ये बाढ़ तो मानव जनित है
ये बाढ़ तो मानव जनित है
संकट में हिमालय-1
ओंकार मित्तल
भारत में जिसे अभिजात्य कहा जाता है वो भारत में एक वर्ग है भी नहीं ये स्पष्ट नहीं है उसे एक धारणा के रूप में लेना मुश्किल है। हिमालय न केवल भारत में बल्कि कई देशों से होकर गुजरता है, वो चीन और म्यानमार तक फैला है। हिमालय के देशों में चीन भी शामिल है इसलिए हम उस संबंध में चीन को अपने साथ जोड़ने के पक्ष मे थे लेकिन वो हो नहीं पाया। हिमालय के बोध एवं ज्ञान के संबंध में भारत के अभिजात्य वर्ग का क्या स्थान है ये स्पष्ट नहीं बस ये कहा जा सकता है कि अभिजात्य अर्थात संपन्न एवं अमीर वर्ग। मैंने पिछले 4-5 सालों में देखा कि पारिस्थितिकीय बोध का हमारे यहां अभाव रहा। जैसे शिव पुराण की बातें भले ही यहां बहुत हों लेकिन लोगों को फिर भी उसकी पूरी समझ नहीं है उसी तरह से पारिस्थितिकीय की बातें भले ही होती रहती हों लेकिन लोगों को फिर भी उसका ज्ञान नहीं। हम पिछले 4-5 साल से कोशिश कर रहे हैं कि एक अभिजात्य वर्ग उत्पन्न हो जो इस सब के बारे में चर्चा करने की क्षमता तो रखता हो क्योंकि पिछले 6-7 दिनों से जम्मू कश्मीर में बाढ़ का कहर जारी है और इस विषय पर हमारे अखबारों, समाचार चैनलों आदि में खूब बातें हो रही हैं लेकिन वहीं पाकिस्तान में आई बाढ़ की कोई बात नहीं। 2010-11 में भी पाकिस्तान में बाढ़ आई जिससे एक तिहाई भाग डूब गया लेकिन भारत में उसके बारे में एक भी बैठक नहीं हुई। सरयू नदी क्षेत्र में हर वर्ष बाढ़ आती है पर उसकी चर्चा नहीं की जाती, बाढ़ की चर्चा जब होती है तो बिहार का ही अधिक नाम आता है। बिहार में जिस तरह के तटबंध हैं वैसे पाकिस्तान में भी हैं।
बिहार में बाढ़ आने की शुरूआत नदी के रास्तों को बंद करने और लोगों के बसावट के बदलते तरीकों एवं जंगलों को काटने से हुई। पहाड़ के लोगों का मुख्य संघर्ष भी गंगा की छोटी धाराओं के रास्ते बंद करने के कारण से हुआ। आज हम कहते रहते हैं कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और बाढ़ आ रही है। पाकिस्तान में भी चर्चा हुई और 1900 वीं शताब्दी में हुए अध्ययनों में भी यही बात निकलकर आई कि बरसात के रूप में जितना भी पानी बरसता है वो कहीं न कहीं चला जाता था या उसका अपने आप की निकास हो जाता था। उस समय बाढ़ की त्रासदी के समय भी पानी को नियंत्रित किया जा सकता था और ये तय था कि बाढ़ के समय गंगा में कितना पानी छोड़ना है ताकि उसे आसानी से नियंत्रित किया जा सके। लेकिन पिछले कुछ सालों से हमने बाढ़ के अधिक पानी का निकास करने के लिए किस तरह से प्रबंध करना है उसके बारे में चर्चा नहीं की। बिहार में बाढ़ आने का सिलसिला तब से शुरू हुआ जबसे वहां तटबंध बनने लगे। ऐसा नहीं है कि वहां पहले बाढ़ नहीं आती थी बल्कि वहां 1950-52 में भयानक बाढ़ आई और सब नष्ट हो गया लेकिन आज आने वाली बाढ़ की त्रासदी ज्यादा हो गई है जो कि पहले नहीं थी। उसी तरह चीन में भी एक बार ऐसी बाढ़ आई कि उसमें 5 लाख से अधिक लोगों के मरने की खबर थी तो ऐसा नहीं है कि बाढ़ पहले नहीं आया करती थीं लेकिन पहले जो बाढ़ आती थी उसमें पूरी तरह से प्रकृति का हाथ होता था लेकिन अब मानव जनित कारणों से ऐसा हो रहा है। उसी तरह से आज उत्तराखण्ड या जम्मू कश्मीर की त्रासदी का कारण अतिवृष्टि एवं जलवायु परिवर्तन हो लेकिन ये केवल उसका एक ही पक्ष है दूसरा पक्ष मानव जन्य अन्य कारण हैं जैसे निर्माण कार्य का अधिक होना। पहाड़ में आई आपदा का एक कारण ऊपर की आबादी का घनत्व बढ़ना और नीचे की आबादी का कम होना है। 2010-11 में पाकिस्तान में आई बाढ़ में काबुल नदी से पानी का प्रकोप और पानी जाने के रास्ते रोके जाने एवं बंद होने, प्राकृतिक निकास खत्म किए जाने, पुल आदि बना दिए जाने से बहुत बड़ी तबाही हुई इसलिए इसे मानव जनित आपदा कहा जा सकता है। हिमालय कच्चा पहाड़ है इन क्षेत्रों में नदी बहती है तो वो अपने साथ गाद भी लेकर आती है। यहां नदियों का निश्चित मार्ग नहीं था वो अक्सर अपना रास्ता बदलती थी तो मानव ने सोचा कि क्यों न हम इसका एक निश्चित रास्ता बना दें और इसके दुष्परिणाम बाढ़ के रूप में सामने आ रहे हैं अब भले ही हम इसे दैवीय आपदा कहें या कुछ और भुगतना तो पड़ेगा ही। इन स्थितियों में केवल एक संस्था इसे रोकने या भिन्न दिशा में ले जाने की क्षमता नहीं रखती इसमें राजकीय संस्थानों की भूमिका या जिसे अभिजात्य कहा जाता है यदि हम उस पर कुछ प्रभाव डाल सकें तो आपदा को ठीक करने के लिए जो भी काम किए जा रहे हैं उसमें कुछ किया जा सकता है क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि आपदा से बचने या आपदा के बाद होने वालों कामों के लिए जो कुछ किया जाता है उसमें कोई और ऐसी गलती हो जाती है जो फिर एक नई आपदा को जन्म दे देती है। इस संबंध में यदि हम एक नेटवर्क बना सकें तो इस क्षेत्र के विशेषज्ञों या कई बार आम साधारण लोगों से बातचीत में भी कई प्रभावकारी उपाय निकल आते हैं लेकिन हमारी व्यवस्था उसे स्वीकार नहीं करती तो यदि हम एक नेटवर्क बनाकर उसके माध्यम से वो बातें सरकार एवं नीति निर्माताओं तक पहुंचा पाएं तो सार्थक नीतियां बन पाएंगी।
(9 सितम्बर को हिमालय दिवस के मौके पर दिल्ली में हिमालय, पारिस्थितिकीय, लोगः भारतीय अभिजात्य वर्ग की भूमिका विषय पर आयोजित बैठक में नदी और बाढ़ आदि विषयों पर काम करने वाले ओंकार मित्तल का संबोधन। )
प्रस्तुति- विजय लक्ष्मी ढौंडियाल
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