रणधीर सिंह सुमन
संसद में छुआ-छूत को लेकर बहस चल रही है। एक पक्ष इस बात को लेकर अड़ा हुआ है कि मंदिरों में जातिगत भेदभाव नहीं है। यह बात कहते हुए अच्छा तो लगता है कि सभी जीव एक परमात्मा ने बनाये हैं और सभी आदमी बराबर हैं लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि जिस थाली में कुत्ता खाता है उस थाली को साफ़ कर लोग खाना खा लेते हैं लेकिन उसी थाली में दलित को नहीं खिलाया जा सकता है। अगर दलित खा ले तो वह थाली फेंक दी जाती है।
यह भारतीय समाज का कटु सत्य है और एक साधन संपन्न तबका दलितों को, पिछड़ों को आदमी मानने से ही इनकार करता है। मंदिरों में जातिगत आधार पर ही प्रवेश मिलता है और इसीलिए पूरे देश में अक्सर समाचार मिलते रहते हैं कि मंदिर में जाने पर दलित की पिटाई। मंदिरों में गोत्र पूछा जाता है। गोत्र सिर्फ सवर्ण जातियों में ही होते हैं। अन्य जातियों में गोत्र की कोई व्यवस्था ही नहीं होती है।
मंदिर बनाने का काम दलित करता है, मूर्ति का निर्माण वह करता है, लेकिन मंदिर बन जाने के बाद उसमें वह जाकर अपने द्वारा बनायीं गयी मूर्ति को वह छू नहीं सकता है। प्राण प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उस मंदिर और उस मूर्ति पर एक विशेष तबके का अधिकार हो जाता है।
भारतीय समाज में आज भी नौकरी में आवास किराये पर देने का, बगल में बैठाने पर, सरकारी कार्यालयों में कानूनी ढंग से काम करने में तथा न्याय देने वाले व्यक्ति भी जातीय मानसिकता से कार्य करते हैं। लोकतंत्र है वोट चाहिए कुर्सी पाने के लिए इसलिए तरह-तरह की अच्छी-अच्छी बातें चुनाव भर लोग करते हैं। जाति और धर्म के आधार पर विभेद न करने की बात की जाती है। चुनाव का परिणाम आने के बाद फिर वही अभिजातीय मानसिकता काम करने लगती है।
इस मानसिकता को जिन्दा रखने का काम अपने को सांस्कृतिक संगठन कहने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा उसके द्वारा निर्मित संगठन विश्व हिन्दू परिषद करते हैं। यह लोग जातीय आधार पर मनुस्मृति को ही संविधान बना देना चाहते थे। यह संगठन कभी भी जाति समाप्त करने की दिशा में कोई कार्य नहीं करते हैं वरन जाति को मजबूत करने के लिए व्यावहारिक रूप से कार्य करते हैं। जातीय विभेद को समाप्त करने में राजनितिक दलों का भी स्वार्थ है। वह लोग जाति को इसलिए जिन्दा रखतें जिससे चुनाव में जीतने में आसानी हो।
इसी नजरिये से कांग्रेस की वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री कुमारी शैलजा ने राज्यसभा में बहस के दौरान का बयान, जब वह गुजरात के द्वारका मंदिर गईं थीं तो उनसे उनकी जाति पूछी गई थी, देखा जाना चाहिए। चुनाव के समय नेतागण- मीडिया जातीय आधार पर ही हार-जीत का परिणाम बताते हैं।
जब तक जाति व्यवस्था का नाश नहीं होगा तब तक देश में स्वस्थ लोकतंत्र नहीं हो सकता है और न ही मानव को मानव के अधिकार ही मिल सकते हैं। जाति व्यवस्था शोषण करने का एक अच्छा और अचूक हथियार है।