राजनीति से ऊपर उठकर राजनयिक नेतृत्व के माद्दे के लिए 56 इंच नहीं चाहिए
पलाश विश्वास
गौरतलब है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों नेहरु और इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी तक सभी प्रधानमंत्रियों ने पड़ोसियों के साथ संबंध बराबर बनाये रखने को प्राथमिकता दी है और महाशक्तियों के साथ गठबंधन से बचते हुए भारतीय उपमहाद्वीप में उनके सैन्य हस्तक्षेप की कोई जमीन बनने नहीं दी।
आज का नेतृत्व जिस रेशमपथ पर चलने के बजाय रात दिन उड़ान के जरिये विश्वनेता बनने की मुद्रा में हैं, वह रेशम पथ इन्हीं नेताओं का बनाया हुआ है। क्योंकि ये तमाम लोग राजनेता के अलावा राष्ट्रनेता और राजनयिक दोनों थे।

अब बांग्लादेश की खतरनाक घटनाओं के मद्देनजर भारतीय सैन्य हस्तक्षेप संभव है या नहीं, वहां विदेशी सैन्य हस्तक्षेप के लिए जमीन तेजी से पक रही है।
गुलशन मुठभेड़ कांड का जो भी सच हो, इस कांड में बड़ी संख्या में विदेशी नागरिक मारे जाने की वारदात सच है और भारत की राजनयिक नाकामी भी सच है। इसकी क्रिया प्रतिक्रिया के दुष्परिणाम बेहद दूरगामी होने हैं।
राजनेता राष्ट्रप्रधान या सरकार का मुखिया भले बन जाये, लेकिन भारी बहुमत और बारी लोकप्रियता के बावजूद वह तब तक राष्ट्रनेता बन नहीं सकता जबतक वह पार्टीबद्ध राजकाज में सीमाबद्ध रहता है और पार्टी के एजंडे से बाहर राष्ट्रहित में कदम उठाने का जोखिम वह उठा नहीं पाता।
इसके लिए छप्पन इंच का सीना उतना जरूरी नहीं है, बल्कि देश को जोड़ने की दक्षता और सभी तबकों के प्रतिनिधित्व करने की ईमानदारी बेहद जरूरी है।

सहिष्णुता, बहुलता और लोकतंत्र में एकात्म राष्ट्रीयता अनिवार्य है। समता और न्याय भी।
सैन्य शक्ति और पारमाणविक अंतरिक्ष हथियारों की अंधी दौड़ और विदेशी शक्तियों के साथ युगलबंदी से किसी राष्ट्र की एकता और अखंडता, प्रतिरक्षा और आंतरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है जबतक सभी नागरिकों की जान माल की सुरक्षा की गारंटी न हो और राजनीति से ऊपर उठकर राजनयिक नेतृत्व का माद्दा नेतृत्व में न हो। आइने में अपना अपना चेहरा देख लें, प्लीज।
भारत के मंत्रिमंडल में फेरबदल हुआ है और नये चेहरे भी शामिल हुए हैं तो थोड़ी बहुत छंटनी भी हुई है। यह कवायद कोई राजकाज या राजधर्म के हिसाब से नहीं है। यह यूपी का चुनाव जीतने का विशुद्ध हिंदुत्व है। ढाका का मतलब भी वही है।
भारत में राजनीतिक सत्तासंघर्ष के अलावा मुक्तबाजार का कारोबार ही सत्तावर्ग की देशभक्ति है।
मुंबई में अंबेडकर भवन तुड़वाने में अंबेडकरी आंदोलन में संघ परिवार की खुली घुसपैठ और शिवसेना का वर्चस्व काम आया और दलितों के सारे राम शंबूक हत्या में लगे हैं। दूसरी तरफ बाबासाहेब के जाति उन्मूलन के एजंडे के तहत छात्र युवा वर्ग के आंदोलन से निबटने की चुनौती है।
अंबेडकर भवन के टूटने के बाद अंबेडकरी आंदोलन में कमसकम महाराष्ट्र में नये सिरे से ध्रुवीकरण की प्रक्रिया शुरु हुई है तो सामने यूपी का चुनाव है।
जाहिर है कि हिंदुत्व की पैदल फौजों को लामबंद करने के लिए आईएस खतरा बेहद घातक रसायन है जिसके तहत भारत में संदिग्ध आतंकवादी कहकर फिर मुसलमान युवाओं की गिरफ्तारी का सिलसिला हिंदुत्व ध्रुवीकरण के लिए आसान है। विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थी बंगाल की कुल हिंदू आबादी से दो गुणा ज्यादा है और भारत भर में वे बिखरे हैं। उन्हें भी केसरिया सुनामी के शिकंजे में लेने की परियोजना पर तेजी से काम हो रहा है।