ठाक संख्या है जो अब भी कैराना में रहते हैं। यहां तक कि संघी सूची बनाने वालों ने अपनी सांप्रदायिक राजनीति का मोहरा बनाने से मृतकों को भी नहीं बख्शा है।
बेशक, संघ-भाजपा को लग रहा है कि इस खुले सांप्रदायिक खेल के साथ-साथ, मोदी का विकास का मुखौटा भी उत्तर प्रदेश के चुनाव में काम करेगा! बिहार का चुनाव गवाह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की अकल्पनीय कामयाबी के बावजूद, इस खेल को शिकस्त भी दी सकती है। लेकिन, दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश में धर्मनिरपेक्ष ताकतों की ओर से इस चुनौती को स्वीकार करने की कोई तैयारी, कम से कम अभी तो नजर नहीं आ रही है।
सपा-बसपा की एकता शर्तिया भाजपा का रथ रोक सकती है, लेकिन उसकी तो कल्पना तक कोई नहीं कर सकता है। लेकिन, इनमें से किसी एक बड़े ध्रुव के गिर्द बाकी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों का जुटना भी, कम से कम इस चुनाव में भाजपा के लिए वास्तविक चुनावी चुनौती तो पेश कर ही सकता है। क्या धर्मनिरपेक्ष ताकतें इतना भी नहीं करेंगी!
राजेंद्र शर्मा
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