राजनीति गोलबंद जनता के खिलाफ, आपातकाल से भी बुरा हाल और इसीलिए छुट्टा सांढ़ों का यह धमाल!
राजनीति गोलबंद जनता के खिलाफ, आपातकाल से भी बुरा हाल और इसीलिए छुट्टा सांढ़ों का यह धमाल!
पलाश विश्वास
राजनीति गोलबंद जनता के खिलाफ, आपातकाल से भी बुरा हाल और इसीलिए छुट्टा सांढ़ों का यह धमाल! इकोनामिक टाइम्स के मुताबिक बिजनेस फ्रेंडली भारतीय नमो सरकार के चलते भारत में निवेश का माहौल इतना बढ़िया है कि आर्थिक दृष्टि से निवेशकों के लिए सारी उम्मीदें यहीं हैं।
सरकार बिजनेस फ्रेंडली हो तो चलेगा। लेकिन पूरी राजनीति ही बिजनेस फ्रेंडली है।
सत्ता में बनिया पार्टी है तो लोकतंत्र भी बनिया तंत्र है।
ब्राह्मणवादी वर्णवर्चस्वी नस्ली कारपोरेट जायनवादी बनियाराज है और बनियापरस्त राजनीति अब कारोबारी है, मुनाफा खेल है।
जनता की चमड़ी उधेड़ने की प्रतियोगिता है।
अब समझ लीजिये कि सरकार पर कितना दबाव होगा कि कहा जा रहा है कि सुधार लागू न होने कारण पच्चीस हजार पार शेयर सूचकांक लूढ़क रहा है ।
रिलायंस कंपनी गैस 8.8 डालर के भाव से देगी, लेकिन सितंबर के बाद। सितंबर तक सारे कठोर फैसले टाल दिये गये हैं ताकि वोटर हृदय विचलित न हों। डंके की चोट पर कहा जा रहा है कि फांसी की सजा तय है, सजायाफ्ता को लटकाया जायेगा सितंबर के बाद। मरणासण्ण जनता फिर हिंदुत्व और नाना अस्मिताओं के नाम वोट करेगी बनियातंत्र के हक में।
सारे के सारे आर्थिक सुधार इसी बनियातंत्र के लिए।
सारी की सारी जनसंहारी नीतियां इसी बनियातंत्र के लिए।
आपात काल में भी आंदोलन हुए।
आपात काल से पहले भी आंदोलन हुए और आपातकाल खत्म होते ही आंदोलन हवा।
राजनीति गठबंधन जमाने की हो गयी।
सौदेबाजी की राजनीति, जिसमें समाजवादी, वाम, गांधीवादी, बहुजनवादी राजनीति एकमुश्त बनियातंत्र में समाहित।
इस बनियातंत्र का सिलसिला आजादी के बाद से लगातार जारी है। लेकिन रिलायंस के उत्थान से यह अब अजातशत्रु है।
कारपोरेट फंडिंग पोषित राजनीति और बजरिये राजनीति करोड़ों अरबों की बिना पूंजी कमाई से विचारधाराएं और झंडे बेमतलब हो गये हैं।
जनता की नुमाइंदगी कर रहे सारे लोग ब्रांडेड हैं और अपने ब्रांड के सिवाय वे किसी की नहीं सुनते।
सारी राजनीति आम जनता के खिलाफ गोलबंद है जो आपातकाल से पहले तक नहीं थी।
अब कोई जनांदोलन न राजनीतिक है और न सामाजिक, सारा का सारा वैश्विक पूंजी का खेल, एनजीओ प्रोजेक्ट है। ऐसी बदतर हालत तो आपातकाल में भी नहीं थी।
आपातकाल के दिनों में अखबारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संपादकीय पेज खाली छोड़ा या सेंसर की कालिख समेत अखबार और पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ।
आज प्रिंट, इलेक्ट्रानिक मीडिया और मनोरंजन पर रिलायंस का कब्जा है। आज मीडियाकर्मी कारपोरेट गुलाम हैं। संपादक मृत हैं और संपादकीय का वजूद नहीं है। कारपोरेट स्तर पर संपादकीय नीतियां तय होती हैं। प्रबंधकों और दलालों का जयपताका मीडिया का ब्रांड है। जनपदों के मीडिया में भी प्रत्यक्ष विनिवेश जो अब शत प्रतिशत हो रहा है।
अब बताइये कि 25 जून,1975 की काली रात की सुबह कब हुई?
तब जनसंघ जनता पार्टी में विलीन होकर भाजपा बनकर अवतरित हो गयी।
मोरारजी सरकार की अल्पावधि में ही संघी सोशल इंजीनियरिंग ने ऐसा कमाल किया है कि बनिया पार्टी हिंदुत्व की पार्टी बन गयी।
इंदिरा सत्ता में लौटीं तो सिखों का नरसंहार हो गया। हिंदुत्व का मौलिक ध्रुवीकरण का प्रस्थानबिंदू वही है।
साठ के दशक में जो विदेशी पूंजी का संक्रमण हरित क्रांति की आड़ में शुरु हुआ, संघ समर्थित राजीव गांधी की सरकार के आते-आते वह तकनीकी और सूचना क्रांति के जरिये मुक्त बाजार की नींव डाल ही चुकी थी।
नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने तो सिर्फ समाजवाद का मुल्म्मा उतार फेंका। असल में नवउदारवादी सुधारों की शुरुआत अटल जमाने में हुई। सबूत डिसिंवेस्टमेंट कौंसिल और विनिवेश आयोग की रपटें हैं। हम जिन्हें पहले ही जारी कर चुके हैं।
मध्यपूर्व के तेल क्षेत्र में जिहाद का मतलब और लोकतंत्र के वसंत का तात्पर्य समझ लें तो दक्षिण एशिया में श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत के सबसे उपजाऊ बाजार में धर्मोन्मादी राजनीति और जायनवादी कारपोरेट राज का तात्पर्य समझ में आयेगा।
औपनिवेशिक भारत में सत्ता वर्ग शासक वर्ग में समाहित था जैसे वैसे ही अद्यतन शासक वर्ग वैश्विक व्यवस्था में समाहित है।
जैसे बनिया समुदायों के रंग बिरंगे धर्मस्थल बिजनेस फ्रेंडली हैं वैसे ही धर्मोन्मादी बनिया पार्टी की सरकार भी बिजनेस फ्रेंडली है। यह कोई तात्कालिक समायोजन नहीं है। स्थाई बंदोबस्त है। इसलिए धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद को भड़काने में कारपोरेट मीडिया ने खून पसीना एक कर दिया। इसीलिए धर्मोन्मादी जनादेश के निर्माम पर एक लाख करोड़ खर्च भी हो गये।
निवेशकों की आस्था और वैश्विक इशारों के विपरीत छुट्टे साँढ़ों का धमाल का रहस्य यही है। सांढ़ सिर्फ सेनसेक्स के ही नहीं होते। यह भी समझने वाली बात है।
वंचितों और कमजारो तबकों पर लगातार बढ़ रहे अत्याचार और सामंती कायदे कानून के तहत स्ती उत्पीड़न के तेज सिलसिले के बंदोबस्त में भी फिर वहीं सांढ़ों का कमाल है।
देहात के लोग भली भांति समझते हैं कि छुट्टा सांढ़ का क्या मतलब है हालांकि हर गली मोहल्ले में नगरों, उपनगरों और महानगरों में भी इन दिनों बनियापोषित सांढ़ों का ही राज है। जिन्हें हम राजनीति मान लेते हैं और ठुकवाने की मुद्रा में हो जाते हैं।
यह आत्मसमर्पण भाव सत्तर के दशक में अनुपस्थित था।
सर्वग्रासी मुक्त बाजार ने मनुष्यता और सभ्यता का ही नहीं, विवेक और साहस का भी अंत कर दिया है।
कहते अपने को आस्तिक हैं और आत्मा को अमर मानते हैं लेकिन डरे हुए इतने हैं कि सत्य के विरुद्ध ही खड़े होने में अस्तित्व मानते हैं लोग।
धार्मिक लोग ही सबसे ज्यादा अधर्म करते हैं क्योंकि बनियातंत्र में सारे प्रतिमान लाभ हानि से तय होते हैं।
नैतिकता का प्रवचन होता है लेकिन व्यवहार में बापू हैं।
यही नहीं, विधानसभा चुनावों के मद्देनजर नमो सरकार उस खाद्यसुरक्षा कानून को लागू करने की कवायद भी कर रही है, जिससे दरअसल ठंडे बस्ते में डालना है जिससे भारत से लेकर अमेरिका तक बाजार के त्तव मनमोहन सकरका से खफा हो गये। अब चुनावी करिश्मा यह है कि खाद्य सुरक्षा कानून को अमल में लाने की तारीख को 3 महीने के लिए बढ़ाया गया है। गैस तेल की तरह यहां भी मोहलत वही तीन महीने की। जाहिर है कि खाद्य सुरक्षा खत्म करने का ठीकरा मानसून के मत्थे। मीडिया इसीलिए मानसून घाटे के खूब हाईलाइट कर रहा है। इससे दोहरा फायदा पहले निर्यात और फिर आयात का कारोबार बम बम करने का है। प्याज बाहर भेजकर कमायेंगे तो किल्लत होने पर आयात से भी कमायेंगे।
लालजी निर्मल का लिखा पढ़ लें-
दुनिया मुसलमानों के जनसंहार के लिए उन्हें गुनहगार ठहरा रही थी। उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कांशीराम के ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारों को भी छोड़ दिया और मौकापरस्त तरीके से ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ जैसे नारे चलाए। लोगों को कुछ समय के लिए पहचान का जहर पिलाया जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे बेवकूफ हैं। लोगों को मायावती की खोखली राजनीति का अहसास होने लगा है और वे धीरे धीरे बसपा से दूर जाने लगे हैं। उन्होंने मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उन्होंने जनता को सिर्फ पिछड़ा बनाए रखने का काम किया और अपने शासनकालों में उन्हें और असुरक्षित बना कर रख दिया। उत्तर प्रदेश के दलित विकास के मानकों पर दूसरे राज्यों के दलितों से कहीं अधिक पिछड़े बने हुए हैं, बस बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलित ही उनसे ज्यादा पिछड़े हैं। मायावती ने भ्रष्टाचार और पतनशील सामंती संस्कृति को बढ़ाना देने में नए मुकाम हासिल किए हैं, जो कि बाबासाहेब आंबेडकर की राजनीति के उल्टा है जिनके नाम पर उन्होंने अपना पूरा कारोबार खड़ा किया है। उत्तर प्रदेश दलितों पर उत्पीड़न के मामले में नंबर एक राज्य बना हुआ है। यह मायावती ही थीं, जिनमें यह बेहद गैर कानूनी निर्देश जारी करने का अविवेक था कि बिना जिलाधिकारी की इजाजत के दलितों पर उत्पीड़न का कोई भी मामला उत्पीड़न अधिनियम के तहत दर्ज नहीं किया जाए. ऐसा करने वाली वे पहली मुख्यमंत्री थीं।


