ये चुप रहने और सहने का वक़्त नहीं
ये चुप रहने और सहने का वक़्त नहीं
विद्या भूषण रावत
बदायूं की दो बहनों की अमानवीय और क्रूर हत्याओं ने भारत के 'सभ्य समाज' की पोल खोल कर रख दी है। शर्मनाक घटना पे वादे, मुआवजे और कार्यवाही होती रहेगी लेकिन क्या हम प्रश्न के मूल तक जायेंगे और सरकार से जवाब मांगेगे कि ऐसा क्यों हो रहा है और कब तक सरकार इनके बंद होने की गारंटी देगी। ये केवल बलात्कार और हत्या नहीं है। इस घटना ने हमारे प्रशासन और उसकी जातिवादी निष्ठा को भी उजागर किया है और बताया है क्यों हम मूल प्रश्नों से हटकर सत्ता चाहते हैं और नेता चुनते हैं।
लोकतंत्र में सरकार की न जाति होती न धर्म। उसे सबके हितों के लिए काम करना होता है। भारत का हर एक व्यक्ति सुरक्षा और इज्जत का हकदार है। लेकिन क्या वाकई में गाँव से उपजी राजनीति में ऐसा है? सत्ता हमारे गाँव में अपनी झूठी शान और ताकत का हथियार बन चुकी है। भारत की सरकार दिल्ली से नहीं चलती बल्कि भारत के जातिवादी गाँव से चलती है इसीलिए मुजफ्फरनगर के हत्यारे घूमते हैं और दंगे के आरोपी मंत्री बन जाते हैं। बलात्कार के आरोपी आराम से इज्जत से हैं। हरियाणा की खापें वैसे ही सत्ता का मज़ा ले रही हैं और दलितों की हत्या और उनकी महिलाओं पर दुष्कर्म सरकार के लिए मायने नहीं रखता। उत्तर प्रदेश में भी यही हाल है और मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, आंध्र, तमिलनाडु, कर्नाटका आदि भी पीछे नहीं है क्योंकि जाति की राजनीति में दलित मानवाधिकार का मुद्दा गौण हो कर रह गया है।
भारत के गांव मनुवाद का सबसे बड़ा अड्डा हैं। उत्तर प्रदेश में बदायूं की दो दलित बहनों की बलात्कार के बाद जघन्य हत्या ने भारत में लोकतंत्र की हकीकत को उजागर कर दिया है। ये कृत्य किसी तालिबानी कृत्य से कम नहीं है। शर्मनाक इसके लिए बहुत छोटा सा शब्द है। क्या इतने जघन्य अपराधों पर हम खामोश रहेंगे? उत्तर प्रदेश की सरकार में जाति का नंगा नाच चल रहा है। लोहिया ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिस समाज की हम परिकल्पना कर रहे हैं वहां उनके शिष्यों की सरकार में गुंडे और अपराधी जाति के नाम पर अपनी चौधराहट दिखाते रहेंगे। भारत में अगर लोकतंत्र को जिन्दा रखना है ब्राह्मणवादी व्यवस्था का खात्मा करना होगा जिसने हमारी संवैधानिक व्यवस्था को बिलकुल कमजोर कर दिया है। क्या ऐसे समाज से हम दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र का नाटक करते रहेंगे? ये घटनाएं जाति की वर्चस्व को साबित करती हैं और दलित अस्मिता और आत्म सम्मान को कुचलना चाहती हैं। आज लोकतंत्र को मनुवाद ने गुलाम बनाके रखा है और दुर्भाग्यवश शूद्र प्रभुत्ववाद ब्राह्मणवाद का ही हिस्सा है। दुखद बात यह है कि हमारे गांव में जाति के इस घिनौनी कुकृत्य को भी सही ठहराने वाले लोग मिलते हैं इसलिए जातियों की अस्मिताओं का धंधा चलता है। आज जरूरत इस बात की है कि गलत को गलत कहने की हिम्मत हम रखें चाहे वो गलती मैंने की हो, मेरी जाति की हो या उस बिरादरी के नेता की हो या मेरे परिवार की ही क्यों न हो। अब जातियों के नाम पर गलत को सही ठहरने वालों के खिलाफ खड़े होने का है। ये चुप रहने का समय नहीं है। ऐसे घिनौने अपराध करने वालों को माफ़ नहीं किया जा सकता।
ये लोकतान्त्रिक देश है जहाँ दलित लोकतंत्र में वोट के समीकरण में पिस रहा है। हरियाणा में जाट आतंक ने अभी तक दलितों को कहीं का नहीं छोड़ा है और सरकार चुप है। उत्तर प्रदेश में अब भी यही प्रभुत्ववाद जारी है। कश्मीरी पंडितों के लिए हम यू एन में जाने को तैयार हैं, उन्हें दिल्ली में बसने दिया जाता है लेकिन लाखों दलितों को कोई व्यवस्था नहीं है। भारत सरकार ने भूमि सुधारों के कानून ईमानदारी से कभी लागू नहीं किये और इसलिए हर एक राज्य में दो चार बड़ी जातियां दलित अस्मिता के साथ खिलवाड़ करते रहती हैं, जमीनों पर कब्ज़ा करती रहती हैं और उन्हें सम्मान पूर्वक जिंदगी भी नहीं जीने देती। भारत के जातिवादी गाँव दलितों को रखना नहीं चाहते और यदि रखना चाहते हैं तो अपनी अस्मिता को कुचल कर और गुलामी की जिंदगी जी कर। कश्मीरी ब्राह्मणों की चिंता करने वाली सरकार और वो सभी रही हैं दलितों की अस्मिता और आत्मा सम्मान के लिए उन्हें क्यों नहीं पुनर्वासित करती। क्यों नहीं सरकार दलितों को दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, लखनऊ, हैदराबाद आदि जगहों पर इज्जत के साथ बसाती? अगर ऐसा हुआ तो दलितों को गांवो से बाहर खदेड़ने वालो के मुंह पर सबसे बड़ा तमाचा होगा। लेकिन मनुवादी तंत्र में ऐसा शायद ही संभव हो फिर भी हम चुप नहीं रह सकते।
बाबा साहेब का समुदाय अब लड़ने को तैयार है, वो मरने के लिए तैयार है लेकिन अपनी अस्मिता पर ऐसे क्रूर हमले नहीं सहन करेगा। भारत की तमाम सरकारे पूर्ण तौर पर असफल हो चुकी हैं क्योंकि मनुवाद के शिष्य सत्ता के हर गलियारे पर कब्ज़ा किये बैठे हैं और जब तक ऐसा रहेगा भारत में लोकतंत्र लूटता रहेगा क्योंकि उनकी निष्ठाएँ अपनी जातियों से हैं न की भारत के संविधान से। इस प्रश्न पर हमें अब अंतिम लड़ाई के लिए तैयार रहना पड़ेगा। राजनैतिक दल अपनी अपनी रोटी सकेंगे और नफा-नुक्सान के हिसाब से बाते करेंगे। कुछ अभी चुप रहेंगे और 'समय' पे बोलेंगे। ऐसे सभी लोगों की जितनी निंदा की जाए काम है। आज मैं खुल कर कहता हूँ लानत है ऐसे देश और ऐसे समाज पर जहाँ ऐसे दुष्कृत्यों के बावजूद भी हम घरो पर बैठे रहे। जब तक एक भी महिला के ऊपर ऐसे जघन्य कृत्य होते रहेंगे हम भारत को असभ्य संस्कृति का अड्डा कहते रहेंगे जहाँ चुनाव की राजनीति आपके सारे पाप धो देती है और इसलिए दलितों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है।


