ये सुधार कर ही मानेंगे मीडिया को, शुरुआत आडवाणी ने की थी
ये सुधार कर ही मानेंगे मीडिया को, शुरुआत आडवाणी ने की थी
केजरीवाल कंपनी सीनाजोरी पर उतारू है, कल सुपारी किलिंग भी करेगी।
मीडिया को प्रदूषित करने का सुनियोजित काम जनता पार्टी की सरकार में लाल कृष्ण अडवाणी के सूचना प्रसारण मंत्री रहते शुरू हुआ
ओमप्रकाश
मुंबई। केजरीवाल ने ऐसा कुछ नहीं कह दिया था जिस पर किसी मीडिया वाले को नाराज़ होने की जरूरत पड़ती। अपनी बात के प्रचार-प्रसार के लिये राजनीतिक दलों को पहले पार्टी मुखपत्र निकालना ही पड़ता था। ( उस कड़ी में आम आदमी पार्टी ने भी अपना मुखपत्र निकाल रखा है। ) कभी-कभी उसके ही थोड़े संशोधित रूप को बाज़ार में भी डाला जाता था। यह बहुत अच्छी व्यवस्था थी, जिसमें पाठकों को पता रहता था कि वे किसी बात को किस नज़रिये से पढ़ रहे हैं।
पार्टियों के इस प्रयास की सीमाएं थीं। उनके बाज़ार संस्करण भी अक्सर उनके समर्थकों तक ही सीमित रह जाते थे और मीडिया मोटा-मोटी अपने स्वतंत्र स्वरूप में ही बना रहता था। लिहाज़ा कुछ राजनीतिक दलों ने मीडिया को हथियाने, हड़पने, दबोचने, खरीदने से लेकर अपना ढंका-छिपा या समर्थकों का मीडिया हाउस ही खड़ा करने की कोशिशें की हैं। दबाव, प्रलोभन, घुसपैठ और बेईमानी से मीडिया के काम में भारी गिरावट आई है। अर्जुन सिंह वगैरह ने पत्रकारों को खूब खरीदा। लेकिन मीडिया को प्रदूषित करने का सुनियोजित काम जनता पार्टी की सरकार में लाल कृष्ण अडवाणी के सूचना प्रसारण मंत्री रहते शुरू हुआ।
कार्यकर्ताओं की खेप की खेप ही अखबारों में घुसाई गयी। यह काम ज्यादातर भाजपा ने ही किया है। अब तो काम और आगे बढ़ा है। समर्थकों के भी मीडिया हाउस बने हैं और समर्थकों के मीडिया हाउस बनवा भी दिये गये हैं। मीडिया में राजनीतिक दखल के खिलाफ बड़ा देशव्यापी आंदोलन 1995-96 में शुरू हुआ। इसके प्रणेता जनसत्ता के संपादक श्री प्रभाष जोशी थे। इसमे जनसत्ता के तकरीबन सभी लोग शामिल थे। देश के तमाम जाने-माने पत्रकार, लेखक, समाजसेवी , नेता, छात्र नेता इसमें शिरकत कर रहे थे। कोंस्टीटूशन क्लब में , बीएचयू में , इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ में इस सिलसिले में बड़ी सभाएं हुईं। संयोग से मैं इस अभियान का संयोजन और समन्वय कर रहा था। अभियान को खूब समर्थन मिला। आम तौर पर सबका समर्थन मिला। उसके फलित भी निकले। मीडिया में पेड न्यूज़ का सवाल भी श्री प्रभाष जोशी ने ही मुखर किया। सो, एक लम्बी लड़ाई है, और खूब होती है। किसी के कब्ज़े में थोड़े आ गयी मीडिया।
सो, उसी बात को घुमा-फिरा कर केजरीवाल कहें तो क्या दिक्कत। लेकिन, पहले टीम केजरीवाल हुआ करती थी। इसमें मनीष सिसोदिया, शाजिआ जैसे पत्रकार भी थे। पुण्य प्रसून जैसे पक्षधर भी थे। वह टीम थी। अब आशुतोष, आशीष खेतान जैसों ने उसे कंपनी बना दिया है। केजरीवाल कंपनी सीनाजोरी पर उतारू है , कल सुपारी किलिंग भी करेगी। इसे मीडिया को अच्छा बनाने से नहीं लेना-देना। इसे मीडिया इनके हिसाब से चले, वह मीडिया चाहिए। इन्हें मीडिया नहीं, समर्थक एनजीओ चाहिए।
यह गुस्सा क्यों ? एनडीटीवी ने जो सर्वे दिखाया उससे। 100 सीटें लेकर प्रधानमंत्री बन रहे थे, कह रहे थे कि कोई भी सरकार उनके बगैर नहीं बनेगी। यहाँ तो एक प्रोफेशनल सर्वे में चार ही सीटें हैं। वे भी आज की स्थिति में। कल उतर कर दो-एक भी हो सकती हैं। महाराष्ट्र से बड़ी उम्मीदें थीं। पर, यहाँ एक मेधा पाटकर को छोड़कर किसी भी कैंडिडेट की जमानत भी बचने के आसार नहीं। गुस्सा इसलिये भी कि नौटंकी पकड़ी जा रही है। कहा था मुम्बई में ऑटो में चलेंगे। ऑटो के लिये पुणे से कार्यकर्ता बुलाया गया। ट्रेन में बैठेंगे। ट्रेन में बैठे, पर किसी यात्री से बात तक नहीं की। जुलुस निकाला तो खिलाफत हाउस तक। मेधा पाटकर की आयोजित सभा में भी हज़ार -डेढ़ हज़ार लोग। नकेल चुनाव आयोग ने भी कस दी है। जो चाहे वह मनमानी नहीं कर सकते। सो 50-60-70 कार्यकर्ता लेकर करें क्या ?
सो सारा गुस्सा मीडिया पर.
बेहतर हो, केजरीवाल कंपनी मीडिया और देश के बदले फिलहाल अभी दिल्ली और आसपास के चुनाव पर ध्यान दे । 100 के बदले 10 सीटें भी निकल गयीं तो अच्छा रहेगा। लेकिन श्री केजरीवाल, राजमोहन गांधी और आशीष खेतान सीटें नहीं निकालते। और न ही, चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले को टिकट देने से सीटें निकलती हैं।
जनादेश न्यूज़ नेटवर्क


